Sunday, September 22, 2019

पितृसत्ता की छाँव में 'डॉटर्स डे' की बेल




देश आज डॉटर्स डे मना रहा है.  और जो अनिश्चितता समाज में बेटियों के अधिकारों को लेकर है कुछ वैसा ही हाल इस प्रतीकात्मक दिन का भी है. दुनिया भर में वर्ल्ड डॉटर्स डे जनवरी की बारह तारीख को मनाया जाता है. भारत में इस दिन के लिए सितम्बर का चौथा इतवार निश्चित किया गया है. लेकिन ढूंढो तो कहीं-कहीं 25 सितम्बर की तारीख भी दिख जाएगी. यूं दो बरस पहले महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने अगस्त के महीने में डॉटर्स वीक मनाने का एलान भी किया था. लेकिन बाद के सालों में इसके बारे में फिर कभी नहीं सुना गया. वैसे तो हमारा सेल्फी विद डॉटर जैसा अभियान भी इतने ज़ोर-शोर से चला कि गूगल प्ले पर एप्प की शक्ल में ही जाकर रुका. बहरहाल, दिन भले ही प्रतीकात्मक  हो, उसे मनाने से परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि बड़ा बदलाव छोटी शुरुआतों से ही आता है, फिर भी जब बात डॉटर्स डे की चलती है तो मन में थोड़ी कड़वाहट तो आ ही जाती है.
दरअसल बेटियों को आगे बढ़ाने, उनकी हौसलाअफज़ाई के जितने भी तरीके, जितने भी जुमले हमने गढ़े हैं उन सबका आधार ही पितृसत्ता है. कुछ इस तरह कि आने वाले वक्त में भी उनसे छुटकारे का कोई रास्ता नज़र नहीं आता. उदार दिखने की चाह में हम केवल बेटियों पर गुमान करना चाहते हैं, उनके बेटी होने पर नहीं. इन बातों में बारीक नहीं, बहुत बड़ा फर्क है जिसे कुछ उदाहरणों के साथ समझ पाना शायद आसान होगा.
हमारी बेटी सौ बेटों के बराबर है- अपनी बेटियों की तारीफ में कहा जाने वाला ये सबसे लोकप्रिय जुमला है और उतना ही सतही और हतोत्साहित करने वाला भी. समझ में नहीं आता कि ऐसा कहने वाला इंसान बेटी की तारीफ कर रहा है या फिर खुद को सांत्वना दे रहा है. जितनी बार हम बेटियों के बेटे के बराबर होने का दंभ भरते हैं उतनी बार हम उन्हें उनके कमतर होने का एहसास भी कराते जाते हैं. मानो हम उनसे ये कहना चाहते हों कि सपने तो हमने बेटे के लिए संजोए थे लेकिन अब मजबूरी में तुम्हें उसका उत्तराधिकार सौंप रहे हैं. सफलता और समृद्धि का जो परचम लोगों के लिए उनके बेटे फहराते हैं समानता मिलने के बाद अब वो ज़िम्मेदारी भी तुम्हें ही उठानी होगी. अच्छा होना क्या बेटों की बराबरीकर लेना भर ही होता हैऔर बराबरी कोई एक लकीर पर चलते रहने से ही हो जाती हैइस तरह की बातें बोल-बोलकर तो हम बेटों और बेटियों को लेकर घिसे-पिटे मानकों से पीछा छुड़ाने के बजाए उन्हें और पुख्ता किए जा रहे हैं.
हमने अपनी बेटी को बेटों की तरह पाला है- अगर आप वाकई ऐसा कर रहे हैं तो याद रखिएगा कि आप अपनी बेटियों के साथ ही नहीं समाज के साथ भी बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. इस के पीछे कहने वालों का मन्तव्य शायद ये होता हो कि वो अपनी बेटियों को घर की जिम्मेदारी से दूर रख पढ़ाई-लिखाई के बेहतर मौके दे रहे हैं और उनकी अच्छी परवरिश कर रहे हैं. लेकिन ये कर्तव्य तो इंसान का अपनी हर संतान के प्रति होता है. बेटियों को बेटा बनाने में किसी तरह की वाहवाही नहीं. ये तो दरअसल उनकी परवरिश में कमी करना है. लड़कियों की शारीरिक और मानसिक संरचना लड़कों से अलग होती है. उन्हें पालने में ज़्यादा संवेदनशील होने की ज़रूरत है वैसे ही जैसे लड़कों को पालने में ज़्यादा सतर्कता और लचीलेपन की. स्वस्थ समाज को पढ़ी लिखी, आत्मविश्वास से लबरेज़ लड़कियों की उतनी ही ज़रूरत है जितनी सुलझे और उदार लड़कों की. इसलिए बेटी को बेटी की तरह पाले जाने की ज़रूरत है.
अब लड़कियां भी किसी मामले में लड़कों से कम नही- आए दिन ऐसा सुनते रहना बिल्कुल वैसा आभास देता है जैसे ये समाज घोड़े की तरह आंखों में पट्टा बांध कर चलता जा रहा है. अब ऐसी सेलेक्टिव आंखें रहने से अच्छा होता कि समाज की आंखें ही नहीं होतीं. लड़कियां किसी भी समय, किसी भी समाज में कभी भी लड़कों से कम नहीं थी. अंतर उनकी दक्षता में नहीं उनको मिले अधिकारों और मौकों में था. दरअसल बराबरी के नाम पर लड़कियों के अधिकार उन्हें कुछ इस तरह से वर्गीकृत करके दिए जाते रहे हैं कि उनके मिलने और मांगने की बीच हमेशा एक किस्म की खींचतान मची रहती है. उन्हें पता ही नहीं रहता कि ये उनका सहज हक है या समाज उनपर तरस खा रहा है. वैसे भी लड़कियों को बेहतर बनाने का मकसद लड़कों को कमतर दिखाना नहीं होता. ये बड़ी रेखा, छोटी रेखा वाली लड़ाई नहीं है. इसलिए इस किस्म की तुलना दरअसल मानसिक झोल होती है. इससे जितनी जल्दी छुटकारा पा लिया जाए उतना बेहतर.
बेटी को जन्म देना एक गर्भ को जन्म देना है- जहां तक याद है ये तर्क एक जानी-मानी फेमिनिस्ट का दिया हुआ है जिसपर लोगों ने आंखों में आसूं भर तालियां भी बजाई थीं. मतलब इतने सारे नाटक-तमाशे के बाद हम घूम-फिरकर वहीं आ पहुंचे जहां से शुरुआत की थी. अगर औरत के होने को एक योनि और गर्भ तक ही समेटना था तो फिर हो हल्ला क्यों मचाया? बेटी को जन्म देने में अगर लज्जा नहीं होनी चाहिए तो अतिरिक्त गर्व भी नहीं. लड़के या लड़की का जन्म विज्ञान की नज़रों में जैविक प्रोबाबिलिटी का मसला है, ना उससे कुछ कम ना कुछ ज़्यादा. गर्व होना ही है तो बच्चों की परवरिश के तरीके पर हो. इंसान का चरित्र उसके लड़का या लड़की होने से नहीं, परवरिश से तरीके तय होता है. समाज को देखने के उस नज़रिए से तय होता है जो उनका परिवार उनके लिए बनाता, सहेजता है.
डॉटर्स डे मनाने के साथ हमें इस दिन का इस्तेमाल इन बेतुके शब्दों और तर्कों को अपनी डिक्शनरी से डिलीट करने के लिए भी करना चाहिए. बेटियां उस दिन बराबर हो जाएंगी जिसदिन हम बेखटके कह सकेंगे कि हमने अपनी बेटी को बेटी की तरह पाला है और हमें उसके बेटी होने पर गर्व है.






Friday, May 10, 2019

मदर्स डे है भई...गिफ्ट का कुछ सोचा?




और इस लिंक पर अगर आप ये सोचकर आए हैं कि यहां आपको कुछ ऐसे सुझाव या सामान मिलेंगे जो समय रहते आपको मदर्स डे पर मां को ख़ुश करने के इंस्टैंट तरीके बता दें तो हो सकता है आपको थोड़ी निराशा हाथ लगे. वो क्या है ना कि सालों के धैर्य से हमें सींचकर बड़ा करने वाली मां के लिए कुछ भी इंस्टैंट करना ज़्यादती होती है. और वैसे भी तोहफ़े खरीदना कौन सी बड़ी बात है. चारों ओर मॉल, दुकान, बाज़ार सजे हुए हैं, डिस्काउंट के ऑफरों की भी कमी नहीं. सोशल मीडिया हो या कोई वेबसाइट, हर मिनट मां के लिए किसी गिफ्ट का पॉप अप सामने खुल ही जाता है, एक क्लिक, ऑनलाइन पेमेंट और मां की आंखों में ख़ुशी और कृतज्ञता के आंसू, हो गई छुट्टी अगले साल तक के लिए.
ऐसा ही तो सिखाया है हमें विज्ञापनों के बाज़ार ने बिल्कुल उन निबंधों के तर्ज़ पर जो हमें बचपन में दस-बारह पक्तियों में रटा दिए गए. त्याग की प्रतीक, ममता की मूर्ति मां. हमारे जगने से पहले जगने वाली, हमारी हर ज़रूरत का ख्याल रखने वाली, हमारे लिए रच-रचकर खाना बनाने वाली मां. मानों मांएं ना हुई उपरवाले की मशीन से निकली ज़ेरॉक्स कॉपी हो गई, सब की सब एक समान. क्या सचमुच ऐसी होती है मां? क्या सचमुच इतनी ही होती है मां? मेरी और आपकी मां? नहीं ना. अपनी मां की नज़र में तो हम दुनिया के सबसे अद्वितीय, सबसे अनूठे बच्चे होते हैं.फिर हम अपनी मां को विज्ञापनों की स्टीरियोटाइपिंग की नज़र से क्यों देखते जा रहे हैं? विज्ञापन फिल्मों की सीमित संभावनाओं में सिमटी नहीं होती मां, जो या तो अपने बच्चे की सेहत और रिज़ल्ट की चिंता में घुलती नज़र आए या उम्रदराज़ हुई तो इस उम्मीद में दवाइयॉं लेती रहे कि घुटनों का दर्द कुछ कम हो तो अपने बच्चों के बच्चों के साथ खेल सकें.
कभी सोचा है आपने कि क्यों और कैसे आपका होना आपकी मां की ज़िंदगी की सबसे बडी उपलब्धि बन गई? क्या बचपन से लेकर यौवन और अपनी शादी तक के साल मां ने इस इंतज़ार में काटे होंगे कि एक दिन उन्हें मां बनना है? नहीं ना. फिर वो कौन सा सपना था जो पलता रहा मां की आंखों में इतने साल? वो कौन सी ख़्वाहिश थी जिसे मां ने चुपचाप छुपा दिया ज़िम्मेदारियों और अपेक्षाओं के ढेर के पीछे? अगर परिवार की ज़िम्मेदारी नहीं आई होती तो कहां पहुंची होती मां?
याद कीजिए, मां की आलमारी आख़िरी बार कब टटोली थी आपने? एक बार फिर कोशिश कीजिए. आपके पुराने सामानों, आपके बचपन की यादों और आपके लाए उपहारों के पीछे छुपी होगी कहीं मां के सपनों, उनकी महत्वाकांक्षाओं की पोटली भी. एक बार टटोल कर देखिए. हो सकता है कुछ सपने अभी भी ज़िंदा हों. हो सकता है कुछ उम्मीदों के लिए अभी भी देर नहीं हुई हो और आपके एक ज़रा सा हाथ लगा देने से वो अभी भी हरकत में आ जाएं. मदर्स डे के ग्रीटिंग कार्ड के साथ मां को एक सपना भी गिफ्ट कीजिए. उनका देखा एक सपना, जो वक़्त की मारामारी के बीच हाथों से जाने कब फिसल गया. वो चाहे अधूरी पढ़ाई हो या छूट गई नौकरी. हो सकता है वो बात इतनी मामूली सी हो जिसका ज़िक्र करने में भी मां को झिझक हो. लेकिन पूरा होना तो हर सपने का हक़ होता है. फिर यहां तो बात मां की हो रही है.
तो बस सपने देना काफी नही होंगा, क्योंकि ज़्यादा उम्मीद है उसे पूरा कर पाने का हौसला मां समय के साथ खो बैठी हों. इसके पहले कि वो हमेशा के लिए एक कसक बन जाए उनके जीवन की, उन्हें वो हौसला भी देना होगा कि वो अब भी उसे हासिल कर सकती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे हमारे बार-बार गिरने पर उठा देती थी मां हमें और हमारी आंखों में आंखे डालकर कहती थी तुम कर सकते हो, तुम्हें करना ही होगा, चाहे जितनी चोट लगे, चाहे जितना वक़्त लगे.
मां भोली नहीं होती, वैसे भी हमें दुनियादारी की पगडंडी पर संभलकर चलना और जीना सिखाने वाली मां से बेहतर दुनियादारी का ककहरा और कौन समझ सकता है. लेकिन नए ज़माने के चलन से मां अनजान ज़रूर हो सकती है. सपने और हौसलों के साथ मां को वो विश्वास भी चाहिए कि अगर इस नए रास्ते में उनके क़दमों को कभी झिझक हुई, कभी सब छोड़कर जाने-पहचाने से पुरानेपन में वापस जाने का दिल किया तो  बच्चे बड़ी मज़बूती से थामे रहेंगे उनका हाथ.
बल्ब के अविष्कारक थॉमस एडिसन के बचपन की एक कहानी तो हम सबने सुनी है, जब उनके स्कूल वालों ने उन्हें ये कहकर स्कूल से निकाल दिया कि उनकी मानसिक स्थिति पढ़ाई के अनुकूल नहीं है. उस चिट्ठी को पढ़कर उनकी मां ने बेटे से ये झूठ कहा कि स्कूल वालों का कहना है कि वो इतने कुशाग्र हैं कि स्कूल की टीचर उन्हें पढ़ा पाने के क़ाबिल ही नहीं, इसलिए उन्हें घर पर ही पढ़ाया जाए. एडिसन को उनकी मां ने घर पर ही तब तक पढ़ाया जबतक काम की तलाश में उन्होंने घर नहीं छोड़ा. ज़रूरत पड़ी तो इस बार अपनी मां और उनकी महत्वाकांक्षाओं के लिए हमारा भी एक छोटा झूठ सही. 
मां को सच में कुछ देना है तो दुकान, बाज़ार, बेवसाइटों के पन्ने मत टटोलिए. एक बार मां का हाथ थाम उसके दिल में झांक लेने की कोशिश कीजिए. अपनी मां के लिए दुनिया के सबसे नायाब तोहफ़े का आइडिया वहीं मिलेगा.
और हां, हो सके तो मां को महानता के उस घिसे-पिटे बोझ से मुक्त कर दीजिए जिसे ज़बरदस्ती उनके ऊपर लादकर बदले में हम बहुत बड़ी क़ीमत वसूलते आ रहे हैं. मां को हमेशा अपनी ज़रूरतों के लिए उपल्बध और फॉर ग्रैंटेड लेना भी बंद कर दीजिए. जिन माओं ने पढ़े-लिखे ज़िम्मेदार नागरिक बनाए वो अब भी अपने दम पर समाज को काफी कुछ दे सकती हैं. बशर्ते हम उन्हें उनके परिवार और चाहरदीवारी के बाहर झांक सकने का मौका दें.
वरना हज़ारों करोड़ रुपए के गिफ्ट मार्केट में हमारी जेब से चंद रुपए और एक रविवार और सही, एक और मदर्स डे भी यूं ही बीत जाने देते हैं.  

Friday, March 8, 2019

शीशे की चप्पलें या शीशे की छत?



 पत्रकारिता की क्लास में अमूमन कुछ भी आउट ऑफ सिलेबस नहीं होता. उस रोज़ चर्चा का विषय था कुछ भी हो सकता है एक लड़की ने चिहुंक कर कहा, जब अभिषेक को ऐश्वर्या मिल सकती है तो कुछ भी हो सकता है.
सहमति में एक साथ कई सिर हिले
क्यों भला?’
जबाब लगभग एक, कहां वो ब्यूटी क्वीन, मिस वर्ल्ड और सुपर स्टार. कहां ये फ्लॉप एक्टर.
हां बिल्कुल सही बात है, ऐश्वर्या को तो बल्कि सलमान खान से शादी कर लेनी चाहिए थी, थोड़ी मार-पिटाई ही तो करता था, और सरे आम थोड़ी सी बेइज़्ज़ती. है तो अभी तक सुपर स्टार ही.
इस बार कमरे में असहज सन्नाटा.
ये सुविधाओं, बराबरी के मौकों और आत्मविश्वास से लबरेज़ आधुनिक लड़कियां हैं. पढ़ाई और रिज़ल्ट का औसत भी लड़कों से बेहतर. फिर भी परवरिश की कंडीशनिंग ऐसी कि करियर की बुलंदी पर पहुंचने के बाद भी जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि खुद से ज़्यादा सफल और कमाने वाला पति हासिल करना हो जाता है.  
दहेज़ में मिली कार की ड्राइविंग सीट पर चौड़ा सीना किए बैठे एक परिचित से पहले भी इस तरह के मुद्दे पर लंबी बहस हो चुकी है. मैं फिल्मों की गूढ़ समझ नहीं रखती. अभिषेक, अभिनेता भले ही औसत हों लेकिन मेरी नज़र में इंसान आला दर्जे के हैं.  कई सारे सफल व्यक्तित्वों के बीच खड़े एक औसत सफलता वाले इंसान के लिए अपना आत्मसम्मान बरकरार रख पाना बहुत संयम और गरिमा का काम होता है. वो भी तब, जब उन सफलतम व्यक्तियों में से एक उसकी पत्नी हो.  अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में, रेड कार्पेट पर, पुरस्कार समारोहों में, अभिषेक जिस गरिमा और समग्रता के साथ पत्नी के साथ खड़े होते हैं, उनकी नज़र उतारने का मन करता है.       
ये कर पाना मुश्किल इसलिए भी है हमारा दोमुंहा समाज अपनी सरंचना में तिनका बराबर फेरबदल देखकर भी असंयमित हो उठता है. किसी के बारे में कुछ भी कह सकने का अभिमान रखने वाला सोशल मीडिया अभिषेक को लेकर ऐसे बेशर्म चुटकुलों से भरा पड़ा है. बावजूद इसके कि हमारी बुद्धि और कर्म को हर कोण से प्रभावित और नियंत्रित कर रही फिल्म इंडस्ट्री ऐसे उदाहरणों से भरी पड़ी है जहां करियर की ढलान पर पहुंची अभिनेत्रियों ने सफल और शादीशुदा उद्योगपतियों की ट्रॉफी वाइफ बनना स्वीकार किया है. उस बिज़नेस डील को, जिसमें एक को आर्थिक सुरक्षा और दूसरे को कैमरा लेंसों की अटेंशन मिलती है, हम खूब शोर-शराबे के साथ परिकथा के तर्ज पर साल की सबसे सुंदर प्रेमकहानी वाली हेडलाइन बनता देखते हैं. सालों तक उन्हें प्रेम में डूबे पिक्चर पर्फेक्ट जोड़ी मानकर निहारा करते हैं. लेकिन जैसे ही परिदृष्य बदलता है, पति-पत्नी एक-दूसरे से जगह की अदला-बदली करते हैं, हमारी चेतना बेचैन करवटें बदलने लगती है. 
पेप्सिको की चेयरपर्सन इंद्रा नुई से वॉशिंगटन में मिलना हुआ था. इंद्रा को अमेरिकी गृह मंत्रालय की ओर से सम्मानित किया जाना था. उन दिनों प्रवासी भारतीयों के अखबार इंडिया अब्रॉड में छपे इंद्रा के एक इंटरव्यू की बड़ी चर्चा थी. उस इंटरव्यू में इंद्रा ने अपनी कामयाबी का सेहरा अपने पति राज के सिर बांधते हुए कहा था, जो लड़कियां मेरी तरह अपने करियर में सफल होना चाहती हैं जाओ पहले अपने राज को ढूंढ लाओ.
राज उस रोज़ भी उनके साथ थे. सौम्य और गरिमामय.
आपकी बड़ी तारीफ सुनी है, मैंने राज से कहा.
अच्छा, मेरे बारे में कौन बात करता है भला, उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा.
मैं, और कौन?” बालसुलभ चपलता से इंद्रा ने जवाब दिया था.
पूरे इंटरव्यू के दौरान राज कैमरे के फ्रेम से बाहर उसी सौम्यता से खड़े रहे और इंटरव्यू पूरा होते ही इंद्रा का हाथ पकड़कर पार्किंग की ओर बढ़ गए. उन दोनों की वो प्यार भरी छवि कई साल बाद भी मेरे जेहन में ताज़ा है. हालांकि राज एक बड़ी कंपनी के अध्यक्ष हैं और कई दूसरी कंपनियों के बोर्ड मेंबर भी हैं फिर भी  राज नूई के नाम से गूगल कीजिए, वो इंद्रा के पति के तौर पर ही सामने आएंगे. ये परिचय दुनिया के तमाम सफलतम कंपनी प्रमुखों और अध्यक्षों के जीवनसाथियों जैसा ही है. बस किरदारों की प्लेसमेंट,  जेंडर के प्रचलित मापदंडों के हिसाब से नहीं है. और यहीं आकर गड़बड़ शुरु हो जाती है.
सफल पति के पीछे उसकी अनुगामिनी बनी पत्नी समाज के लिए पिक्चर पर्फेक्ट है. इस तस्वीर में जैसे ही पति और पत्नी ने अपनी जगहों की अदला-बदली की, सारे समीकरण डगमगाने लगते हैं.
वैसे भी हमे शुरू से बताया गया, हर सफल आदमी के पीछे एक औरत होती है. लेकिन ज़्यादातर औरतें अपनी सफलता के साथ अकेली रह जाती हैं. यही नहीं उनकी सफलता का पीछा करतीं चलती हैं, कई असंतुष्टियां और आहत अहम, और चलते हैं उसके छोड़े अधूरे काम जिन्हें वो चाहकर भी पूरा नहीं कर सकती. इस तरह कामयाब औरत अपनी कामयाबी को भी बोझ कर तरह ढोती चली जाती है.
इन्द्रा से हुई उस मुलाकात के कुछ सालों बाद उनके इंटरव्यू का एक और वीडियो क्लिप वायरल हुआ जिसमें उन्होने स्वीकारा कि, औरतें बस सोचती हैं कि उन्हें सबकुछ मिल गया है लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं है, वो कितनी भी कोशिश कर लें, उनसे कुछ ना कुछ ज़रूर छूट जाता है.
ऐसा इसलिए नहीं होता कि औरतों के करने में कुछ कमी रह जाती है, बल्कि इसलिए कि उससे सबकुछ एक साथ उठाकर चलने की उम्मीद की जाती है. और उसे बांटने वाला अगर कोई पुरुष सामने आए तो सामाजिक छिद्रान्वेषी अपने तानों से उसे वहीं का वहीं ध्वस्त कर देंगे.  
पति पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं, सही है, लेकिन कोई इस रिश्ते में किस तरह की पूर्णता चाहता है वो हर संबंध का निजी फैसला होना चाहिए. सामाजिक परिपाटी का इससे कोई भी लेना देना क्यों हो?
इस बार वीमेन्स डे पर इनबॉक्स में आए ढेरों संदेशों में से एक दिल को छू गया, “Teach your daughters to worry less about fitting into glass slippers and more about shattering glass ceilings”
तो सिन्ड्रेला को पीछे छोड़ते हुए शीशे की एक छत ऐसी भी तोड़ी जाए कि लड़कियां रह जाएं पेड़ की तरह सतर और अपनी ज़िंदगी के सबसे ज़रूरी रिश्ते में सहारा नहीं बल्कि सहजता और आत्मविश्वास ढूंढें.  


Sunday, January 6, 2019

मांडू देखने के बाद...



नए साल की दहलीज़, इस क़िताब का हाथ थाम कर लाँघी. एक तरफ पहले सात अध्याय और दूसरी ओर बाक़ी के दो. संयोग ऐसा कि साल के आख़िरी इतवार इंदौर से मांडू देखने निकलना हुआ. मैं पिछली सीट पर बच्चों के बीच क़िताब में ऐसी डूबी कि जहाज़ महल पहुँच बाकी लोग कब उतर लिए पता ही नहीं चला. किताब का नाम देख जेठजी चिढ़ाते रहे, अरे वही दिखाने तो लाए हैं तुम्हें, पहले उतर तो लो. बाज बहादुर के महल से निकलते-निकलते झुटपुटा हो चला था. जेठजी ने फिर खिंचाई शुरू की, कहीं किताबों की दुकान दिखे तो तुम्हारे लिए नई क़िताब ढूँढ लाएं, मैंने मांडू देख लिया.
मैं क्या बताती, देखा तो लिखने वाले ने भी नहीं था. वैसे देखने की रस्म क्या बस गंतव्य तक पहुँच कर पूरी हो जाती है? 




बाज़ बहादुर का महल जाते बरस के सूर्य के इन्द्रधनुषी छींटों से नहाया हुआ था. हम बच्चों के उत्साह से चारों और देखते जाते थे कि दो चौक़ीदार आकर खड़े हो गए, आप सबको निकलना होगा, हमें ताला लगाना है.
पूरे महल में दरवाज़ा तो कहीं है नहीं, ताला कहाँ लगाते हो?”  मैंने खिंचाई शुरू की.
बाहर के गेट में, उन्होंने मशीनी जवाब दिया.
अच्छा सुनो, क्या सचमुच यहाँ रात को राजा की रूह अपनी रूपमती के साथ गाने गाती है? आवाज़ आती है आपको भी?” मैंने संजीदा होकर पूछा
उनके लिए मज़ाक का बटन अब ऑन हुआ, आती है ना, हम भी आकर उनके साथ गाते हैं यहाँ
मैं उदास हो गई. मालवा का आख़िरी स्वतंत्र शासक, कमज़ोर सेना का नायक और मौसिक़ी का शौक़ीन, बंजारन की आवाज़ और सौंदर्य पर निछावर, उसे रानी बना लाया. दुनिया की हर ख़ूबसूरत प्रेम कहानी की तरह इसे भी ताक़त के गुरूर की नज़र लगी. मुगलिया सेना के सामने राजा के घुटने टेकते ही रानी ने ज़हर खा लिया, राजा की मौत उसके साल भर बाद हुई. इतनी कहानी गूगल ने बताई. इन महलों के आसपास कोई गाइड नहीं. रूपमती के महल से नर्मदा की झलक भी नहीं पाई थी. इतवार का दिन सैलानियों की भीड़ से भरा, ऊपरी मंज़िल पर जाने के लिए कतार लंबी थी, सामने आसमान में रंग-बिरंगा पैरा सेलर दिखा और मिनट भर में भीड़ तितर-बितर हो उस उड़ते पंछी को निहारने लगी. उत्साही जन उसके उद्गम स्त्रोत का पता कर बुकिंग करने भी निकल पड़े.
महल की ऊँचाई पर पहुँचकर अपना हर दुख छोटा लगने लगता है. राजा बाज़ बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कहानी उनकी यादों की ही तरह खंडहर में तब्दील होती जा रही है. क़िताब में जहाँ मेरी ऊँगलियाँ अटकी हैं, स्वदेश दीपक के जले शरीर से कीड़ों के साथ मांस के लोथड़े निकाले जा रहे हैं. मैं अगले पन्ने में लिखी पंक्तियों से ख़ुद को दिलासा दे रही हूँ, “Perhaps there will come a time when we will be so enlightened, that we will view, with indifference the brutal, cynical and heartless spectacle that life has to offer”