ये कहानी बहुत बचपन
में पढ़ी थी।
अपने समय के एक बड़े
चित्रकार ने एक सुंदर चित्र बनाया, दो बैलों की लड़ाई का चित्र। जिसने भी देखा वाह-वाह कह उठा। चित्रकार ने ऐसी जीवंत रेखाएं खीचीं थीं
कि देखने वाले की आखों के सामने सायस ही दृश्य स्थापित हो जाता था। युद्धरत दोनों
बैलों की मांसपेशियां खिचीं हुई थीं, शरीर के हर हिस्से में तनाव नज़र आता था। क्रोध और उत्तेजना में उनके फड़कते हुए रोंए तक
महसूस किए जा सकते थे। नथुने फड़कते हुए थे, उनकी बोलती आखों से जैसे खून टपक रहा था। देखने वाला भी
तारीफ किए बिना कैसे रह पाता। तारीफों से चित्रकार की छाती चौड़ी हो गई।
तारीफें सुन-सुनकर
उसने तय किया कि ऐसे बहुमूल्य चित्र की जगह राजदरबार के अलावा और कहीं नहीं हो
सकती। सो वह चित्र उठाए चल पड़ा राजा से मिलने। रास्ते भर भी जिसने उस चित्र को
देखा तारीफों के पुल बांध दिए। चित्रकार का आत्मविश्वास बढ़ता गया, चेहरा दमकने लगा। दोपहर बाद
आराम करने वो खेतों के किनारे एक बड़े पेड़ की छांव में रुका। एक अधेड़ किसान भी
वहीं बैठा खाना खा रहा था। उसने चित्रकार के साथ अपनी रोटी बांटी और इधर-उधर की
बातें होनी लगीं। सारे प्रयोजन जानकर किसान ने चित्र देखने की जिज्ञासा भी दिखाई।
चित्र देखते ही किसान ठठाकर हंसने लगा। चित्रकार को बड़ी हैरानी हुई, गुस्सा भी बहुत आया इस
अनपढ़ गंवई किसान पर। चित्रकारी का ककहरा भी नहीं आता और चले हैं इतनी महान कृति
का मज़ाक उड़ाने। फिर भी उसने अपना गुस्सा छिपाकर किसान से उसके हंसने की वजह
पूछी।
“जब बैलों में लड़ाई होती है जनाब तो क्रोध में
उनकी पूंछ ऊपर, हवा में लहरा रही होती हैं, यूं टांगों के बीच नहीं झूलती रहतीं”, किसान ने हंसते-हंसते जवाब
दिया। “आप इतने बड़े चित्रकार हैं, इतनी बारीक रेखाएं खींच लीं, बस इतनी साधारण सी बात ध्यान में नहीं रही। वैसे
आपकी कला के सामने ये मोटी बात है, हम जैसे मोटी बुद्धि वालों के ध्यान में आने लायक।“
बात दरअसल कुछ नहीं, है भी तो मामूली, स्थूल। फिर भी जाने क्यों
इसी की कमी नज़र आती है हर ओर। हमारी इंद्रियां सूक्ष्म होती जा रही हैं और नज़र
पैनी, बॉडी लैंग्वेज डीकोड करने के भी एक्सपर्ट बने जा रहे हैं, बस किसी के मुंह से निकली
साधारण बात पल्ले नहीं पड़ती। भावार्थ, शब्दार्थ के चक्कर में साधारण से अर्थ का अनर्थ कर देते
हैं।
कहा ना, ये पढ़ी हुई कहानी है और वो
भी बचपन में। असल ज़िंदगी में कभी देखी नहीं बैलों की लड़ाई, पता नहीं लड़ते वक्त उनकी
पूंछ हवा में होती है या ज़मीन पर। लेकिन जब ज़िंदगी उलझनों से भर जाती है, मन के सारे बारीक छिद्र बंद
कर देते का मन करता है। जी चाहता है आंखें बंद कर एक बार बस कहे शब्दों का भरोसा
कर लिया जाए। जी चाहता है ज़िंदगी बस मोटी बातों के सहारे चल जाए, जिनमें हर क्षण किसी
परिवर्तन की आशंका विचलित ना करती रहे। वैसे ही जैसे ना पंचतत्वों में कोई
परिवर्तन हुआ ना जीवन चक्र में और ना ही मौसमों की आवाजाही में।
ये सारा दुख दरअसल
मन के प्रति क्षण बदलते मौसमों का दिया हुआ है।
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