दरभंगा में बचपन की यादों में सुबह-सुबह
सर पर टोकरी लिए मछली बेचने के लिए निकली मछुआरिनों की आवाज़ भी शुमार है। किसी रोज़
बरामदे पर बैठे दादाजी मम्मी को आवाज़ लगाकर पूछते कि खाने की तैयारी शुरु नहीं
हुई हो तो मछली ले लें और अंदर से हां होते ही घर का माहौल बदल जाया करता। मछली की
सफाई, पीसे जा रहे मसालों की महक और लंच शुरु होने के पहले ही तली हुई मछलियों से
पेट भर लेना, स्मृतियों में ये सबकुछ अभी भी ताज़ा है। थोड़ी बड़ी होने पर हॉस्टल
में मछली के नाम पर बने सर्वनाश डिश ने मन ऐसा फेरा कि शाकाहारी होने का मन बना
लिया। दादाजी ने सुना तो परेशान हो गए, “मैथिल ब्राह्मण की लड़की मछली खाना कैसे छोड़
सकती है।“ ब्राह्मणों
को शाकाहारी होना चाहिए वाला तर्क तब तक पल्ले नहीं पड़ा था जबतक एक दक्षिण भारतीय
टीचर ने मुझे नज़रें टेढ़ी कर तंज़ कसते हुए ‘मांस भक्षी नकली ब्राह्मण’ कहकर नहीे बुलाया था।
बचपन से मटन से भी कुछ ऐसा ही साम-दाम वाला
रिश्ता बनाया गया था। जो जितना बड़ा आदमी होगा वो किसी आयोजन उतने ही छागर (बकरा)
चढ़ाने का प्रण लेगा। दुर्गापूजा की अष्टमी पर जिन घरों में खसी की बलि दी जाती
उसे वो लोग भी खाते जिन्होंने वैष्णव होने का संकल्प लिया है क्योंकि वो मटन नहीं
प्रसाद होता है।
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक, देवघर के
वैद्यनाथधाम मंदिर में शिव मंदिर के गर्भ गृह के सामने पार्वती मंदिर का प्रवेश
द्वार है। महादेव स्वयं तो वैष्णव हैं लेकिन देवी दुर्गा को अष्टमी में अपना
प्रसाद चाहिए। सो अष्टमी, नवमी वाले दिन मंदिर के प्रांगण में खून का धाराएं वैसी
ही बहती नज़र आती हैं जैसी ढाका की सड़क ओरिजिनल (या फोटोशॉप) वाले वर्जन में थी। बस
भोले बाबा के इन सबसे दूर रखने के लिए उनके मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं।
मंदिर के पंडों के घरों में शुद्ध घी में भुने मटन को बड़े स्वाद से खाया जाता है।
पंडो से बलि बंद कराने की चर्चा भर कर दीजिए, वो आपको ऐसी-ऐसी कहानियों की बाढ़
में डुबो देंगे जिसमें मां दुर्गा ने ऐसी कुफ्र की बात करने वाले के सपने में
दर्शन दिए और बलि की मांग की।
वैसे बलि प्रदान के उस दृश्य को देखने के बाद कई
लोगों ने ज़िंदगी भर मटन को हाथ लगाने को हिम्मत नहीं की। कुछ समय बाद मैंने भी
छोड़ दिया। शादी के बाद पता चला कि पतिदेव ने बचपन में अपने परिवार के किसी आयोजन
में बलि के दृश्य देखने के बाद मटन को खाना छोड़ रखा था। रेड मीट के
नुक्सान-वुक्सान की बातें हमने इंटरनेट युग आने के बाद पढ़ी सो बच्चों को भी इसके
अन्नप्राशन से दूर ही रखा। मैथिल घरों में अंडा, मुर्गे वगैरा का प्रवेश सालों तक
ज़रूर वर्जित रहा लेकिन अब इन दोनों के बिना हमारा गुज़ारा नहीं हो पाता। खान-पान
की आदतों में इस परिवर्तन ने हमें पूरी तरह विजातीय कर दिया है शायद।
किसी स्थान विशेष में खाने-पीने की आदतें या
स्टेपल डाइट को बनाने में सदियों लगते हैं। मानव सभ्यता की उम्र की तुलना में
प्रोसेस्ड फूड का बाज़ार बस अभी-अभी पैदा हुआ है, इसके पहले वही खाया जाता था जो
उस इलाके में उपलब्ध हो। सर्द प्रदेशों में बौद्ध भिक्षुओं को भी मांस खाने की
अनुमति है। इंसान शायद अकेला ऐसा जानवर है जो अपने खान-पान के बारे में विवेक से
फैसला ले सकता है, शाकाहार या मांसाहार में से अपनी रुचि के अनुसार कुछ चुन सकता
है। हर मौसम में हर तरह के खाने की सुविधा ने ऐसे फैसलों को सुलभ भी बना दिया है। वैसे
ये बात भी बस आबादी एक एक खुशनसीब हिस्से पर ही लागू होती है, ज़्यादातर को दो जून
खाना मिल जाए वही बहुत है।
धर्म हर रोज़ ग्लैमरस हुआ जा रहा है। सामान्य से
कथन को भी लोग जिस तरह धर्म का जामा पहना देते हैं, देखकर हैरत होती है इतनी ऊर्जा
हम किसी कन्सट्रक्टिव काम में खर्च कर सकते तो दुनिया की किसी सरकार की हिम्मत नहीं
होती हमें इस्तेमाल करने की। खाना-पीना धर्म से ज्यादा भूगोल से जुड़ा है, ये बाद हर किसी की समझ में ना आए ये धर्म का कारोबार करने वालों की रोज़ी के चलते रहने के लिए ज़रूरी है शायद।
भूगोल से याद आया, अमेरिका में एक बार मैकडॉनल्ड्स
में वेज बर्गर की मांग करने की हिमाकत कर दी थी। नतीजा भी याद है जब वेंडर ने लगभग
घूरते हुए बीच का चिकन पैटी निकाल कर बाकी बचा सामान रैप करके हाथ में पकड़ा दिया
था, बिल्कुल उसी कीमत पर।
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