Saturday, June 11, 2016

स्त्री विमर्श की आड़ में...




ऐसा क्यों लगता है आपको कि अपनी देह और मन की आज़ादी की बात खुलकर बस वैसी औरतें ही कर सकती हैं जो किसी टूटे रिश्ते या रिश्तों के कछार पर खड़ी हों? ये भी तो हो सकता है कि दैहिक और वैचारिक स्वतंत्रता की पैरोकार वो स्त्री एक ऐसे समृद्ध रिश्ते की ज़मीन पर पूरे आत्मविश्वास से पैर जमाए खड़ी है जहां से, देह तुम्हारी, संस्कार तुम्हारे, मर्जी और अधिकार हमारे जैसे बेतुके कंकड़ों को बहुत पहले चुन लिया गया हो। इसलिए उनके आज़ाद ख्यालों की आड़ में उनसे फ्लर्ट करने के मौके ढूंढने का कोई फायदा नहीं। ये मान लेने में इतनी ज़ोर से क्यों हिलता है असहमति से भरा आपका सिर? पुरुषत्व के अहम् के बोझ से?

तीन समय चूल्हा जला पूरे परिवार की पसंद का खाना पकाने वाली औरत भी अपने स्वतंत्र स्पेस की प्रतिरक्षा के लिए कटिबद्ध हो सकती हैं जहां अपनी जिम्मेदारियां पूरी होते ही वो खुले मन से वापस पहुंच जाती हैं। उसकी ज़िंदगी का एक हिस्सा अपना होता है जहां अनधिकृत प्रवेश वर्जित का बोर्ड हर किसी के लिए लगा होता है, इसका ये मतलब नहीं कि अपनी ज़िंदगी के बाकी हिस्से दूसरों को खुश रखने में बिताने से गुरेज़ है उनको।  


बंधन औरतों को रोकते नहीं, उन्हें और मज़बूत बनाते हैं, बशर्ते वो अपनी स्वेच्छा से बंधी हो उसमें। ग़लत सोचते हैं आप कि औरतें आपकी सहमति लेकर आज़ाद होना चाहती हैं, वो तो बस इतना चाहती हैं कि बंधे रहने का फैसला भी उनका अपना हो। दफ्तर के लिए निकलते समय जब लड़खड़ाते कदमों के चलता उनका बच्चा उंगलियां पकड़ पैरों के लिपट जाता है तो एक मिनट में दफ्तर के कपड़ों के साथ सपने और महत्वाकांक्षाओं को तहाकर आलमारी में रख आती हैं। खराब वो बंदिश नहीं लगती उन्हें, खराब लगता है उस फैसले के बाद अपने ऊपर नॉट मोटिवेटेड इनफ का लेबल लगाया जाना।

बड़े संकुचित हैं आप अगर आपको ये लगता है कि एक पुरुष से प्यार और शादी कर उसके साथ पूरा जीवन खुशी से बिताने वाली औरतें दरअसल उम्रकैद की सज़ा काट रही हैं, कि उन्हें पता नहीं कि आज़ादी हो क्या है। शादी में टूटन कोई ऐवरेस्ट पर चढ़ने वाला एडवेंचर थोड़े ही है जिसे जीवन में एक बार हासिल करना खुद को स्वतंत्र कहलाने की अनिवार्य शर्त हो हर स्त्री के लिए।   
ना, नौकरी करना, ड्राईव करना, शॉपिंग करना, डिज़ायनर कपड़े पहनना किसी औरत के स्वतंत्र होने की गारंटी नहीं ले सकता वैसे ही जैसे चाहरदीवारी के भीतर रहने वाली हर औरत कमज़ोर नहीं होती। विश्वास नहीं होता तो अपनी दहलीज़ के अंदर झांकिए, चट्टान से मज़बूत औरतों के किस्से आपके अपने घर में अभी भी सांस ले रहे होंगे। और हां वो सब की सब वर्किंग ही रही होंगी। ये ज़रूर हो सकता है कि उन सभी ने अपने काम के बदले पैसे ना कमाए हों और इसी की आड़ में छल से उनके फैसले लेने का अधिकार जो आपने अपने पास रख लिया था ना उसपर शर्म करने का वक्त भी अभी है।

औरतें कोई मोनोक्रोम पेटिंग्स भी नहीं जो या पतिव्रत और परिवार के नाम पर बिछने वाले डोरमैट के शेड में रची गई हों रहें या अपनी सभी जवाबदेहियों से पीछा छुड़ा स्वार्थ की कालिमा से उकेरी गई हो। बहुत शेड्स हैं उनमें। बशर्ते आपको रतौंधी ना हो। आखें खोलकर देखिए एक बार, नज़र आएंगी, शर्माती, खिलखिलाती, खुलकर प्यार लुटाती, हक से प्यार मांगती, आत्मविश्वास से लबरेज़, आत्मसंदेह से कांपतीं, उदार, स्वार्थी, सहारे के लिए कंधे ढूंढतीं, सकून के लिए अपने कंधे देती औरतें। 


स्त्री विमर्श की आड़ में अपने विचार ना थोपें हमपर। हमारी बात करना चाहते हैं, हमें जानना चाहते हैं तो सबसे पहले ये जज वाला चोगा उतार फेंकिए। फिर स्वतंत्र इकाई के तौर पर देखिए हमें। एक सांचे से एक ही निकली है। अलग हैं सब, असाधारण हैं सब, अपनी खूबियों और खामियों के साथ, अपनी मज़बूती और कमज़ोरियों के साथ। औरतें हैं हम, देश की करेंसी नहीं जो एक टक्साल से निकलीं, एक ही घातु से बनीं, एक सी दिखने और एक सा सोचने वाली हों।

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