Friday, December 23, 2016

प्यार, शादी और मौसमों की आवाजाही



उस परिचित जोड़े को बहुत करीब से जानती थी, महीनों तक दिन-रात का साथ रहा. मैंने उन्हें कभी लड़ते झगड़ते नहीं देखा था, ऊंची आवाज़ में बहस करते भी नहीं सुना, दोनो शांति से अपना काम करते रहते. मैं कॉलेज में थी, उम्र के उस पड़ाव पर जब रिश्ते में लड़ाई-झगड़े की गैरमौजूदगी को ही प्यार मान लेना सहज था. दो-एक बार मां के सामने उनकी खूब तारीफ की. बताने में शायद अपने घर में होती रहने वाली कहासुनी को लेकर सांकेतिक उपालंभ भी रहा हो. मां हंसने लगीं, पति-पत्नी में लड़ाइयां ना हों तो सचमुच फिक्र की बात है. देखना कुछ गड़बड़ होगी

मुझे उस वक्त मां का जवाब बिल्कुल पसंद नहीं आया. बाद में पता चला कि कुछ साल पहले इन दोनों के बीच घर छोड़ने, तलाक की नौबत से लेकर आत्महत्या तक की कोशिश हो चुकी है. अब बच्चों की खातिर साथ हैं लेकिन पास फिर भी नहीं. तकरार नहीं क्योंकि प्यार को वापस पाने के हर रास्ते पर दीवार खुद से चुनवा रखी है. 

प्यार के पक्ष में, प्यार को ज़िंदा रखने की दुहाई देते हुए, शादी को नकारना लेटेस्ट फैशन है और आउट ऑफ फैशन भला कौन कहलाना चाहेगा. ऐसी परिस्थिति में दूसरा पक्ष रखने वालों को अंग्रेज़ी में डेविल्स एडवोकेटकहते हैं शब्दकोश उसका हिंदी अनुवाद 'छिद्रान्वेषी' बताता है...पता नहीं कितना तर्कसंगत है, ख़ैर वही सही.

तुम्हारे पापा ये, इतने ज़िद्दी, कभी मेरी कोई बात नहीं सुनी, सारी ज़िंदगी मुझे इतनी तकलीफ दी, मैं ही हूं जो निभा रही हूं... जैसे जुमलों का रियाज़ सुबह शाम करने वाली मांओं के सामने अपने मुंह से पापा की एक शिकायत कर दो फिर देखो तमाशा. पहले आपकी सारी हवा निकाल कर आपकी हेकड़ी गुल करेंगी उसके बाद पापा की तारीफों में पूरा दिन निकाल देंगी. क्योंकि जब हम किसी को सचमुच प्यार करते हैं तो उससे जुड़ा हर अधिकार अपने पास रख लेना चाहते हैं, उसकी बुराई का भी, उससे झगड़ने का भी.

शादी है ऋतुओं का चक्र, कतार बांधे कई मौसमों की आवाजाही. प्यार उन कई मौसमों में से एक.

फूल सबको सुंदर लगते हैं, फूलों के बिना पौधा भले ही सूना लगे लेकिन पौधे का अस्तित्व तब भी बना रहता है. जब तक उसका एक पत्ता भी हरा रहता है, जब तक उसके तने में हल्का सा स्पंदन भी बचा है, फूल के फिर से खिल पाने की उम्मीद कायम रहती है. बिना फूल के पौधे को भी खाद पानी की ज़रूरत होती है.

पहली पारी के फूल झड़ जाने के बाद ही पौधे के खत्म होने का मर्सिया पढ़ने वाले लोग वही होते हैं जिन्हें शादी के बाद प्यार ख़त्म होता जान पड़ता है, जिन्हें हर सुबह, हर शाम प्यार के होते रहने का सबूत चाहिए होता है. ऐसे लोग फूल देखकर खुश हो सकते हैं, उन्हें निहारते रह सकते हैं, उनके ऊपर कविताएं भी कर सकते हैं लेकिन फूल उगा नहीं सकते. उगा पाते तो समझते फूलों के झरने की वजहें मौसम से इतर भी हुआ करती हैं, पानी की कमी से ही नहीं, कभी-कभी पानी के आधिक्य से भी झरते हैं फूल. ये भी समझते कि फूल उगाने के क्रम में मिट्टी से हाथों को सानना भी होता है, इतनी मशक्कत के बाद भी फूल ना आए तो मौसमों की आवाजाही के बीच पौधा नहीं उखाड़ा जाता. जिनको केवल प्यार चाहिए, उसके साथ जुड़ी ज़िम्मेदारियां नहीं, जिन्हें चढ़ते सूरज की लालिमा से प्यार है, उसके डूबने के बाद नए दिन के इंतज़ार पर एतराज़, जिन्हें बचपन को छोड़े बिना ही बड़ा होने की ज़िद है शादी उनके लिए सही नहीं. 

मुसीबत ये कि हममें से ज़्यादातर जिसे हैप्पी एंडिंग मान लेते हैं वो दरअसल जस्ट द बिगनिंग होती है. प्यार की परीक्षाएं शादी के मंडप पर खत्म नहीं नए सिरे से शुरू होती हैं. सुबह के अलार्म, काम की डेडलाइन, नटिनी  की रस्सी से तने बजट से संतुलन, बाज़ारों, अस्पतालों, स्कूलों की दौड़ाभागी जैसी अनगिनत अपेक्षाओं के बीच प्यार को बचा ले जाना किंवदंती बन चुकी किताबी प्रेम कहानियों से कहीं ज़्यादा दुरूह है.

सारी ज़िम्मेदारियां निभा चुकने के बाद साथ का निचुड़ा सा जो अवशेष बचा रह जाता है उसमें से भी जो प्यार को ढूंढ निकाला तो समझना रब को पा लिया.


Sunday, December 18, 2016

बेतरतीबी अच्छी है




रश्क करने लायक करियर, सजा संवरा घर, सलीकेदार बच्चे, चमचमाती रसोई के बाद भी बनी-ठनी हंसती मुस्कुराती गृहस्वामिनी को देखकर अच्छी औरतों को या तो ईर्ष्या होनी चाहिए या ये सारे हुनर सीखने की ललक. फिर जाने क्यों अब थोड़ी बेचैनी सी होती है, थोड़ी असहजता. जाने क्यों मन करता है उसे बाहों में भर कर कह दूं, सुनो अब और जब्त मत करो, क्योंकि कोई और कभी नहीं पूछेगा तुमसे कि ये सब करते वक्त तुम कैसे एक-एक कतरा अंदर से खाली हुई जाती होगी.

जब तक ढोती जाओगी असंख्य उम्मीदें, कोई नहीं आएगा तुम्हें बताने कि हर सामान से हर रोज़ धूल की परत उतारी जाए ये ज़रूरी नहीं, मन पर बेजारी की धूल नहीं जमनी चाहिए. रिश्तों के हर चनकते जोड़ के लिए नहीं हो तुम फेवीकोल, कुछ नहीं चल सकने वाली मजबूरियों का टूट कर बिखर जाना ही बेहतर.

Sunday, November 27, 2016

भले घर की बेटियां कहानी नहीं बनतीं


आप जैसी फेमिनिस्टों से कुछ कहने में भी डर लगता है, पता नहीं किस बात को कहां ले जाकर पटकें, कई परिचितों ने नाटकीयता के अलग-अलग लेवल पर, अलग-अलग अंदाज़ में कह दिया है.

लेकिन मैं तो बिल्कुल भी स्त्रीवादी नहीं. किसी रोज़ ऐसा कोई आंदोलन भी हुआ जब सारी औरतें अपने विद्रोह के स्वर के साथ कतारबद्ध हो जाएं, मैं उस रोज़ भी किचन में कोई नई रेसिपी ट्राई करना ज़्यादा पसंद करूंगी. मैं तो बल्कि खालिस परिवारवादी हूं. हंसते-खेलते परिवारों का बने रहना मेरी नज़र में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. बस पूरे परिवार के हंसने-खेलने की कीमत किसी एक की मुस्कुराहट नहीं होनी चाहिए. मैं ऐसे हर परेशान परिचित को अपनी ओर से आशवस्त कर देना चाहती हूं.

फेमिनिज़्म वैसे भी चंद उन बेबस शब्दों की सूची में शुमार है जिन्होंने पिछले कुछ समय में अपना मतलब पूरी तरह से खो दिया है. अपने तकने का आसमान और अपने भटकने लायक ज़मीन की जद्दोजहद मेरी सांसों की तरह हैं, मेरे होने की सबसे ज़रूरी शर्त. कोई बाहरी ऑक्सीजन मास्क इसकी भरपाई नहीं कर पाएगा.

Saturday, November 19, 2016

देशभक्ति ज़रूरी तो है...




आदरणीय देशभक्तों,
देश की सुरक्षा के लिए सैनिकों की कुर्बानी का एकांगी आलाप हम सबने सुना, कोरस में गाया भी. सीमाओं की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेकर सैनिकों ने सच मे हमें ये सकून दिया है कि हम सामाजिक व्यवस्था के तमाम दूसरे काम सुचारू रूप से कर सकें. क्योंकि सैनिकों को सीमा पर अकेले ही जाना होता है अपने बच्चों, पत्नी, मां-बाप को पीछे छोड़. अपने सामान के साथ वो फिक्र की एक पोटली भी ढोता जाता है, अपने परिवार की सुरक्षा की, अपने बच्चों के भविष्य की, मां-बाप के स्वास्थ्य की, पत्नी के ऊपर पड़ी दोहरी ज़िम्मेदारी की.

इन तमाम चिंताओं को भूल अगर वो अपनी ड्यूटी निभा पाता है तो इसलिए भी क्योंकि उसे पता है उसके पीछे एक पूरी सामाजिक व्यवस्था उसके अपनों का ख्याल रखने के लिए तैयार है. 

उसे पता है कि उसके बच्चे हर सुबह स्कूल जाएंगे, जहां उनके भविष्य को संवारना टीचरों की ज़िम्मेदारी है. कई महीनों की ड्यूटी के बाद जब अगली बार जब वो घर आएगा तबतक वो दुनिया के कई नए पहलुओं को देख-समझ चुके होंगे. अपनी आखें गोल कर, छोटे हाथ हवा में लहरा उसे विस्मयकारी कहानियां सुनाएंगे जो उसके पीछे किसी और ने उन्हें सिखाई है, उसकी लंबी अनुपस्थिति में कभी-कभी, थोड़ा-थोड़ा उसकी ख़ाली जगह भरने की कोशिश की है.

Sunday, October 23, 2016

बेटियों के मां-बाप भी बूढ़े होते हैं



कुछ बातें निजी स्तर पर इतने गहरे जुड़ी होती हैं कि उनके बारे में कुछ भी कहना कई पुराने ज़ख्मों को कुरेद देता है। मेरी परवरिश में दादाजी का बहुत बड़ा हाथ था, कई मायनों में वो समय से बहुत आगे थे। शादी के बाद उन्होंने मां की पढ़ाई पूरी करवाई, हम चारों बहनों की पढ़ाई से जुड़ी हर छोटी चीज़ को लेकर हमेशा सजग रहे। टीवी पर मेरी एक रिपोर्ट को उतनी बार टकटकी लगाए देखते जितनी बार वो दोहराई जातीं। मेरी नौकरी के दौरान एक बार जब वो हमारे घर आए थे, उन्हीं दिनों नानाजी ने भी हमारे यहां आने का प्रोग्राम बनाया। दादाजी को जब ये खबर मिली तो उन्होने थोड़ी तल्खी से कहा, मैं अपने घर में हूं, बाकी मेहमानों का स्वागत है। जवाब में मां ने हंसकर बस इतना कहा मेहमान क्यों, ये उनकी बेटी का भी तो घर है। दादाजी तुरंत नाराज़ हो गए।

Friday, October 21, 2016

ये मुद्दा बेमानी हैं


अमेरिका में चुनाव होने वाले हैं।  होने वाले तो यूपी और पंजाब में भी हैं लेकिन अमेरिका वाला एक तो दिवाली-छठ निपटाते ही पड़ेगा और दूसरा उसमें वो सारे टाइम पास मसाले हैं जिसे हम अपने वाले चुनावों में ढूंढकर मज़ा लेते हैं। जिस तेज़ी से अमेरिका के कोने-कोने से बालाएं सामने आकर डोनाल्ड ट्रंप पर यौन शोषण के आरोप मढ़ रही हैं, ज़्यादातर लोगों के लिए व्हाइट हाउस की दौड़ हिलेरी के पक्ष में खत्म हो चुकी है और उनकी दिलचस्पी केवल विनिंग मार्जिन जानने में बची है।
हिलेरी चुनाव जीत गईं तो खबर क्या बनेगी? औरतों की इज्ज़त नहीं करने वाले ट्रंप को हराकर हिलेरी ने इतिहास रचा, और बन गईं अमेरिका की पहली महिला राष्ट्रपति?

Sunday, October 16, 2016

अवसाद की एक शाम






एक लेख भेजने की डेडलाइन पार हो चुकी है और मेरी उंगलियां ढीठ बनी कीबोर्ड पर एक ही जगह अड़ी हुई हैं। मैं स्क्रीन पर नज़र जमाए शून्य में निहार रही हूं। इसके एक बटन पर क्लिक करते ही मुझे दुनिया संतरे की तरह कई फांकों में बंटी दिखेगी। मेरे सामने किसी एक के सहारे लग जाने की चुनौती है, निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता क्योंकि वो आउट ऑफ फैशन है आजकल। हर टुकड़े के सही ग़लत दोनों पक्षों पर विचार रखने वालों की गत तो धोबी के कुत्ते समान। राष्ट्रकवि आज होते तो शायद उन्माद के बीच तटस्थता की ज़रूरत पर ही लिख डालते।

Sunday, September 25, 2016

धर्म, भोजन और भूगोल



दरभंगा में बचपन की यादों में सुबह-सुबह सर पर टोकरी लिए मछली बेचने के लिए निकली मछुआरिनों की आवाज़ भी शुमार है। किसी रोज़ बरामदे पर बैठे दादाजी मम्मी को आवाज़ लगाकर पूछते कि खाने की तैयारी शुरु नहीं हुई हो तो मछली ले लें और अंदर से हां होते ही घर का माहौल बदल जाया करता। मछली की सफाई, पीसे जा रहे मसालों की महक और लंच शुरु होने के पहले ही तली हुई मछलियों से पेट भर लेना, स्मृतियों में ये सबकुछ अभी भी ताज़ा है। थोड़ी बड़ी होने पर हॉस्टल में मछली के नाम पर बने सर्वनाश डिश ने मन ऐसा फेरा कि शाकाहारी होने का मन बना लिया। दादाजी ने सुना तो परेशान हो गए, मैथिल ब्राह्मण की लड़की मछली खाना कैसे छोड़ सकती है। ब्राह्मणों को शाकाहारी होना चाहिए वाला तर्क तब तक पल्ले नहीं पड़ा था जबतक एक दक्षिण भारतीय टीचर ने मुझे नज़रें टेढ़ी कर तंज़ कसते हुए मांस भक्षी नकली ब्राह्मणकहकर नहीे बुलाया था।

Sunday, September 4, 2016

अपनी-अपनी आज़ादी


अपनी बिल्डिंग में सिक्योरिटी गार्ड की वर्दी पहने औरतें नज़र आ रही हैं आजकल। जितनी बार गेट से अंदर-बाहर जाओ सैन्य तत्परता से खड़ी होकर विश करती हैं। शॉपिंग मॉल और दफ्तर की बिल्डिंगों में तो कई साल से तैनात हैं, हमारे पर्स टटोलतीं, स्कैनर लेकर जांच करतीं।

ओहदा चाहे कोई भी हो वर्दी पहनकर शान तो आ ही जाती है। चेहरे पर नई शादी की ताज़गी, सुंदर चूड़ियां, मांग भर सिंदूर, गले में आर्टिफिशियल मंगलसूत्र और माथे पर लाल बिंदी, तिस पर वर्दी की नीली पतलून में टक्ड इन आसमानी शर्ट और काली बेल्ट। फैशन के तमाम प्रचलित मापदंडों को चुटकियों में उड़ातीं।

Sunday, August 28, 2016

तीन कहानियां


पहली कहानी: हमारी बेटी (कही-सुनी)

वॉइस ऑफ अमेरिका के दिनों में एक वरिष्ठ भारतीय सहकर्मी एक दिन तय समय से कुछ पहले, थोड़ा हड़बड़ाते हुए दफ्तर से बाहर निकलीं। उन्हें मंदिर होते हुए घर जाना था। पता चला कि अगले दिन काम के सिलसिले में उनकी बेटी अपने कुछ सहकर्मियों के साथ पाकिस्तान जा रही थी। अमेरिका में पली और अमेरिकन से ब्याही उनकी बिटिया जिस समूह के साथ पाकिस्तान के दौरे पर जा रही थी उसमें वो अकेली ही भारतीय मूल की थी। वापस आकर उसने बताया कि पाकिस्तान के जिस भी शहर में जाना हुआ, मिलने वालों ने देखते ही कहा, तुम्हारी टीम के बाकी लोग होंगे विदेशी, तुम तो हमारी अपनी हो। बिचारी ने कई बार अपने सरनेम का हवाला देते हुए कहना चाहा कि वो अमेरिकन ही है, तो जवाब मिला, शादी की है ना अमेरिकी से तुमने, बेटी तो हमारी ही हो।

Saturday, August 20, 2016

पिता..बीस साल बाद


मोबाइल और इंटरनेट दोनों का युग आ चुका था लेकिन पिता अभी भी खबरें सुबह के अखबार में पढ़ते और शाम को दूरदर्शन का सरकारी बुलेटिन देखते। मोबाइल का इस्तेमाल बस दूरभाष के लिए होता, वो भी भरसक एक जगह पर बैठे-बैठे। 

बेटा अभी भी पिता से आंखों में आंखें डालकर बात करने में हिचकता था। हालांकि उसके पास अब एक अदद नौकरी, छोटी सी गाड़ी के अलावा बड़े शहर के छोटे मुहल्ले में डेढ़ कमरे का एक घर भी था। हालांकि बेटा जो काम करता था वो पिता की समझ से बिल्कुल परे था फिर भी उन्हें इस बात का गर्व था कि इतनी सी उम्र में उसने घर भी खरीद लिया और गाड़ी भी जबकि ग्रैचुय्टी के पैसों से घर बनाने के बाद पिता अपने दो पहियों के खटारा स्कूटर में दो और पहिए जोड़ पाने का सपना भी नहीं देख सकते थे।

Saturday, August 13, 2016

पिता


इंटरनेट, मोबाइल युग से बहुत पहले की एक शाम।

घर में हाहाकार मचा था। मां, बहनों का रो-रोकर बुरा हाल। शाम को ट्यूशन के लिए गया बेटा अभी तक घर नहीं लौटा। आधी रात होने को थी, पूरा पड़ोस घर में इकठ्ठा था। इस घर में तो क्या आस-पास के चार-आठ घरों में भी बना खाना चूल्हे पर रखा ठंढा हो रहा था। बदहवास पिता कभी बेटे के दोस्तों और दोस्तों के दोस्तों को घर तक दौड़ लगा रहे थे कभी घर की महिलाओं को ढाढस बंधा रहे थे।  दिमाग ने काम करना कब का बंद कर दिया था। अब इतनी हैसियत तो थी नहीं कि पैसे के लालच में बेटे को कोई उठाकर ले जाए। छोटी तनख्वाह वाली मामूली नौकरी में उन्हें दफ्तर के बाहर बहुत कम लोग जानते थे। पड़ोसियों को छोड़ दें तो शहर क्या मुहल्ले के भी चार-पांच घरों में बमुश्किल आना जाना था। फिर वो कोई छोटा बच्चा भी तो नहीं था जो रास्ता भूल जाए, 15-16 साल का जवान लड़का। पढ़ाई के अलावा घर-बाहर के कई काम संभालने वाला लड़का।

पड़ोसी बार-बार पुलिस में जाने का दबाव बना रहे थे। लेकिन घर में बड़ी होती बेटियां हों, तो पुलिस के पास जाने से पहले भी दस बार सोचता है शरीफ आदमी। मन भर के पैरों से दरवाज़े के बाहर निकले ही थे कि बेटे का खास दोस्त सामने दिखा। उसे कुछ बात करनी थी। शाम को उसने ही पूछे जाने पर मासूम इंकार में सिर हिलाया था। कोने में ले जाकर उससे बात की और उल्टे पैर घर में घुसे।

Sunday, August 7, 2016

छोटी-मोटी बातें


ये कहानी बहुत बचपन में पढ़ी थी।
अपने समय के एक बड़े चित्रकार ने एक सुंदर चित्र बनाया, दो बैलों की लड़ाई का चित्र। जिसने भी देखा वाह-वाह कह उठा। चित्रकार ने ऐसी जीवंत रेखाएं खीचीं थीं कि देखने वाले की आखों के सामने सायस ही दृश्य स्थापित हो जाता था। युद्धरत दोनों बैलों की मांसपेशियां खिचीं हुई थीं, शरीर के हर हिस्से में तनाव नज़र आता था। क्रोध और उत्तेजना में उनके फड़कते हुए रोंए तक महसूस किए जा सकते थे। नथुने फड़कते हुए थे, उनकी बोलती आखों से जैसे खून टपक रहा था। देखने वाला भी तारीफ किए बिना कैसे रह पाता। तारीफों से चित्रकार की छाती चौड़ी हो गई।

Saturday, July 30, 2016

स्त्री, अर्थ, अनर्थ?


कौन कहता है कि मर्दों के लिए औरतें शरीर मात्र हैं। अब इतनी भी संकुचित नहीं है उनकी मानसिकता। नज़र घुमाने की देर है, ऐसे परम प्रतापियों से भरी पड़ी है दुनिया जिनकी औरतों में दिलचस्पी चातुर्दिक होती है। जो उनके धर्म, काम और मोक्ष के साथ-साथ उनके अर्थ के भी तारणहार बनना चाहते हैं। जो हमारे अर्थोपार्जन पर हर किस्म की टिप्पणी करने का दम खम भी उतनी ही शिद्दत से रखते हैं। बहुतों की नींदें हराम रहीं हैं ये सोच सोचकर कि औरतों को नौकरी क्यों चाहिए, पैसों की ज़रूरत ही क्यों है, कमाती हैं तो उनका करती क्या हैं वगैरा-वगैरा।
हम जब नौकरी की तलाश में आकाश पाताल एक कर रहे थे तो साथ पढ़ने वाले कुछ लड़के ऐसे देखते जैसे जॉब मार्केट में उतरने की हिमाकत कर लड़कियों ने उनके हिस्से की रोटी छीनकर खा ली हो। एक ने तो दार्शनिक अंदाज़ में कह भी दिया हमारे लिए भी तो छोड़ दो कुछ नौकरियां, तुम्हें कौन सा घर चलाना है, कमाने वाला पति तो ढूंढ ही देंगे मां-बाप

Saturday, July 23, 2016

आधी आबादी का निर्वाण


अपने ईश को पाने के लिए, अपने दीन की राह में, अपने सत्य की तलाश के लिए, पुरूष छोड़ते आए हैं अपना घर, अपना परिवार, अपने लोग। हर वो रिश्ता जो सत्य संधान और उनके बीच बाधा बनकर आ सकता है। बिना पीछे मुड़े, मोह के सारे बंधन एक झटके में तोड़ चले गए। फिर उन्होंने पा भी लिया अपना सत्य, अपना प्रभुत्व। नए धर्म गढ़े, नए पंथ जोड़े। उन्होनें कहे हज़ारों शब्द, हर शब्द पत्थर की लकीर, जिसे अपना अंतिम सत्य मानने वाले लाखों अनुयायी भी जुट गए।

लेकिन प्रथम पुरूष की छाया से जन्मी, आदम की पसली से गढ़ी गई, किसी औरत ने कभी कोई धर्म नहीं गढ़ा। कोई स्त्री नहीं सिरज पाई किसी पंथ को, नहीं दिखा पाई कोई राह मुक्ति की आस लगाए अनुयायियों को। औरतों ने नहीं रचीं ऋचाएं, आयतें, वर्सेज। इन पन्नों में उनके लिए लिखे कर्मों की सूची भी तो भौतिक कर्तव्यों से इतर कुछ ज़्यादा नहीं। स्वर्गारोहण के मार्ग में, सुमेरू की तलहटी में सबसे पहले पांचाली के ही तो पैर फिसले थे। परिवार और प्रजा के प्रति आसक्त द्रौपदी की चाहतों की सीमा से कितना परे था ना सशरीर स्वर्ग में प्रवेश का सौभाग्य। 

शाम की चाय उस दिन लंबी खिंच गई थी। बाबूजी (श्वसुर) तन्मयता से लक्ष्मीनाथ गुसाई की कहानी सुना रहे थे। 18 शताब्दी के प्रसिद्ध कवि और योगी, कई दूसरे सत्यान्वेषी योगियों की तरह उन्होंने परिवार के कहने पर शादी की और पत्नी की ओर देखे बिना घर छोड़ दिया। पांडित्य प्राप्त करने के बाद जब पत्नी, संग की कामना के लिए उनके पास पहुंची तो उन्होने इसका प्रयोजन पूछा। पुत्र प्राप्ति की चाहना की तो पति की खड़ाऊं मिली जिसे धोकर पीने से लाल की प्राप्ति होगी। हो गई प्राप्ति। और साथ में पति  धर्म का निर्वाह भी। कहानी सुनकर मैं और मां एक दूसरे को एक सी नज़र से देख रहे थे, पुरूषों के लिए निर्लिप्त रह पाना इतना सहज कैसे हो पाता है? 

बचपन में अपने पिता की नानी की कहानियां सुना करती थी। पति की बेरुखी और मनमानियों से आहत एक बार अयोध्या गईं तो सीता की प्रतिमा में मन ऐसा रमा कि लौट कर कभी घर नहीं आईँ। वहीं के एक आश्रम में जीवन के बाकी साल बिता दिए। लेकिन घर पूरी तरह से तो भी नहीं छूट पाया उनसे। पति का परित्याग करने वाली औरतें भी अपने बच्चों से विमुख नहीं हो पातीं। मिलने आती रहीं लौट-लौटकर। पोतियां बड़ी हुईं तो उन्हें भी अपने साथ ले गईं। मूल-गोत्र के बंधनों को तोड़ उनका विवाह अयोध्या के परिवारों में ही कराया। मां-पापा की शादी के बाद भी आईं थीं, मां को देखने। उन्होंने अपने लिए शांति का मार्ग ढूंढा लेकिन क्या मुक्ति का भी?

कुछ दे सकने के लिए काफी कुछ छोड़ना भी तो होता है। और कहां छूट पाती हैं औरतों से कभी उनकी एक सी दिनचर्या। कोरी भावुकता से भरी औरतों को जाने क्यों परिवार की अनगिनत जवाबदेहियां कभी ज़ंजीर नहीं लगते। फिर कैसे मिलता होगा स्त्रियों को मोक्ष, मुक्ति, त्राण? कैसे पार कर पाती हैं वो वैतरणी? कयामत के रोज़ किस उम्मीद की चमक ला पाएंगी, फैसले का इंतज़ार करती उनकी आंखें?

घर और बाहर के बीच संतुलन बिठाने की सतत् कोशिश के बीच तो मुक्ति और निर्वाण जैसे शब्दों को याद रखना भी जटिल। चौके की उमस में, बच्चों के पोतड़ों में, जूठे बर्तनों के ढेर में भी क्या भगवान आ सकते हैं कभी?

ज़रूर आ सकते हैं। बल्कि आना पड़ता है उनको, आते रहे हैं वो।

स्त्रियां चूंकि मुक्ति के लिए पलायन नहीं करतीं, तभी शायद वो देख पाती हैं छोटी-छोटी चीज़ों में अपना ईश। परीक्षा के दुर्दम्य क्षणों में भी मन्नतों के धागे बन जाते हैं उनकी जिजीविषा को जीवित रखने की सबसे मज़बूत कड़ी। एक छोटी सी ताबीज़ में ढूंढ पाती हैं वो विश्वास का अथाह सागर। आना होता है ईश्वर को उनतक उसी रूप में जिससे उनकी पहचान है।


हो ना हो, वैतरणी के उस पार का एक रास्ता रसोई के धुंए, बच्चों की हंसी और परिवार की ज़रूरतों से होकर भी जाता है। 

Saturday, July 16, 2016

ग़ैरत गर मिस्प्लेस्ड हो


यूं कहानी आंखों के सामने की है फिर भी नाम बताने की ज़रूरत नहीं। हर शहर के हर मुहल्ले की हर गली में मर्दानगी से लबरेज़ ऐसे नमूने ज़रूर होते हैं जिनके ज़िक्र के बिना औरतों की मुहल्ला गोष्ठी कभी पूरी नहीं होती। औरतें आंखें गोल-गोल किए, पल्लू से मुंह ढककर, फुसफुसाती आवाज़ में उस आदमी का नाम लेतीं हैं और उसकी बीवी के लिए च्च-च्च जैसी कुछ आवाज़ निकालतीं और अपनी किस्मत पर रश्क करतीं घर निकल जाती हैं। तो जनाब ऐसे ही भरे-पूरे मर्द थे जिनकी मर्दानगी का एक ना एक सबूत बीवी के शरीर पर चोट के निशान के तौर पर हमेशा मौजूद रहता। यूं मां-बाप से भी गाली-गलौज करते, फिर भी थे तो बेटे ही, सो बीवी पर हाथ उठाते वक्त मां-बाप का भी पूरा सहयोग मिला करता उन्हें। बीवी बड़े संस्कारी किस्म के परिवार से आई थी, इसलिए अर्थी के अलावा मायके लौटने के लिए कोई और सवारी मयस्सर नहीं थी उसे। मार खाती, आंसू बहाती और इकलौती बिटिया को लेकर कोने में सो रहती।

Saturday, July 9, 2016

तुम समझ पाओगे?


जब से तुम्हारे घर से फोन आया है मेरे घर में हलचल मची है। मेरे ऑफिस से लौटते ही कई चहकती आवाज़ों ने मुझे बता दिया कि कल तुम अपने परिवार के साथ मुझे देखने आ रहे हो। मन तभी से  खट्टा हो गया है। तुमसे मिले बगैर तुम्हें लेकर एक किस्म के प्रतिक्षेप से भर गया है मन। ये जो हम दोनों के मिलने के मौके को देखने की रस्म का नाम दे दिया गया है ना, ऐसा लगता है जैसे बराबरी के इस सो कॉल्ड रिश्ते की शुरूआत में ही एक सेंध लग गई है। जैसे ये पहला अधिकार है जो मुझसे छीनकर तुम्हें दे दिया गया है। पहली स्वीकृति का अधिकार। और शुरुआत तो हमेशा एक से ही होती है।  

Saturday, July 2, 2016

सब ठीक है, फिर भी...



ट्रेन से सफर के दौरान इस बार हर ओर अद्भुत नज़ारे दिखे। स्टेशन पर लोग डस्टबिन ढूंढ-ढूंढकर अपना कचरा फेंक रहे थे। कहीं थोड़ी गंदगी पड़ी रह गयी तो तुरंत सफाई वाले को बुलाकर साफ कराया गया। उसके उपर किसी ने भी अपना कचरा ये सोच कर नहीं डाला कि जाने दो पहले से तो है ही एक हमारे कचरे से क्या फर्क पड़ेगा। एक जगह लाइन लगी थी, पास जाकर देखा तो पता चला थूकने वालों की है। पान, तम्बाकू, बलगम सब मुंह में दबाए लोग-बाग पंक्तिबद्ध होकर कचरे के डब्बे में थूक रहे थे, ताकि प्लेटफॉर्म पर गंदगी ना फैले। किसी के बच्चे को जब आई तो उसकी पैंट नीचे कर उसे पटरी की तरफ घुमाकर खड़ा करने के बजाय कर्तव्यनिष्ठ पिता भागा गोद में उठाकर टॉयलेट की ओर। इसके बावजूद हर जगह गंदगी फैली थी। अजब निकम्मी सरकार है इस देश की। वैसे पिछली सरकारें भी कम निकम्मी नहीं थी। अब इसमें बिचारी जनता का क्या दोष?

Saturday, June 25, 2016

मैं, तुम और बस....


मेरे शरीर के नज़र आ सकने वाले हर हिस्से पर तुम्हारे नाम की मुहर लगा दी गई थी, मांग में, माथे पर, कलाइयों में, हथेलियों पर, पैरों में। मेरे अस्तित्व के हर कोण को तुमसे गुज़रने की अनिवार्यता समझाई जा रही थी, नाम, पता, पहचान।  जबकि मन को बस एक वो डोर चाहिए थी जो इन सब प्रतीकों के परे सीधे तुमसे जुड़ सके। पता है क्या, बहुत सारे प्रतीक दरअसल अविश्वास से जन्मते हैं, फिर वो रिश्ता हो, समाज या कि देश। और ज़्यादातर बेईमानियां भी इन्हीं प्रतीकों की आड़ में होती हैं।

और हां, साथ में सात जन्मों के बंधन का वास्ता भी तो था हमें कसकर बांधने के लिए। (यूं सात जन्मों की बात मुझे अक्सर उलझा देती है क्योंकि इस बारे में हर कोई ऐसे बात करता है मानो ये पहला ही जन्म हो, दूसरा, तीसरा या सातवां भी तो हो सकता है ना।) सोचो तो, रिश्ते की सुंदरता क्या उसकी लंबाई से नापी जा सकती है? उफ्फ, संस्कार-परंपराएं, रीति-रिवाज़, लोक-लाज, उम्मीदें-अपेक्षाओं की इतनी दुहाइयां कि सब के सब कलेजे में एक साथ जम कर भय का रूप लेने लगे थे। इतना भय कि मन की सहज, सुंदर तरंगे एक-दूसरे तक पहुंच अनछुई ही लौट आएं।

और इन सबके बाद मुझे और तुम्हें एक साथ निर्माण में जुट जाना था, गृहस्थी की इमारत के। वो इमारत जिसकी एक-एक ईंट पीढ़ियों की आज़मायी हुई थी, ठोक बजा कर रखी, दूसरों के अनुभवों के जोड़ से जुड़ी। एकदम फेवीकोल का जोड़ जहां गलतियों के आ-जा सकने के लिए दरवाज़ा ना हो, कोई गवाक्ष तक नहीं। गलतियां क्या, वहां से तो छोटी-छोटी खुशियां, छोटे-छोटे सुख-दुख भी नहीं आ जा सकते। इमारत कितनी भी भव्य हो, रहती तो निर्जीव ही है ना। उसकी नींव चाहे कितनी भी गहरी हो, धरती के सीने से अपने लिए खुद पोषण नहीं ले सकती। वो सब तो एक पेड़ कर पाता है। जीवित, स्पंदन करता पेड़, जिसके ऊपर कोई छत नहीं होती, मौसम की मार से सारे पत्ते भी झड़ जाते हैं उसके, फिर उग आने के लिए।  

सोचो कैसा विरोधाभास है, फल देने के पहले पेड़ों को सालों पानी दिया जाता है, दोस्ती का रिश्ता धीरे-धीरे पुख्ता होता है, चलाने की कोशिश कराने से पहले बच्चे के पैरों के भी मज़बूत होने का इंतज़ार होता है। केवल दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिससे पहले दिन ही रिज़ल्ट की उम्मीद की जाती है। शादी ना हुई वन टाइम इन्वेस्टमेंट हो गया, मंत्र पढ़े, फेरे लिए और शुरू हो गई मिल-जुलकर कैदखाना तैयार करने की कवायद। या जैसे ऑनलाइन मंगाया गया कोई रेडीमेड फर्नीचर हो, सारे टुकड़े साथ जोड़े, ड्रिल किया, पेंच कसे और इस्तेमाल को तैयार। यूं ही नहीं उम्मीदों के बोझ तले ज़्यादातर रिश्तों को कोंपलें मुरझा जाया करती हैं।

शुक्र है इमारत बनाने का हुनर ना तुम कभी सीख पाए ना मैं। हमें जोड़े रखने के लिए अनुभवों के फेवीकोल का स्टॉक खाली करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी। देखो तो, कोई बंधन नहीं है सिवाए उनके जो हमने चुने अपने लिए। आलते, बिछुए जाने कौन से अतीत की बात हो गए, चूड़ी, बिंदी की ज़रूरत केवल ड्रेस कोड के हिसाब से होती है, शादी के गहने तरतीब से लॉकर में रख दिए गए, त्यौहारों में निकालने के लिए। सिंदूर भी याद नहीं रहता अक्सर। साथ रहने के नियम हमारे, उनमें की गलतियां हमारी, उनसे सीखे सबक भी हमारे। पतझड़ आकर भी गए तो कोमल नए पत्तों के उग आने की उम्मीद में। बाप रे, कितनी बातें अब याद भी तो नहीं रहतीं, बस तुम्हारी छाती के सफेद हो रहे बालों को गिनती हूं तो तसल्ली होती है, साथ चलते-चलते एक अरसा हो गया।

वैसे सुनो, क्या तुम्हें उस पंडित का नाम और शक्ल याद है जिसने शादी के मंत्र पढ़े थे?
मुझे भी नहीं। 

Saturday, June 18, 2016

फिर पापा, मां बन जाते हैं


गलत कहता है विज्ञान। समय कभी एक गति से नहीं चलता। अगर चलता तो छोटा सा बचपन ज़िंदगी का सबसे लंबा हिस्सा कैसे लगता? सबसे ज्यादा कहानियां बचपन की, सबसे ज़्यादा यादें बचपन से। बचपन की बस एक ही चीज़ छोटी होती है, स्कूल की छुट्टियां। खासकर तब, जब छुट्टियों के उस पार बोर्डिंग वाला स्कूल इंतज़ार कर रहा हो।

बोर्डिंग से हमसे ज़्यादा चिढ़ मां को थी। हम बोर्डिंग में होते तो मां रात-रात को उठकर रोतीं, पापा से लड़तीं, अच्छी पढ़ाई के लिए बेटियों को हॉस्टल भेजने पर मां ने पापा को कभी माफ नहीं किया। हर छुट्टी के बीतते-बीतते मां, पापा से छुपकर, हज़ार-हज़ार प्रलोभन देती, एक बार बोल दो नहीं जाना है, मत जाओ, यहीं के स्कूल में पढ़ना। छोटा है तो क्या हुआ, पढ़ाई तो तुम्हारी मेहनत पर निर्भर करेगी। दिल डोल जाता, फिर हमारी ज़रूरत की चीज़ें जुटाने में स्कूटर से शहर के कई-कई चक्कर लगाते पापा का चेहरा याद आता और हम मन मार लेते। मां घर में तैयारियां करतीं और रोती रहतीं। पापा रोते नहीं, आखें नम होती हों शायद, लेकिन मां के आसुंओं की बाढ़ में उनकी नम आखों की याद हमेशा धुंधला जाती।

Saturday, June 11, 2016

स्त्री विमर्श की आड़ में...




ऐसा क्यों लगता है आपको कि अपनी देह और मन की आज़ादी की बात खुलकर बस वैसी औरतें ही कर सकती हैं जो किसी टूटे रिश्ते या रिश्तों के कछार पर खड़ी हों? ये भी तो हो सकता है कि दैहिक और वैचारिक स्वतंत्रता की पैरोकार वो स्त्री एक ऐसे समृद्ध रिश्ते की ज़मीन पर पूरे आत्मविश्वास से पैर जमाए खड़ी है जहां से, देह तुम्हारी, संस्कार तुम्हारे, मर्जी और अधिकार हमारे जैसे बेतुके कंकड़ों को बहुत पहले चुन लिया गया हो। इसलिए उनके आज़ाद ख्यालों की आड़ में उनसे फ्लर्ट करने के मौके ढूंढने का कोई फायदा नहीं। ये मान लेने में इतनी ज़ोर से क्यों हिलता है असहमति से भरा आपका सिर? पुरुषत्व के अहम् के बोझ से?

तीन समय चूल्हा जला पूरे परिवार की पसंद का खाना पकाने वाली औरत भी अपने स्वतंत्र स्पेस की प्रतिरक्षा के लिए कटिबद्ध हो सकती हैं जहां अपनी जिम्मेदारियां पूरी होते ही वो खुले मन से वापस पहुंच जाती हैं। उसकी ज़िंदगी का एक हिस्सा अपना होता है जहां अनधिकृत प्रवेश वर्जित का बोर्ड हर किसी के लिए लगा होता है, इसका ये मतलब नहीं कि अपनी ज़िंदगी के बाकी हिस्से दूसरों को खुश रखने में बिताने से गुरेज़ है उनको।  

Saturday, June 4, 2016

महाभारत जारी है....


फिर कौरवों ने पांडवों से कहा, ये बताने की ज़रूरत नहीं कि तुम्हारा ऐश्वर्य देखकर हमारे कलेजे पर सांप लोट रहे हैं, हमने लाख तुम्हें अपने से कमतर रखना चाहा लेकिन अपनी शिक्षा, कर्मठता और शौर्य के बल पर तुमने हमें पीछे छोड़ दिया। हम चाहें भी तो निष्ठा, लगन, वीरता और कर्तव्यपरायणता में तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते और हम चाहें भी तो तुम्हारे लिए हो रहे इस जय घोष को सुनने के बाद चैन की नींद नहीं सो सकते। इसलिए हमने विजय के मापदंड ही बदल दिए। हम चाहते हैं कि तुम अब द्यूत क्रीड़ा में हमें परास्त करो तब हम तुम्हें विजयी समझेंगे। पांडव जानते थे कि ये छल है, इस एक निर्णय से उनका अभी तक का सारा श्रम और पराक्रम व्यर्थ हो सकता है। फिर भी उन्हें अपने प्रभुत्व का प्रमाण देना था और इसके लिए हर चुनौती स्वीकार की जानी थी। इसलिए उन्होंने द्यूत का आमंत्रण स्वीकार किया और उसके बाद हज़ारों सालों तक दोहरायी जाने वाली कहानी का जन्म हुआ।
इतिहास में प्रासंगिकता की ये बिसात बार-बार बिछाई जाती है। इस बार इसके आर-पार दो इंसानी नस्लें हैं।  सदियों से अपने प्रभुत्व के मद में झूमते पुरुष और उसके रचे समाज में अपना होना तलाशती स्त्रियां।

Saturday, May 28, 2016

नानी की चिड़ैया



बचपन था, गर्मी की छुट्टियां थीं और उन छुट्टियों के कुछ दिन नानी के घर के लिए मुकर्रर थे। नानी का घर दरअसल एक तिलिस्म था जहां पहुंचते ही सब खो जाते, मांएं अपनी दुनिया में और हम बच्चे अलग अपनी दुनिया में। मां के लिए यहां बस उनकी मां थोड़े ही थीं, आलमारी के कोने में पुराने कपड़ों की तहों में सिमटा उनका बचपन भी था जो उंगलियों के पोरों के छूने भर से वापस हरकत में आ जाता था, कमरों के कोने में वो कहानियां थीं जो ज़रा सी सरगोशी से हुमक पड़तीं और जिन्हें अभी भी याद कर मां और मौसियां घंटों हंसती जा सकती थीं। रसोई में अभी तक कच्ची उम्र में की गई नाकाम कोशिशों की महक तक मौजूद थी। हमारे लिए भी तो वहां रोज़ के बोरिंग काम नहीं थे, बोरिंग सुबह और शाम भी नहीं थे।  

Saturday, May 21, 2016

बेटे सबकुछ तो नहीं कहते...




पहाड़ों में बच्चों के स्कूल की लर्निंग ट्रिप। जाना भी अनिवार्य। पहली बार बिना मां-बाप के, घर से चार दिन के लिए दूर रहना होगा। तुर्रा ये कि इन चार दिनों के दौरान उनसे फोन पर बात भी नहीं कर सकते, बस स्कूल के मैसेज और वेबसाइट पर उनके अपडेट का इंतज़ार करना होगा। जिस दिन से स्कूल का नोटिस आया और वापसी में सहमति की चिट्ठी के साथ चेक भेजा गया, मां की चिंताओं और बच्चों के उत्साह में जैसे चरम पर पहुंचने की होड़ लगी रही।
मां को खुश रखने के लिए बिटिया आश्वासन की प्रतिमूर्ति बनी हुई है।
मैं अच्छे से रहूंगी ममा, टीम के साथ ही रहूंगी, भाई का भी पूरा ख्याल रखूंगी, वो चिढ़ाएगा तो भी नहीं लड़ूंगी उससे।
लेकिन जिस ओर से आशंका ज़्यादा है वहां से आश्वासन का एक शब्द नहीं। बेटा एक ही सवाल के जवाब बदल-बदल कर देता है,
प्रॉमिस करो संभल कर रहोगे, बहन का ख्याल रखोगे।
बिल्कुल नहीं, मैं तो उसे खूब परेशान करूंगा।
ख्याल? मैं तो मैम से कहकर दूसरे ग्रुप में चला जाऊंगा।