उस परिचित जोड़े को बहुत करीब से जानती थी, महीनों तक दिन-रात
का साथ रहा. मैंने उन्हें कभी लड़ते झगड़ते नहीं देखा था, ऊंची आवाज़ में बहस करते भी नहीं सुना,
दोनो शांति से अपना काम करते रहते. मैं कॉलेज में थी, उम्र के उस पड़ाव पर जब रिश्ते में लड़ाई-झगड़े की गैरमौजूदगी को ही प्यार मान लेना सहज था. दो-एक बार मां के सामने उनकी
खूब तारीफ की. बताने में शायद अपने घर में होती रहने वाली कहासुनी को लेकर
सांकेतिक उपालंभ भी रहा हो. मां हंसने लगीं, “पति-पत्नी में लड़ाइयां ना हों तो सचमुच फिक्र की
बात है. देखना कुछ गड़बड़ होगी”
मुझे उस वक्त मां का जवाब बिल्कुल पसंद नहीं आया.
बाद में पता चला कि कुछ साल पहले इन दोनों के बीच घर छोड़ने, तलाक की नौबत से
लेकर आत्महत्या तक की कोशिश हो चुकी है. अब बच्चों की खातिर साथ हैं लेकिन पास फिर
भी नहीं. तकरार नहीं क्योंकि प्यार को वापस पाने के हर रास्ते पर दीवार खुद से
चुनवा रखी है.
प्यार के पक्ष में, प्यार को ज़िंदा रखने की
दुहाई देते हुए, शादी को नकारना लेटेस्ट फैशन है और आउट ऑफ फैशन भला कौन कहलाना
चाहेगा. ऐसी परिस्थिति में दूसरा पक्ष रखने वालों को अंग्रेज़ी में ‘डेविल्स एडवोकेट’
कहते हैं शब्दकोश
उसका हिंदी अनुवाद 'छिद्रान्वेषी' बताता है...पता नहीं कितना तर्कसंगत है,
ख़ैर वही सही.
“तुम्हारे पापा ये, इतने ज़िद्दी, कभी मेरी कोई बात
नहीं सुनी, सारी ज़िंदगी मुझे इतनी तकलीफ दी, मैं ही हूं जो
निभा रही हूं...” जैसे
जुमलों का रियाज़ सुबह शाम करने वाली मांओं के सामने अपने मुंह से पापा की एक
शिकायत कर दो फिर देखो तमाशा. पहले आपकी सारी हवा निकाल कर आपकी हेकड़ी गुल करेंगी
उसके बाद पापा की तारीफों में पूरा दिन निकाल देंगी. क्योंकि जब हम किसी को सचमुच प्यार
करते हैं तो उससे जुड़ा हर अधिकार अपने पास रख लेना चाहते हैं, उसकी बुराई का भी,
उससे झगड़ने का भी.
शादी है ऋतुओं का चक्र, कतार बांधे कई मौसमों की आवाजाही. प्यार उन कई मौसमों में से एक.
फूल सबको सुंदर लगते हैं, फूलों के बिना पौधा भले ही सूना लगे लेकिन
पौधे का अस्तित्व तब भी बना रहता है. जब तक उसका एक पत्ता भी हरा रहता है, जब तक उसके तने में
हल्का सा स्पंदन भी बचा है, फूल के फिर से खिल पाने की उम्मीद कायम रहती है. बिना
फूल के पौधे को भी खाद पानी की ज़रूरत होती है.
पहली पारी के फूल झड़ जाने के बाद ही पौधे के
खत्म होने का मर्सिया पढ़ने वाले लोग वही होते हैं जिन्हें शादी के बाद प्यार
ख़त्म होता जान पड़ता है, जिन्हें हर सुबह, हर शाम प्यार के होते रहने का सबूत चाहिए
होता है. ऐसे लोग फूल देखकर खुश हो सकते हैं, उन्हें निहारते रह सकते हैं, उनके ऊपर कविताएं भी
कर सकते हैं लेकिन फूल उगा नहीं सकते. उगा पाते तो समझते फूलों के झरने की वजहें
मौसम से इतर भी हुआ करती हैं, पानी की कमी से ही नहीं, कभी-कभी पानी के आधिक्य से भी झरते हैं
फूल. ये भी समझते कि फूल उगाने के क्रम में मिट्टी से हाथों को सानना भी होता है, इतनी मशक्कत
के बाद भी फूल ना आए तो मौसमों की
आवाजाही के बीच पौधा नहीं उखाड़ा जाता. जिनको केवल प्यार चाहिए, उसके साथ जुड़ी ज़िम्मेदारियां नहीं,
जिन्हें चढ़ते सूरज
की लालिमा से प्यार है, उसके डूबने के बाद नए दिन के इंतज़ार पर एतराज़, जिन्हें
बचपन को छोड़े बिना ही बड़ा होने की ज़िद है शादी उनके लिए सही नहीं.
मुसीबत ये कि
हममें से ज़्यादातर जिसे ‘हैप्पी एंडिंग’ मान लेते हैं वो दरअसल ‘जस्ट द बिगनिंग’ होती है. प्यार की
परीक्षाएं शादी के मंडप पर खत्म नहीं नए सिरे से शुरू होती हैं. सुबह के अलार्म,
काम की डेडलाइन, नटिनी की रस्सी से तने
बजट से संतुलन, बाज़ारों, अस्पतालों, स्कूलों की दौड़ाभागी जैसी अनगिनत
अपेक्षाओं के बीच प्यार को बचा ले जाना किंवदंती बन चुकी किताबी प्रेम कहानियों से कहीं
ज़्यादा दुरूह है.
सारी ज़िम्मेदारियां निभा चुकने के बाद साथ का निचुड़ा
सा जो अवशेष बचा रह जाता है उसमें से भी जो प्यार को ढूंढ निकाला तो समझना रब को
पा लिया.
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