Sunday, December 18, 2016

बेतरतीबी अच्छी है




रश्क करने लायक करियर, सजा संवरा घर, सलीकेदार बच्चे, चमचमाती रसोई के बाद भी बनी-ठनी हंसती मुस्कुराती गृहस्वामिनी को देखकर अच्छी औरतों को या तो ईर्ष्या होनी चाहिए या ये सारे हुनर सीखने की ललक. फिर जाने क्यों अब थोड़ी बेचैनी सी होती है, थोड़ी असहजता. जाने क्यों मन करता है उसे बाहों में भर कर कह दूं, सुनो अब और जब्त मत करो, क्योंकि कोई और कभी नहीं पूछेगा तुमसे कि ये सब करते वक्त तुम कैसे एक-एक कतरा अंदर से खाली हुई जाती होगी.

जब तक ढोती जाओगी असंख्य उम्मीदें, कोई नहीं आएगा तुम्हें बताने कि हर सामान से हर रोज़ धूल की परत उतारी जाए ये ज़रूरी नहीं, मन पर बेजारी की धूल नहीं जमनी चाहिए. रिश्तों के हर चनकते जोड़ के लिए नहीं हो तुम फेवीकोल, कुछ नहीं चल सकने वाली मजबूरियों का टूट कर बिखर जाना ही बेहतर.



सुनो ना, किसी रोज़ सारे नियम तोड़ कर भी देख लो. धूल की परतों को मिटाने की जगह उनपर उंगलियों के पोरों से लिख दो बार-बार अपना नाम और अपनी तमाम अधूरी ख्वाहिशें. कुछ रोज़ ऐसे भी आते हैं जब दिल में कुछ भी रखना गुनाह हो जाता है.

चलो आज दफ्तर से लौट कर पर्स सोफे पर फेकें और जूते कालीन पर ही छोड़ दें, सीधे रसोई में जाने के बजाए नंगे पैर दौड़ जाएं फूलों की क्यारी के पास. चलो ना नहीं पलटते आज बच्चों के होमवर्क के पन्ने, देखें तो बिना तैयारी परीक्षा देने पर क्या कर आते हैं वो.

छोड़ो आज चाय नहीं ढलती शाम की हवा की चुस्कियां लेते हैं, डिनर में कभी-कभी मैगी खाना भी अच्छा होता है मेरी जान. गोल रोटियां बेलने से बचा आज का वक्त चलो बच्चों को दे दो, उन्हें सुनाओ अपने बचपन की शैतानियां और देखो हैरत से कैसे गोल हो जाती हैं उनकी आंखें. उन्हें बताओ नहीं बनाना उन्हें परफेक्ट जो उनकी मां भी नहीं थी. परफेक्ट तो बोरिंग होता है बहुत.

पड़े रहने तो अपने दिन के कपड़ों को तंबू की शक्ल में ज़मीन पर. फोन की कर दो छुट्टी, साथ में बच्चों के होमवर्क और कामवाली की भी. कुछ हिसाब भी है कि अंदर के बही-खाते कितने सालों से अधूरे पड़े हैं, उन पलटने का वक्त नहीं मिला होगा तुम्हें, छोड़ो आज उस तौलिये को लटका रहने दो कुर्सी पर, कुशन थोड़े ग़लत कोण पर ही सही, आज के धुले कपड़े कल भी तहाए जा सकते हैं.

चलो आज पुरानी एल्बम खोल लेते हैं,  किसी उचाट दोपहर घर के काम ढूंढ कर निकलाने के बजाए चाय की चुस्कियों से साथ बेतकल्लुफ यादों की पुरानी गलियों की सैर कर आएं. पुराने खतों का बंडल भी वहीं है जहां हाथ बार-बार पहुंच कर सहम जाते हैं जाने क्यों, आज ज़रा ज़ोर लगाकर छू लेते हैं उंगलियों से उन पन्नों को. बहुत-बहुत ज़रूरी है आज ही ये सब करना. मां की लिखाई कब से नहीं देखी याद भी है? उन पन्नों में कहीं दादाजी की लिखावट भी हैं जिनकी शक्ल अब भूलती जा रही है, वो दोस्त भी जिसकी शादी में बस इसलिए नहीं जा पाई थी कि पापा और भाई दोनों शहर से बाहर थे. वो वाली सहेली भी जिसकी मोटी-मोटी दो चोटियां ईर्ष्या से भर देती थीं, जो आज मेहंदी और डाई से रंग-बिरंगा सिर लिए अश्वपुच्छ से गुच्छों पर इतनी ज़ोर से हंसा करती है कि उसकी आंखें भर आती हैं. वो सारी पहचान जो फोन बुक के किसी ना किसी नाम से जुड़ी है हमारे लिए, चलो उनसे जुड़ी लिखावट को जी लें आज ज़रा.  

अपनों के बीच अकेला होते जाने से बहुत बेहतर है कभी अकेले बैठकर खुद को पा लेना.  

बिस्तर को यूं ही रहने दो अस्त-व्यस्त, चलो आज पुराने रिश्तों की सिलवटें मिटा लें.

घर के हर बिखरे कोने में छोड़ दें अपने जीते होने की निशानी. चलो खुद को थोड़ा बचाए रखने की खातिर एक दिन के लिए सही, बेतरतीब हो जाएं.


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