Saturday, March 24, 2018

जुगनुओं की दिवाली...3



उसके रहते अलार्म लगाकर सोने की ज़रूरत नहीं होती, आंखें उसके कॉलबेल बजाने से तय समय पर ही खुलती हैं. अगर गांव नहीं गई हो तो साल भर में 12-15 से ज़्यादा छुट्टियों की उसको दरकार नहीं पड़ती. दरवाज़े पर पड़ी दूध की थैलियां उठाकर जब वह अंदर घुसती है, मैं चाय का पानी चढ़ा चुकी होती हूं. उसके बगल में खड़े होने पर अपने पांच फुट से थोड़ा उपर उठा कद भी बेहद लंबा जान पड़ता है. उसकी सभी बातें समझ पाने में अभी भी ढेर सारी मशक्कत करनी पड़ती है. हालांकि काम की तलाश में पहली बार दिल्ली आए उसे पन्द्रह साल हो चुके हैं, उसने हिंदी भाषा के उतने ही शब्द सीखने स्वीकार किए जितने से काम कर रहे घरों की गृहस्वामिनियों से कामचलाऊ वार्तालाप हो सके. गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि शारीरिक तौर पर बहुधा अशक्त पति से मेहनत-मशक्कत वाला देहाती काम नहीं होता. यहां आकर पति को गाड़ियों की साफ-सफाई का काम मिला जिससे झुग्गी में रहने का किराया भी बमुश्किल निकलता.
तो दुधमुहीं बच्ची को सास के साथ गांव वापस भेज इसने घरों में काम करना शुरु किया.  उस बात को काफी साल बीत गए, छोटे हिचकोलों को छोड़ दें तो इनकी गृहस्थी कभी पटरी से नहीं उतरती. दो साल पहले झुग्गी से इनका प्रमोशन खोली में हो चुका है. पति सुबह चार बजे उठकर बंधी-बंधाई गाड़ियों की सफाई करने निकल पड़ता है. ये छह से कुछ पहले उठती है और साढ़े छह मेरे दरवाज़े पर दस्तक देती है. फिर लिफ्ट से ऊपर-नीचे करतीं चार घरों के काम निबटाती दो ढाई बजे वापस घर पहुंचती है. पति गाड़ियों की सफाई से नौ बजे तक लौटकर नाश्ता-पानी, साफ-सफाई कर इसके लिए खाना बनाकर इंतज़ार करता है. नहा धोकर, खाना खाकर, ये अपनी दूसरी शिफ्ट के लिए निकल पड़ती है. पति के पास अब काफी वक्त है, वो रात के खाने की तैयारी करता है, पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता है, ज़रूरत पड़ी तो उन्हें संभालने का भार भी उठाता है, इनके अपने तीनों बच्चे क्योंकि दादी के साथ गांव में हैं, पढ़ते-लिखते ऊंची क्लास में पहुंच गए हैं. बड़ी लड़की इस साल कॉलेज में आ जाएगी, वो दादी के साथ घर संभालती है, छोटे भाई-बहन को भी. बैंक का अकाउंट उसी के नाम पर है, खर्चे पानी का हिसाब-किताब भी. उस घर की औरतें जीवट होने का वरदान साथ लाई हैं. पिछले बरस बड़ी बेटी को गले में अल्सर से कैंसर होने का शक हुआ. मां-बाप सारी शक्ति लगाकर चार महीने इलाज कराते रहे, शक गलत निकला, एक ऑपरेशन के बाद वो ठीक हो गई.
जो पइसा दिया महीना-महीना काट लेना, इसने गांव से लौटकर मुझसे कहा था.
रहने दो, वापस नहीं लेने थे.
अच्छा, उसने इतना भर कहा और चली गई. मुझे लगा अगर मैंने सारे पैसे उसी दम भी मांग लिए होते तो भी यह केवल अच्छा ही कहती.
आपका पास कंपूटर वाला पुराना फोन है, बेटी के भेजना है, पढ़ाई का लिए पिछले महीने उसने मुझसे पूछा.
ढूंढती हूं, मैंने कह तो दिया फिर चिंता में पड़ गई, पिछला फोन पांच साल तक घसीटा था, किसी काम का नहीं रहा अब, दे दिया तो ये ही गालियां देगी.
ऊपर वाली दीदी ने नया खरीद दिया, दो दिन बाद मुझे सूचना दे दी गई, पुराना फोन खराब होता, उहां गांव में कोन ठीक करता. महीना-महीना कटा लेगी
इस किस्म के सारे फैसले घर में इसके ही होते हैं.
इन्होंने हेनरी फेयोल रचित प्रबंधन के 14 सिद्धांत कभी नहीं पढ़े. इन्हें नहीं पता Division of Work according to one’s ability and interest क्या बला है. इनकी जिंदगी में इन गूढ़ सिद्धांतों की कोई जगह नहीं. एक गृहस्थी है, दो लोगों की ज़िम्मेदारी, जिसे दोनों अपने-अपने के भर का उठा रहे हैं, बस. एक रिश्ता है, दो लोगों के बीच का, जिसे दोनों अपने-अपने हिस्से का पूरा दे दे रहे हैं, बस.
मेरे किचन में धुले बर्तन जल्दी-जल्दी समेटे जा रहे और फोन कई बार जिंगल बेल की रिंग टोन बजाता है. मेरे बच्चे हंसते हुए कहते हैं, दीदी क्रिसमस तो कब का बीत गया, अब तो बदल दो इसे. वो कुछ नहीं समझ पाने वाली भंगिमा में वापस से हंसती है, बर्तनों को पोंछ-पोंछ कर जगह पर लगाने लगती है.
पौन आठ बजने को हैं, और दिनों से काफी देर. देरी जान पति बिल्डिंग के नीचे पहुंच गया होगा, साथ वापस ले जाने.
आज आटा फिर गीला गूंद दिया है उसने, बेलते वक्त हाथों में चिपक गए आटे को दिखाते हुए मैं उसे छेड़ती हूं,
देखो कितनी दिक्कत हो रही है बनाने में, वैसे तुम कैसे समझोगी, तुम्हें कौन सा बनाना पड़ता है, तुम्हारे घर तो आदमी बनाता है
ना-ना, वो प्रतिरोध में दोनों हाथ हिलाने लगती है,ऊटी नहीं बनाता वो, बस चाउल बनाता हैबोलते हुए उसे हंसी आ जाती है. मैं गीले हाथों से आटा छुड़ाते वक्त देख नहीं पाती कि शर्माने से उसकी हंसी अबीरी तो नहीं बन गई. फोन एक बार और बजा, उसने अपना झोला हाथों में उठा लिया है.

Sunday, March 18, 2018

जुगनुओं की दिवाली...2




मेरे कदमों की आहट सुनकर भी उन्होंने सिर नहीं उठाया, झुके सिर को हल्का सा हिलाकर ही जैसे मेरे आने का संज्ञान ले लिया. सामने फैली क्रीम कलर की भागलपुर सिल्क की साड़ी के आंचल पर कचनी और भरनी के मिश्रण से सखियों संग फूल चुन रही सीता की आकृति उकेरेते आज उन्हें चौथा दिन था. उनके सधे हाथों ने मिरर इमेज में एक जैसे दो दृश्य उकेर दिए थे.
ये पूरा हो जाए तो किनारे की फूल पत्तियों में एक दिन लगेगा बस, उन्होंने अपनी कलम अलग हटाते हुए कहा.
उस रोज़ उनकी साड़ी का रंग चटख हरा था, हल्की नारंगी किनारी के साथ. लेकिन दूर से देखने पर जो चीज़ सबसे ज़्यादा ध्यान आकर्षित करती थी वो थी मांग में भरी गहरे लाल रंग की सिंदूर की रेखा. इधर दिल्ली में चूड़ी की दुकानों में जो सिंदूर मिलता है उनके रंग में वो बात नहीं होती. ये लाल तो बंगाल में देवी को चढ़ाए जाने वाले सिंदूर सा था. जितने दिनों तक हम मिलते रहे उनकी वेशभूषा में केवल साड़ी के रंग और उसकी मैचिंग छोटी सी बिंदी का फर्क ही देखा. कमर तक झूलती चोटी, गले में लाल-सफेद मोतियों में गूंथा सोने का छोटा सा पेंडेंट और उससे मेल खाते टॉप्स, बाटा की भूरे रंग की चप्पलें और घर में सिले झोले पर चक्राकार में उभरी मधुबनी पेंटिग की मछलियां.
अब उनके पास केवल चाय पीने भर का समय था, फिर उनसे सीखने आने वाली लड़कियों का एक पूरा बैच जमा हो जाएगा. हमारे छोटे से शहर के जर्जर सरकारी कॉलेजों में पढ़ने वाली चहकती, खिलखिलाती लड़कियां जिन्हें पढ़ाई के साथ कुछ और गुण सीख लेने की हिदायत थी, ससुराल जाने से पहले-पहले. सौ रुपए महीना की फीस पर वो इन दिनों अलग-अलग प्रकार की मछलियां उकेरना सीख रही थीं. उन लड़कियों के जाने के बाद वक्त होता घर गृहस्थी की सूत्रधार, तीस पार की औरतों के आने का, जो अपने पति, बच्चों को खिला-पिला कर दोपहर बाद की ऊब मिटाने  एक-एक कर जुटने लग जाया करतीं. उनमें से ज़्यादातर को सीखने में कोई रुचि नहीं थी, गृहस्थी के बही-खाते में जोड़-तोड़ कर बचाए पैसों से वो हर दोपहर अपनी आज़ादी ख़रीद रही थीं.
जिस घर के भीतरी बरामदे पर ये कक्षाएं लगा करतीं उसकी मालकिन के चेहरे पर सबसे ज़्यादा ऊब नज़र आती. अपने बरामदे के उपयोग के लिए वो सिखाने वाली से कोई पैसे नहीं लेती, बदले में कभी चादर, कभी साड़ियों पर पेंटिंग करवा लिया करतीं. औरतों का जमघट दो-चार लकीरें खींचने के बाद कागज़ परे सरका देता और सिखाने वाली के चेहरे पर हल्की सी खिन्नता नज़र आया करती. उन गदबदी औरतों के बतकुंचन, शिकायतों और ठिठोलियों के बीच वो अक्सर नेपथ्य में चली जाया करती थी. अपनी कला को लेकर ये उदासीनता उन्हें कभी रास नहीं आती.
आप अपने घर में सिखाया करें तो केवल सीखना चाहने वाले ही आया करेंगे, उनसे इसी आशय का कुछ कहा याद सा है.
घर नहीं है, नैहर में रहते हैं हम. उनकी आवाज़ सपाट थी.
मैंने सिंदूर की गाढ़ी रेखा से ध्यान हटाते हुए बस चेहरे पर नज़र जमा दी.
दुरागमन करवाने भी नहीं आया, बोला ठगा गए. चालीस बराती तीन शाम खाना खाया और बदला में तीन टूक गहना और चार जोड़ साड़ी छोड़ गया हमारे लिए, उन्होंने अपने गले, कान की ओर इशारा किया.
तो आप क्यों उसके नाम का सिंदूर लगाती हैं, छोड़ क्यों नहीं देती,” मेरी सोलह-सत्रह साला आवाज़ में पढ़ी गई क्रांतिकारी कहानियों से जुटाया जोश उभर आया था.
सिंदूर किसी के नाम का नहीं होता, बस श्रृंगार का सामान होता है. ये हमारा टिकट है आराम से घूम-घूमकर अपना काम करते रहने का. सिंदूर देख कर हमको कोई नहीं टोकता.
 आपके घरवाले?”
हम उनको नहीं देख पाते. दिन भर काम में निकल जाता है.
और आपकी ज़िंदगी, मैंने स्मृति में पढ़ी गई रोमांटिक किताबों के पन्ने टटोले.
कितनी अच्छी तो चल रही है, सामने बैठी औरतों की टोली को देखते हुए वो मुस्कुराने लगी.
तीन साल और, उन्होंने उंगलियों पर जोड़कर हिसाब लगाया, तब तक हम सेंटर खोल लेंगे अलग से, आजकल खूब डिमांड है इसका. पांच रुपया का ग्रीटिंग कार्ड भी तीस का बिकता है बाज़ार में. आठ सौ का तो साड़ी बेचे हैं पिछला हफ्ता. जबकि आधा पैसा एजेंट खा जाता है. सोचो सीधा बेच सकते तो?” उनकी आखों में सैकड़ों जुगनु चमकने लगे.
अच्छा भाभी, अगला हफ्ता नहीं आएंगे हम, प्रदर्शनी के लिए पटना जाना है, सामान समेट कर उन्होंने अपने अस्तित्व से बेखबर गृहस्वामिनी को आवाज़ दी मुझपर खूब सारी हंसी उड़ेल कर चली गईं.
उसके साल भर बाद अपना शहर मुझसे छूट गया था.

Sunday, March 4, 2018

जुगनुओं की दिवाली- एक



मैं साढ़े तीन बजे अंदर घुसी, खाना बीच में ही छोड़ वो हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुईं. मैंने इशारा किया कि मैं इंतज़ार कर सकती हूं लेकिन तब तक वो हाथ पोंछकर काग़ज़-कलम उठा चुकी थीं. मेरे कुर्ते का नाप लेने के बाद पर्ची पर मेरा नाम लिखने में उनकी कलम हिचकिचाई, मैंने अपने नाम की स्पेलिंग दो बार दोहराई, उन्होंने तीसरी बार भी मेरी तरफ देखा.
आप गुरुमुखी में ही लिख दें, मैं उनसे हंस कर कहती हूं.
आपको समझ आती है?’ वो वापस मुस्कुराने लगती हैं.
क्या फर्क पड़ता है, आप तो समझ लेंगी. और जो पर्ची मेरे पास है वो मेरे नाम की होगी इतना तो मुझे पता ही है.
इस बार वो हंसने लगती हैं. मैं उनके हाथ से गलत स्पेलिंग वाली अपनी पर्ची लेकर पर्स में रख लेती हूं.
इस बड़े से मॉल में टेलरिंग की उनकी छोटी सी दुकान अब ठीक-ठाक जम गई है. कई साल पहले बीमार पति की कम होती आमदनी के बीच उन्होंने इसी माल में कपड़े की दुकान पर थान काटने की नौकरी से शुरुआत की थी. एक बार उनके साथ उस दुकान पर मैं फैब्रिक पसंद करने जा चुकी हूं.
वो रहा मेरा काउन्टर, पांच साल हर रोज़ बारह-बारह घंटे खड़े रहकर काम किया है यहां मैंने, उन्होंने अंदर के कमरे में तीसरे काउन्टर की ओर इशारा कर धीमी आवाज़ में मुझसे कहा भी था.
थान से सीधी रेखा में कपड़े काटने से शुरुआत कर टेलरिंग का काम सीख अपनी बुटीक खोलने की हिम्मत ला पाने में लंबा वक्त लगा. अब भी घबराहट हैं, कई बार गलतियां होती हैं. साथ काम करने वाले मास्टर अक्सर चालाकी कर जाते हैं, उनके काम में हुई गलती का खामियाज़ा ये हमारी डांट की शक्ल में भुगतती हैं. कितनी बार सही फिटिंग के इंतज़ार में चक्कर लगाए इनकी दुकान के. समय से कपड़े तैयार नहीं मिले तो भी गुस्से में पैर पटकती निकल गई. फिर देर शाम, दुकान बंद होने के बाद, तैयार कपड़ा लेकर इनके पति घर पहुंचाते हैं. दुबले-पतले सरदारजी दरवाज़े के अंदर नहीं आते, दिन में हुई परेशानी पर खेद जताते हुए पैसे लेकर चुपचाप चले जाते हैं.
इसके पहली बार इतना परेशान हुई कि कभी वापस नहीं आने का एलान करके निकल गई. लेकिन माफी मांगती इनकी निश्छल हंसी हर बार निरस्त्र कर देती है. बाकी दुकानों से पैसे भी कम नहीं लेतीं ये, सहेलियों ने इसको लेकर बार-बार आगाह भी किया है, जेब काटती है ये, तुम यूं ही ठगी जाती हो. इतनी नई बुटीक खुली हैं, उनको चलाने वाली चुस्त-दुरुस्त, फैशन स्कूल से पढ़ी हुई प्रोफेशलन लड़कियों के नाम और नंबर कई बार दिए गए हैं मुझे. एकाध के पास गई भी हूं, लेकिन हर बार इनके पास वापसी हुई है. चेहरा देखते ये उसी उत्साह से उठ खड़ी होती हैं, मुस्कुराती हुई, इस बार देखना आपको शिकायत का मौका नहीं देंगे.
मैं विश्वास करने का नाटक करती हूं, नाप लेते वक्त ये बेटी की नई नौकरी की कहानी सुनाती हैं, या पोलियोग्रस्त बेटे की चिंता अब कम है, बेटा साथ में दुकान पर बैठने लगा है, काफी कुछ संभाल भी लेता है.
मैं नज़र उठाकर मास्टर की कुर्सी पर बैठे नए चेहरे को देखती हूं,
पहले वाले से अच्छा है, ये मेरी नज़र परख मुझे आश्वस्त करती हैं.  
मैं उनके चेहरे को देखती हूं, विश्वास से दीप्त है. आंखों में जुगनु चमक रहे हैं. छोटी-छोटी लड़ाइयां लंबा फासला तय करा देती हैं. इस तय किए रास्ते के सदके, मैं यहां आना कभी बंद नहीं पाउंगी. ये बात हम दोनों को पता चल गई है शायद, ज़ाहिर कोई नहीं करता.
इस बार कुछ गड़बड़ हुई तो....मैं निकलते वक्त फिर से एलान करती हूं
नहीं होगी जी....उनकी हंसी बाहर तक तैर आती है.