Saturday, August 13, 2016

पिता


इंटरनेट, मोबाइल युग से बहुत पहले की एक शाम।

घर में हाहाकार मचा था। मां, बहनों का रो-रोकर बुरा हाल। शाम को ट्यूशन के लिए गया बेटा अभी तक घर नहीं लौटा। आधी रात होने को थी, पूरा पड़ोस घर में इकठ्ठा था। इस घर में तो क्या आस-पास के चार-आठ घरों में भी बना खाना चूल्हे पर रखा ठंढा हो रहा था। बदहवास पिता कभी बेटे के दोस्तों और दोस्तों के दोस्तों को घर तक दौड़ लगा रहे थे कभी घर की महिलाओं को ढाढस बंधा रहे थे।  दिमाग ने काम करना कब का बंद कर दिया था। अब इतनी हैसियत तो थी नहीं कि पैसे के लालच में बेटे को कोई उठाकर ले जाए। छोटी तनख्वाह वाली मामूली नौकरी में उन्हें दफ्तर के बाहर बहुत कम लोग जानते थे। पड़ोसियों को छोड़ दें तो शहर क्या मुहल्ले के भी चार-पांच घरों में बमुश्किल आना जाना था। फिर वो कोई छोटा बच्चा भी तो नहीं था जो रास्ता भूल जाए, 15-16 साल का जवान लड़का। पढ़ाई के अलावा घर-बाहर के कई काम संभालने वाला लड़का।

पड़ोसी बार-बार पुलिस में जाने का दबाव बना रहे थे। लेकिन घर में बड़ी होती बेटियां हों, तो पुलिस के पास जाने से पहले भी दस बार सोचता है शरीफ आदमी। मन भर के पैरों से दरवाज़े के बाहर निकले ही थे कि बेटे का खास दोस्त सामने दिखा। उसे कुछ बात करनी थी। शाम को उसने ही पूछे जाने पर मासूम इंकार में सिर हिलाया था। कोने में ले जाकर उससे बात की और उल्टे पैर घर में घुसे।


जाकर देखो कितने पैसे गायब हुए हैं?
पत्नी के सामने खड़े होकर उन्होंने शांत आवाज़ में पूछा। पड़ोसन की बाहों में सिसकियां लेती मां एक बार सकपकाई फिर चाभी लेकर आलमारी की ओर गई।
दो हज़ार..पर्स टटोलकर मां ने जवाब दिया।
पिता का चेहरा अब एकदम सपाट था, बस आखों से अंगारे निकल रहे थे। हाथ जोड़कर उन्होने पड़ोसियों को घर जाने को कहा। फिर रसोई से खाना निकालकर खाया और सोने चले गए।
सुबह तक सबको पता चल गया था कि बेटा कई सालों से मन हीरो बनने का सपना साकार करने बंबई चला गया है।
अगली सुबह से पिता अपनी दिनचर्या पर वापस आ गए थे। साथ चलकर बंबई में बेटे को ढूंढने की दोस्तों की पेशकश उन्होने ठुकरा दी थी, ना उस ओर के रिश्तेदारों को फोन कर बताने का उपक्रम किया गया। घर के बाकी हिस्सों पर बदस्तूर मातम छाया रहा। बहुत मनाने पर मां दो चार कौर खाना खाती, ज़्यादातर रोती रहती, आखों को नीचे कालिख की लकीर हर दिन गहरी होती जा रही थी। बहनें उदास रहतीं, कई-कई दिन स्कूल नहीं जातीं।

दो हफ्ते बाद मुहल्ले में फिर सरगर्मी थी। कुछ रातें बंबई के प्लेटफार्म और कुछ सपनों की नगरी की सड़कों पर बिताकर पैसे खत्म होते-होते घर के चिराग वापस घर पहुंच चुके थे। मां ने नए स्वर में रो-रोकर गले लगाया, मंदिर में दिया जलाया, पड़ोस के बच्चे को दौड़ाकर जलेबी मंगवाई, फिर भी मन नहीं भरा तो हलवे की कढ़ाई भी चढ़ा दी।

पिता के दफ्तर भी खबर पहुंच चुकी थी लेकिन फिर भी वो अपने समय से ही घर पहुंचे। तब तक बेटियां हलवे की कटोरी पूरी और जलेबी के साथ कई घरों में पहुंचा चुकी थीं और कई राउंड कहानियां सुनाकर, खा-पीकर बेटे को घर का नर्म बिस्तर नसीब हो चुका था। खुशी से उफनती मां और बेटियों ने पिता के सामने भी व्यंजनों से भरा प्लेट परोसा। लेकिन वो तो दफ्तर के कपड़े बदलकर, थाली की ओर देखे बिना घर से बाहर निकल चुके थे। बेटे से मिलना तो दूर उसकी ओर देखने की ज़रूरत भी नहीं समझी। 


पिता ने उसके बाद हफ्ते भर तक घर में खाना नहीं खाया।  

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