Sunday, September 4, 2016

अपनी-अपनी आज़ादी


अपनी बिल्डिंग में सिक्योरिटी गार्ड की वर्दी पहने औरतें नज़र आ रही हैं आजकल। जितनी बार गेट से अंदर-बाहर जाओ सैन्य तत्परता से खड़ी होकर विश करती हैं। शॉपिंग मॉल और दफ्तर की बिल्डिंगों में तो कई साल से तैनात हैं, हमारे पर्स टटोलतीं, स्कैनर लेकर जांच करतीं।

ओहदा चाहे कोई भी हो वर्दी पहनकर शान तो आ ही जाती है। चेहरे पर नई शादी की ताज़गी, सुंदर चूड़ियां, मांग भर सिंदूर, गले में आर्टिफिशियल मंगलसूत्र और माथे पर लाल बिंदी, तिस पर वर्दी की नीली पतलून में टक्ड इन आसमानी शर्ट और काली बेल्ट। फैशन के तमाम प्रचलित मापदंडों को चुटकियों में उड़ातीं।

वैसे ये विरोधाभास इनकी वेश-भूषा में ही नहीं, इनके स्वाभाव में ही होता है। रूखी बस दिखती हैं ये, ज़रा से अपनेपन की पोर से दबाओ तो पता चले बस उपर की परत बर्फ है, अंदर एकदम तरल, फूटकर बह आने को आतुर।

कितने सुंदर झुमके हैं तुम्हारे, मैंने उसे खुश करने के लिए कहा था। उसका शरीर दोपहर बाद के उनींदेपन में झूल रहा था और वो बेमन से मेरे पर्स को टटोलने का उपक्रम कर रही थी। तारीफ सुनते ही एकदम से उसकी उंगलियों में चपलता आ गई थी।
तीन साल पुराने हैं मैडम ये तो, अपनी पहली सैलरी से ली थी, इसी मॉल से,” उसका चेहरा गर्वोक्ति से दमकने लगा था।
हमें भी शुरु में बहुत अच्छा लगता था, सास की बड़-बड़ नहीं, गरम खाना खिलाने का झमेला नहीं। शादी के 9 साल बाद नौकरी के नाम पर घर से निकलने का आज़ादी मिली थी। आठ हज़ार की पगार सुनते ही सास की सब बीमारी दूर हो गई। तुरंत घर का आधा काम संभाल लिया। लेकिन अब हम ही थक जाते हैं घर बाहर काम करते-करते। रोज़ गिनते हैं, कब महीना पूरा हो और पैसा हाथ पर आए, दो मिनट में उसने सब बता डाला।

इतनी गर्मी में कैसे खड़ी रह पाती हो बाहर, हम तो गाड़ी से यहां आते-आते परेशान हो गए, मई की आग उगलती दुपहरी में गुड़गांव के एक बड़े शॉपिंग हब के बाहर खड़ी उस गार्ड की झल्लाहट कम करने मैंने कहा था।  
हमारे घर में कौन सा एसी-कूलर लगा है मैम जो आराम से सो लेते। यहां कम से कम ड्यूटी तो कर रहे हैं, उसकी नौकरी और उत्साह दोनों नया था।  

सोचो तो पहले घर में उत्ता सा ही काम करने में दिन बीत जाता था, हर किसी को गरम खाना चाहिए, जिसको देखो घर फैला रहा है, पानी भी ज़रूरत से ज्यादा खर्च कर रहा है, फिर बाल्टी भरकर लाओ। अब सब वही ठंढा खाना खा लेते हैं, उत्ते पानी में ही काम चला लेते हैं। और हमको अपने पैसे की आज़ादी भी है।

एक और मिली थी, धनतेरस की ठेलमठेल शॉपिंग वाले दिन। हर पर्स को बस छूकर चेकिंग की रस्म पूरी करती।
अरे ठीक से चेक तो करो, क्या पता कोई हथियार ही निकल आए मेरे पास, उसे टोकते हुए हंसी भी आई।
तो क्या करें दीदी, अपनी ग्लानि छुपाने के लिए उसने एकदम से अवरोह पर आकर आत्मीयता का सहारा लिया, सुबह से बाथरूम जाने की छुट्टी नहीं मिली। त्यौहार तो हमारा भी है, हमें तो दिवाली के दिन भी छुट्टी नहीं देंगे, उसका गला रूंध गया।
फिर क्यों कर ली ये नौकरी?”
आदमी ने बोला कर लो, इज़्जत का काम है, आजकल तो सब करते हैं। हम तो ऊंची जात वाले हैं ना, राजपूत समझते हो ना आप, ठाकुर? दूसरे घर का काम नहीं कर सकते। ये तो हमारे घेरे में भर्ती वाले आए तो दो को छोड़ सबने नौकरी पकड़ ली।
दो ने क्यों नहीं?”
एक तो एकदम अनपढ़ थी और दूसरी का बच्चा गोद में था। वैसे अब सबसे ज़्यादा कमाई उन्हीं दोनों की होती है
वो कैसे?’
घेर की सब औरतों के बच्चों का ध्यान रखती हैं ना दोनों, सबसे पांच-पांच सौ रुपए महीना लेती हैं, और समय की भी आज़ादी है उनको।

पिछले हफ्ते शाम को घर पहुंचने में देर हुई, वो बेसब्र सी दरवाज़े पर ही इंतज़ार करती मिली।
चाय पिला दो पहले, तुम भी पी लो, फिर अपना काम करना। आज बहुत थक गई।
इतने में ही थक गई दीदी, मुझे तो इसके बाद एक घर और जाना है।
आदत नहीं रही ना भाई, इतने सालों बाद फुल टाइम नौकरी जो शुरू की है।
हां, अच्छा, वैसे नौकरी छूट क्यों गई थी आपकी?”
छूटेगी क्यों, छोड़ी थी ना, बच्चे छोटे थे।
हां, अब बड़े हो रहे हैं, फिर पैसों की ज़रूरत होगी ना।
अरे नहीं बाबा, मैं आजिज आ गई, बात पैसों की नहीं, बच्चे बड़े हो रहे हैं, घर में रहकर क्या करूं।
कितना अच्छा है ना दीदी, उसने ठंढी सांस ली, जब मन किया काम करो, जब मन किया छोड़ दो, सब अपनी मर्ज़ी का। हमें तो सौरी से निकलकर भी काम पर निकलना पड़ता था, कोई आज़ादी
नहीं, ना काम पकड़ने की, ना छोड़ने की।


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