Saturday, March 5, 2016

कितनी बार?


पड़ोस का वो बड़ा लड़का जिसे उसकी मां ने बचपन से भाई कहना सिखाया, जिसकी कलाई पर उसने राखियां बांधीं साल दर साल, उस दिन हाथ पकड़ कर ले गया अपने कमरे में और उतार दी अपनी पैंट उसके सामने। वो घबराकर भागी और पीछे से मुंहबोला भाई विजयी भाव से हंसता रहा। भय से मिचीं आखों को उसने अपने घर पहुंच कर ही खोला, लेकिन उसकी मां को बस चौखट से टकराकर दाएं पैर में आई मोच ही नज़र आई। राखी अगले साल भी बांधी गई उस कलाई पर और उसके अगले साल भी।

हाई स्कूल के वो सर जो सबको 'माई चाईल्ड' कहकर बुलाते थे और शाबासी देने के बहाने पीठ पर हाथ फिरा कर टटोल लेते थे टीनएज ब्रा की स्ट्रैप, कभी कोई आस-पास नहीं होता तो एक आंख मींच कर हल्के से खींच कर छोड़ भी दिया करते थे और पान से बदरंग, बेशर्म, दांत दिखा देते। सालों तक छूने पड़े थे उनके पैर, परीक्षा के पहले भी और रिज़ल्ट के बाद भी। आशीर्वाद को सिर झुका कर विनीत होकर स्वीकारना भी पड़ता था।

पिता के वो दिल्ली वाले दोस्त जो हमेशा चिंतातुर रहते उसकी भलाई के लिए, बगल में खड़ा कर घंटो बातें करते करियर की, पढ़ाई की, फ्यूचर की। दाएं कंधे के पीछे से आता उनका हाथ और बायीं बांह के नीचे से निकलकर उभार को टटोलती रहतीं उनकी कामुक उंगलियां। चेहरे से वो तब भी प्यार करने वाले अंकल जी रहते, लेकिन उंगलियां ब्लेड सी चुभतीं उनकी, और काठ मार जाता उसके पूरे शरीर को। पापा तो भी पूरे विश्वास से कहते कि दिल्ली जब जाएगी ये कॉलेज की पढ़ाई करने तो तुम्हे ही देखना होगा सब, तुम ही रहोगे वहां मेरी जगह इसकी भलाई-बुराई का फैसला लेने। अंकल के जोर के 'श्योर, ऑफ कोर्स' को सुन वो भी मुस्कराना मैनेज कर लेती थी।

डीटीसी की भीड़ में किस्मत से मिली गली वाली सीट पर बैठकर ये समझ पाने में काफी वक्त लगा कि कंधे पर बार-बार लगने वाली रगड़ धक्का-मुक्की की देन नहीं है। भीड़ का फायदा उठाकर उसके कंधे पर अपना पौरूष घिसती ये लिज़लिज़ी टांगे किसी एक इंसान की भी नहीं हैं, ये दरअसल मानसिक विक्षिप्तों की एक प्रजाति है जिनका सारा पौरुष एक अंग का नौकर है। फिर एक समय ऐसा आया जब कंधों की संवेदना खत्म हो गई और ज़ुबान को इतनी थकान घिर आई कि प्रतिरोध की इच्छा मर गई।

पहली कंपनी का वो बॉस जिसके नीचे काम कर उसे छह महीने में अपनी पेड इंटर्नशिप को पर्मानेंट नौकरी में बदलना था इतने सालों तक देखे गए चेहरों का परफेक्ट मिश्रण था, गले में लाल टाई टांगे दिखता तो ऐसा लगता किसी ने चमगादड़ को गिफ्ट रैप कर सामने रख दिया है। दूसरे हफ्ते में उसने 'ड्रेसिंग सेंस' सुधारने की सलाह दे दी और दूसरा महीना आते-आते कंधे पर हाथ रखकर लार टपकाता पूछने लगा, 'इतनी सुंदर लड़की को किसी ने किस नहीं किया अभी तक, दैट्स सो अनफेयर।' वो रिश्तेदार नहीं था, दोस्त और पड़ोसी भी नहीं था, इसलिए पहली बार, फैसला लेने में वक्त नहीं लिया। लेकिन उसे उसी के केबिन में धक्का देकर बाहर निकलने के बाद आठ महीने तक चप्पलें घिसनी पड़ी थीं दूसरी नौकरी की तलाश में। 


इन सबके बाद जब पहली बार की आत्ममुग्धता में तिरता पति गुनगुनाता सा कहता है ना, थैंक गॉड मुझे फ्रेश माल मिली, पत्नियां अक्सर चुप रह जाती हैं, प्रतिरोध में कुछ नहीं बोलतीं, गुस्से में नए पति का मुंह भी नहीं नोंचतीं। ना केवल शर्म या डर ही नहीं हैं उसके पीछे। भीतर-भीतर हंसती हैं वो, हद अहमक पति मिला है, हायमेन लेयर के अक्षुण्ण रहने से पत्नी को शुद्ध-वुद्ध टाइप मान रहा है, जानता ही नहीं कि उसके हाथ लगने तक जाने कितनी बार, कितनी नज़रों, कितने हाथों, कितने दूसरे तरीकों से बरती जा चुकी है लाल कपड़े में उसे सौंपी गई उसकी दुल्हन।   

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