Saturday, August 20, 2016

पिता..बीस साल बाद


मोबाइल और इंटरनेट दोनों का युग आ चुका था लेकिन पिता अभी भी खबरें सुबह के अखबार में पढ़ते और शाम को दूरदर्शन का सरकारी बुलेटिन देखते। मोबाइल का इस्तेमाल बस दूरभाष के लिए होता, वो भी भरसक एक जगह पर बैठे-बैठे। 

बेटा अभी भी पिता से आंखों में आंखें डालकर बात करने में हिचकता था। हालांकि उसके पास अब एक अदद नौकरी, छोटी सी गाड़ी के अलावा बड़े शहर के छोटे मुहल्ले में डेढ़ कमरे का एक घर भी था। हालांकि बेटा जो काम करता था वो पिता की समझ से बिल्कुल परे था फिर भी उन्हें इस बात का गर्व था कि इतनी सी उम्र में उसने घर भी खरीद लिया और गाड़ी भी जबकि ग्रैचुय्टी के पैसों से घर बनाने के बाद पिता अपने दो पहियों के खटारा स्कूटर में दो और पहिए जोड़ पाने का सपना भी नहीं देख सकते थे।


अब उनकी चाहत थी कि छत पर दो तीन कमरे खड़े करवा दें ताकि वो शान से खुद को दोमंज़िले मकान का मालिक कहलवा सकें। और बेटा था कि इस घर को बेचकर उनसे बड़े शहर चलकर रहे कि ज़िद किए बैठा था ताकि मां-बाप का ख्याल भी अच्छे से रखा जा सके और वो अपने डेढ़ कमरों को तीन में तब्दील कर पाए। लेकिन पूरी ज़िंदगी की कमाई से बने घर को बेचने की बात सुनना भी पिता के लिए कुफ्र समान था।

बेटे का गाहे बेगाहे पैसे की कमी का ज़िक्र करना भी पिता की समझ के परे था। जिसने पैंतीस की उम्र में घर और गाड़ी जैसी चीज़ें हासिल कर लीं उसके पास पैसे कम कैसे हो सकते हैं। बेटा चाहकर भी ईएमआई के चक्रव्यूह पिता को समझा पाने में नाकाम रहा था। कुछ ऐसा था कि हर बात पर बाप बेटे को एक दूसरे से असहमत होने की कोई ना कोई वजह मिल ही जाया करती। इस तरह दोनों का रिश्ता असहमतियों की ठोस धुरी पर टिका था।  

बेटे और पत्नी की हर ज़िद पिता को कुछ महीनों के अंतराल पर बड़े शहर ले जाती। दस मिनट में कोई सौ बार बेटे के घर की पूरी परिधि नाप लेने के बाद पिता थक कर बैठ जाते और दो-तीन हफ्तों तक लगातार ऐसा करते रहने के बाद ये थकान चिड़चिड़ाहट बन पिता के स्वाभाव में उतर आती। फिर एक शाम बिना किसी को बताए वो खुद ही जाकर वापसी का टिकट करा लाते। आने-जाने के इस क्रम में बाप-बेटे के बीच औपचारिकता की एक धुंध हमेशा पसरी रहती।

महानगर की ऐसी ही एक यात्रा के दौरान उस बार बेटा कंपनी के किसी काम से शहर से बाहर था। टूर दूरदराज़ के एक कस्बे का था जहां बेटे को बस से जाना पड़ा था। उस सुबह चाय और अखबार से निवृत होने के बाद से ही पिता काफी उद्वगिन थे। खाना तक नहीं खाया गया उनसे। पूछने पर कोई जवाब नहीं, तबियत भी कोई खराब नहीं। बार-बार बेटे का फोन मिलाते और कॉल नहीं जाने पर हताश होकर फोन रख देते। शाम को बहु ने भी दफ्तर से आकर समझाया कि उस इलाके में मोबाइल के सिग्नल कई बार नहीं मिलते इसलिए परेशान होने से कोई फायदा नहीं है। पिता की बेचैनी फिर भी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। अगले दिन उनके घबराहट भरे कदम बड़ी सड़क तक भी चहलकदमी कर आए। पत्नी और बहु दोनों को इस बेचैनी का कोई सबब नहीं मिल रहा था। बेटे का काम ऐसा था कि उसे अक्सर बाहर जाना होता था, यूं वो पास भी होता तो भी गिने चुने सवाल जवाब से ज़्यादा दोनों में कोई बात नहीं होती थी।

तीसरे दिन सुबह जब दरवाज़े की घंटी बजी, घर के बच्चों से पहले पिता दौड़े, बेटे को सामने पाते ही पहले उसे गले से लगाया फिर उसके कंधे पर सर रखकर रोने लग पड़े। एकबारगी की इस प्रतिक्रिया से बेटा पहले हड़बड़ाया फिर विस्तार में पूछने से पता चला कि जिस इलाके में बेटा गया था वहां किसी कस्बे में एक बस के पलटने और कई यात्रियों के मारे जाने की खबर पिता ने दो दिन पहले के अखबार के तेरहवें पन्ने में पढ़ ली थी।

उस रोज़ सालों बाद बाप-बेटे ने एक पूरा दिन साथ में बिताया। उसके अगले रविवार को पिता फिर अकेले जाकर वापसी का टिकट कटवा लाए थे।

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