Saturday, June 4, 2016

महाभारत जारी है....


फिर कौरवों ने पांडवों से कहा, ये बताने की ज़रूरत नहीं कि तुम्हारा ऐश्वर्य देखकर हमारे कलेजे पर सांप लोट रहे हैं, हमने लाख तुम्हें अपने से कमतर रखना चाहा लेकिन अपनी शिक्षा, कर्मठता और शौर्य के बल पर तुमने हमें पीछे छोड़ दिया। हम चाहें भी तो निष्ठा, लगन, वीरता और कर्तव्यपरायणता में तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते और हम चाहें भी तो तुम्हारे लिए हो रहे इस जय घोष को सुनने के बाद चैन की नींद नहीं सो सकते। इसलिए हमने विजय के मापदंड ही बदल दिए। हम चाहते हैं कि तुम अब द्यूत क्रीड़ा में हमें परास्त करो तब हम तुम्हें विजयी समझेंगे। पांडव जानते थे कि ये छल है, इस एक निर्णय से उनका अभी तक का सारा श्रम और पराक्रम व्यर्थ हो सकता है। फिर भी उन्हें अपने प्रभुत्व का प्रमाण देना था और इसके लिए हर चुनौती स्वीकार की जानी थी। इसलिए उन्होंने द्यूत का आमंत्रण स्वीकार किया और उसके बाद हज़ारों सालों तक दोहरायी जाने वाली कहानी का जन्म हुआ।
इतिहास में प्रासंगिकता की ये बिसात बार-बार बिछाई जाती है। इस बार इसके आर-पार दो इंसानी नस्लें हैं।  सदियों से अपने प्रभुत्व के मद में झूमते पुरुष और उसके रचे समाज में अपना होना तलाशती स्त्रियां।

पुरुष ताल ठोंककर कह रहे हैं, दहलीज़ छोड़कर आगे बढ़ो, हमारी बराबरी करना चाहती हो तो हमारे खेल में करो। आओ हवाई जहाज़ उड़ाओ, गाड़ियां दौड़ाओ और देखो अपनी जगह का ख्याल भी रखना, वो ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी है। और बढ़ी जा रही हैं स्त्रियां अपनी जगह छोड़कर, मान लिया है उन्होने भी कि सहस्त्राबदियों तक जो काम उन्होने किए, या उनसे करवाए गए, दहलीज़ के अंदर या बाहर, उनका कोई मोल नहीं था। बिसात की दूसरी ओर आते समय वो बार-बार पीछे मुड़कर बेबसी से अपनी खाली जगह को भी देखती हैं क्योंकि उसे रिक्त छोड़ने का अपराधबोध भी उन्हीं के सिर मढ़ा जा रहा है। कैसा खेल है ये जहां पीछे मुड़-मुड़कर देखते हुए आगे दौड़ लगानी पड़ती है और फिर भी जीतने की उम्मीद की जाती है।
स्त्री और पुरुष के इस मुकाबले में महाभारत के चौपड़ का ज़िक्र इसलिए क्योंकि धोखा उस खेल में भी था और धोखा इस खेल में भी है। करियर और परिवार में से एक को चुनो, करियर चुना तो परिवार छोड़ने का अपराधबोध ढोओ और परिवार चुना तो सफलता के मानकों पर नहीं उतर पाने का दंश झेलो। काबलियत की मुहर के नाम पर ये चक्रव्यूह रचा है तुम्हारे लिए इसे तोड़ पाओ तो बराबरी की बातें करना।
आश्चर्य होता है आजतक किसी औरत ने ये सवाल क्यों नहीं किया कि खेल भी तुम्हारा और नियम भी तुम्हारे फिर हम क्यों खेलें। एक बार हमारे नियम से भी खेलकर देखो ना तुम। आओ तुम भी बिसात के इस पार आओ, अपने जीवन का हर दिन दूसरों की शर्तों पर जीकर देखो, अपने हर फैसले पर किसी और की रज़ामंदी की आस लगाओ, तुम भी त्याग, लज्जा, शील को अपने गहने बनाओ और फिर गहनों के लोभी भी कहे जाओ।
किसी ने ये भी नहीं कहा कि हम वो करेंगे जो हम करना चाहते हैं, वो नहीं जो तुम्हारी नज़र में हमें साबित करने के लिए ज़रूरी है। हम पहाड़ों की चोटियों को रौंदे या रोटियां बेलें अपने लिए फैसले कर सकने का अधिकार हमें दोनों ही सूरतों में होगा। कि हमें मौके मत दो, शाबासी का झुनझुना भी मत पकड़ाओ, सहारा और सुरक्षा भी नहीं चाहिए बस हमारे जीवन का रिमोट हमारे हाथों में दे दो, खुद से ट्यून करने दो हमें हमारी ज़िंदगी।
किसी ने ये भी तो नहीं कहा कि आजकल लड़कियां भी हर क्षेत्र में लड़कों की बराबरी कर रही हैं में से पहले आजकल को निकालो फिर बराबरी को। क्योंकि इस वाक्य में बराबरी से ज़्यादा भ्रामक और दोगला शब्द कोई नहीं। जब तुलना आम और अनार की हो रही हो तो ये कौन तय करेगा कि आम, अनार की बराबरी में आए या अनार, आम के जैसा बन जाए।
बराबरी शब्द की व्याख्या उस दिन की जाएगी जब इस चौपड़ के उस पार कोई निर्णायक युद्ध होगा, जो दूसरी पारी के रण कौशल के हिसाब से खेला जाएगा। होम पिच पर खेलना यूं भी आसान होता है काफी।

याद रहे, महाभारत केवल 18 दिनों का खूनी खेल नहीं था पीढ़ियों के संघर्ष का भी नाम है। 

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