पहली
कहानी: हमारी बेटी (कही-सुनी)
वॉइस ऑफ अमेरिका के दिनों में एक वरिष्ठ भारतीय सहकर्मी एक दिन तय समय
से कुछ पहले, थोड़ा हड़बड़ाते हुए दफ्तर से बाहर निकलीं। उन्हें मंदिर होते हुए घर
जाना था। पता चला कि अगले दिन काम के सिलसिले में उनकी बेटी अपने कुछ सहकर्मियों
के साथ पाकिस्तान जा रही थी। अमेरिका में पली और अमेरिकन से ब्याही उनकी बिटिया
जिस समूह के साथ पाकिस्तान के दौरे पर जा रही थी उसमें वो अकेली ही भारतीय मूल की
थी। वापस आकर उसने बताया कि पाकिस्तान के जिस भी शहर में जाना हुआ, मिलने वालों ने
देखते ही कहा, तुम्हारी टीम के बाकी लोग होंगे विदेशी, तुम तो हमारी अपनी हो।
बिचारी ने कई बार अपने सरनेम का हवाला देते हुए कहना चाहा कि वो अमेरिकन ही है, तो
जवाब मिला, शादी की है ना अमेरिकी से तुमने, बेटी तो हमारी ही हो।
दूसरी कहानी: कराची की सुमैरा (देखी-सुनी)
सुमैरा, मेरी ब्यूटिशियन। वॉशिंगटन में दफ्तर के बाहर सुमैरा, अकेली ऐसी
दोस्त थी जिससे खुलकर बातचीत होती थी, सुख-दुख साझा किए जाते थे, रेसिपी शेयर की जाती थी,
वज़न कम करने के राज़ सुने जाते थे और बिना वजह के ठहाके भी लगाए जा सकते थे। अभिषेक
बच्चन की ज़बरदस्त फैन और इस नाते ऐश्वर्या से बाकायदा सौतिया डाह रखने वाली। जो
तीन साल से कराची में रह रहे अपने पति को अमेरिकी वीज़ा मिलने का इंतज़ार कर रही
थी ताकि 'द ग्रेट अमेरिकन ड्रीम' दोनों एक साथ साकार कर सकें। और हां, उम्र होने के
पहले परिवार भी शुरू कर सकें।
उस बार तो उसे पूरी उम्मीद थी इसलिए ब्रांडेड मर्दाने कपड़ों
से उसने पहले ही पूरी आलमारी भर ली थी। उसकी बेचैन दुआओं में मैंने भी चुपके से अपनी
प्रार्थनाएं शामिल कर दी थीं। लेकिन वीज़ा फिर रिजेक्ट हो गया। इस बार उसकी आसुंओं
में मेरी उदास सांत्वनाएं शामिल हो गईं।
उन्हीं दिनों मुशर्रफ की आत्मकथा एक अमेरिकी प्रकाशक ने छापी
थी जिसकी कवरेज के लिए दुनिया भर की मीडिया में होड़ मची थी। कुछ समय बाद
पाकिस्तान में चुनाव की सरगर्मियां बढ़ीं। उन्हीं दिनों बेनज़ीर भुट्टो भी
वॉशिंगटन में थीं। उनका जब हमारे दफ्तर आना हुआ तो उर्दू सर्विस वालों के
साथ हम हिंदी वालों ने भी उनका इंटरव्यू किया। अगली शाम सुमैरा से मिलना हुआ, इन सब बातों का ज़िक्र हुआ तो वो फिर से मायूस हो गई। हम दोनों ने हुक्मरानों को साथ कोसना शुरू किया जिन्हें कहीं का वीज़ा
मिलने में कोई तकलीफ नहीं होती।
तीसरी कहानी: मुक्ति मार्ग (प्रेमचंद की लिखी)
झींगुर खाता-पीता किसान था और बुद्धू संपन्न गड़ेरिया। झींगुर के ऊख
के खड़े खेत को बुद्धू की भेड़ों ने थोड़ा नुकसान पहुंचाया, गुस्से में झींगुर ने भेड़ों
को डंडे से मार-मारकर घायल कर दिया। कुछ समय बाद जाने कैसे झींगुर की खड़ी फसल में
आग लग गई, आस-पास के कई खेत भी जल कर राख हो गए। उसके थोड़े समय बाद जाने कैसे
बुद्धू की बांधी बछिया पगहिया में ही मर गई। उसके सिर गौहत्या का पाप चढ़ गया
जिसके प्रायश्चित में सारी भेड़ें बिक गईं।
अगली फसल के समय दोनों अपना सबकुछ गंवाकर शहर में ईंट गारा ढोने वाले
मज़दूर हो चुके थे। नई जगह पर केवल एक-दूसरे से परिचित। कहानी का आखिरी हिस्सा कुछ
यूं है,
राम-राम हुई। दिन भर चुपचाप दोनों अपना काम करते रहे। संध्या समय
झींगुर ने पूछा- कुछ बनाओगे ना।
बुद्धू- बनाऊंगा नहीं तो खाऊंगा क्या?
झींगुर- मैं तो एक जून चबेना कर लेता हूं, एक जून सत्तू पर काट देता
हूं। कौन झंझट करे।
बुद्धू- इधर-उधर लकड़ियां पड़ी हुई हैं, बटोर लाओ। आटा मैं घर से लेता
आया हूं। इसी पत्थर की चट्टान पर आटा गूंधे लेता हूं।
झींगुर- तवा भी तो नहीं है?
बुद्धू- तवे बहुत हैं। यह गारे का तसला मांजे लेता हूं।
आग लगी, आटा गूंधा गया। झीगुंर ने कच्ची-कच्ची रोटियां बनायीं। बुद्धू
पानी लाया। दोनों ने लाल मिर्च और नमक से रोटियां खायीं। फिर चिलम भरी गयी। दोनों
आदमी पत्थर की सिलों पर लेटे और चिलम पीने लगे।
बुद्धू ने कहा- तुम्हारी ऊख में आग मैंने लगायी थी।
झींगुर ने विनोद के भाव से कहा- जानता हूं।
थोड़ी देर बाद झींगुर बोला- बछिया मैंने ही बांधी थी और हरिहर ने उसे
कुछ खिला दिया था।
बुद्धू ने भी वैसे ही भाव से कहा-जानता हूं।
फिर दोनों सो गए।
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