Sunday, October 16, 2016

अवसाद की एक शाम






एक लेख भेजने की डेडलाइन पार हो चुकी है और मेरी उंगलियां ढीठ बनी कीबोर्ड पर एक ही जगह अड़ी हुई हैं। मैं स्क्रीन पर नज़र जमाए शून्य में निहार रही हूं। इसके एक बटन पर क्लिक करते ही मुझे दुनिया संतरे की तरह कई फांकों में बंटी दिखेगी। मेरे सामने किसी एक के सहारे लग जाने की चुनौती है, निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता क्योंकि वो आउट ऑफ फैशन है आजकल। हर टुकड़े के सही ग़लत दोनों पक्षों पर विचार रखने वालों की गत तो धोबी के कुत्ते समान। राष्ट्रकवि आज होते तो शायद उन्माद के बीच तटस्थता की ज़रूरत पर ही लिख डालते।

जब तक मैं अपने शब्द टटोल रही हूं वो मुस्कुराती हुई अपना काम कर रही है, बीच-बीच में कनखियों से मेरी तरफ देखती भी जा रही है। अभी पिछले महीने पहले ही तो इसने बेमन से बकरीद मनाई थी क्योंकि त्यौहार से दो-चार दिन पहले बेटी को गांव वापस भेजना पड़ गया था।

बड़ी खुश हो, क्या बात है, मैंने अपने विषाद परे खिसकाकर पूछ ही लिया।

हम लोग गांव जाएगा दीदी, पक्का हो गया

कब?’, अब बारी मेरे तनाव में आने की थी

वो अभी थोड़े ही पता, अभी तो बस गांव जाने का पक्का हुआ है, फिर पैसा जोड़ेगा, उसका बाद तीन महीना पहले टिकट भी तो कराना होगा।

अच्छा, मैंने सांसें संयत कीं, फिर उसकी नादानी पर मुस्कुराने की कोशिश भी। यहां पन्द्रह दिन के भीतर लोग सीना फुलाकर, सीमा पार आक्रमण कर, दुश्मन की छाती पर पांव धर, उनकी राजधानी में झंडा फहरा घर लौट आते हैं, वो भी अपने टीवी के सामने से हिले बिना, और ये नासमझ तीन महीने बाद तय होने वाली तारीख पर लिए फैसले पर ही इतनी खुश हो रही है।

फिर मुझे हंसी सूझी,
सुनो तुम, आईसिस जानती हो?’

कल फिनाइल ले आना दीदी और हार्पिक भी, खत्म हो रहा है।

तुम्हारा मन नहीं करता हज करने का

पैसा बचाएगा दीदी तो गांव जाएगा बच्चा लोग के पास, बेटी का शादी करेगा, घर पक्का करेगा।

बिटिया की शादी, ये तो मेरा फेवरिट टॉपिक है, मैंने उसे लपक लिया।

कितनी बड़ी है बेटी?”

सत्रह, अठरह की होगी।

अरे इतनी जल्दी क्यों कर रही हो शादी?”

जल्दी नहीं दीदी, स्कूल तो पढ़ लिया।

कहां तक पढ़ी है?”

स्कूल पढ़ी है दीदी, जहां तक क्लास होता है।

तो और पढ़ने दो ना, कॉलेज जाएगी तब तो अच्छी नौकरी मिलेगी।

अच्छा, एक महीना के लिए गांव जाएगा, लड़का नहीं मिला तो अगले साल करेगा शादी,“ मुझे थोड़ी देर घूरते रहने के बाद उसने बीच का रास्ता निकाल कर पीछा छुड़ाया।

ज़िंदगी से कितने कम सवाल है इसके पास ये सोचकर रश्क होता है इससे। और जो सवाल हैं उसके उतने ही आसान जवाब भी हैं इसके पास। सब कुछ जान लेने की मारामारी में ज़िंदगी बिता देने वाला इंसान असल में कितना जान पाता है? थोड़े समय पहले इसने अपना घर अपग्रेड किया है। अब 2000 रुपए किराए वाली झुग्गी से 3500 रुपए किराए वाले कमरे में रहने  आ गई है। ये खुश है कि अब किसी एक शाम वापस लौटने पर इसे अपना घर टूटा हुआ और सामान सड़क पर नहीं मिलेगा। महीने में डेढ़ हज़ार ज़्यादा कमाने के लिए ये रोज़ एक घंटा ज़्यादा काम करती है।

इसकी दुनिया इतर, उसके फलसफे इतर।

रोज़े रखती हो? नमाज़?”

जब भी काम से समय मिलता है तब।

नारद और भगवान विष्णु से जुड़ी एक कहानी याद आती है।  और याद आती है वो शाम, जब ईद की सिवईयों और चिकन की गर्मागर्म कटोरियां इसकी रसोई से निकलकर सबसे पहले मेरे घर पहुंची थी।

सुनो, बच्चे तुम्हारे गांव में रहते हैं, मन कैसे लगता है?”

पड़ोसी का बच्चा छोटा है ना, ज़्यादा मेरे ही घर में रहता है।

पड़ोसी तुम्हारे जात-धर्म का है?”

उसने मेरी ओर आश्चर्य से देखाये सब देस में होता है दीदी, टोला मुहल्ला अलग-अलग, यहां विदेस में कैसा लड़ाई, सब अपना है।

इसकी आश्वस्ति से ईर्ष्या होती है कभी-कभी। एक सरल रेखा में इसकी ज़िंदगी चली जा रही है। इसके उपर किसी कतार में खड़े होने की बाध्यता नहीं है, इसे खुद को कभी इससे इतर, उसके जैसा नहीं साबित करना।

इसे सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट का मतलब नहीं पता, इसने रिलेटिविटी के सिद्धांत नहीं सीखे। इसके लिए जो है सब प्रत्यक्ष, स्थूल। अनजाने ख़तरों का डर इसे दिखाकर उन्माद का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। तभी तो जाने क्यों कभी-कभी इस पर दया करते-करते मुझे खुद पर तरस आने लगता है।

एक दिन ये ऐसे ही चली जाएगी, अपने हिस्से की ज़िम्मेदारियां निभाए। अपने पीछे बिना कोई निशान छोड़े। इसके जाने के बाद इसका छोड़ा कुछ भी बाकी नहीं रहेगा, इसके जाने के बाद कोई भी इसके नाम का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा।

मेरी उंगलियां अभी भी उसी जगह पर हैं, उसका काम लेकिन निबट चुका है अबतक। साड़ी के पल्लू से हाथ पोंछती मेरे सामने खड़ी हो गई है।

एक बात बताओ दीदी, ये कम्प्यूटर कितना में आएगा अगर पुराना लेना हो तो?”

क्यों?’

इस बार पैसा बचाकर बच्चा के लिए खरीदेगा, वो इससे पढ़ेगा ना।


सत्यानाश’

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