Saturday, July 2, 2016

सब ठीक है, फिर भी...



ट्रेन से सफर के दौरान इस बार हर ओर अद्भुत नज़ारे दिखे। स्टेशन पर लोग डस्टबिन ढूंढ-ढूंढकर अपना कचरा फेंक रहे थे। कहीं थोड़ी गंदगी पड़ी रह गयी तो तुरंत सफाई वाले को बुलाकर साफ कराया गया। उसके उपर किसी ने भी अपना कचरा ये सोच कर नहीं डाला कि जाने दो पहले से तो है ही एक हमारे कचरे से क्या फर्क पड़ेगा। एक जगह लाइन लगी थी, पास जाकर देखा तो पता चला थूकने वालों की है। पान, तम्बाकू, बलगम सब मुंह में दबाए लोग-बाग पंक्तिबद्ध होकर कचरे के डब्बे में थूक रहे थे, ताकि प्लेटफॉर्म पर गंदगी ना फैले। किसी के बच्चे को जब आई तो उसकी पैंट नीचे कर उसे पटरी की तरफ घुमाकर खड़ा करने के बजाय कर्तव्यनिष्ठ पिता भागा गोद में उठाकर टॉयलेट की ओर। इसके बावजूद हर जगह गंदगी फैली थी। अजब निकम्मी सरकार है इस देश की। वैसे पिछली सरकारें भी कम निकम्मी नहीं थी। अब इसमें बिचारी जनता का क्या दोष?

दूसरे छोर पर शोर-शराबा हो रहा था, लोगों ने तुरंत अपना ध्यान उस ओर केन्द्रित किया। दो-चार हृष्ट-पुष्ट जवान किसी से मार-पीट में तल्लीन थे। सबने तुरंत ही बीच-बचाव किया, उस बिचारे अकेले को बिना किसी गलती के पिटने से बचा लिया, और तो और कानून हाथ में लेने वालों की लानत-मलामत भी की। इतनी की वो बिचारे शर्मिंदा होकर चलते बने। किसी ने भी नहीं कहा कि जाने दो हमें क्या। वो खतरनाक किस्म के लोग थे। उनमें से किसी के पास कोई घातक हथियार भी हो सकता था, ज़्यादा उम्मीद थी कि वो किसी नेता, अभिनेता, अफसर के रिश्तेदार या पहचान वाले हों। तो भी, ये क्या बात हुई, किसी भी सभ्य समाज के वासी इस तरह सरेआम गलत किया जाना कैसे बर्दाश्त कर सकते थे।  
दरअसल इस आंतरिक क्रांति की शुरूआत थोड़े समय पहले ही हो गई थी। कुछ साल पहले देश में चुनाव हुए तो सबके अंतर्मन से झकझोरने वाली एक ही आवाज़ आई, इस बार ना जाति ना पार्टी, बस पात्रता को जिताने की कोशिश की जाएगी। आखिर लोकतंत्र में आंखें बंद कर वोट और गाली देने के अलावा भी तो ज़िम्मेदारी बनती है ना जनता की। ना चाचा, ना भतीजा, ना ताऊ ना जीजा, बस काम देखा गया। किसी का वोट उसको नहीं पड़ा जो पिछले दरवाज़े से सरकारी वाली नौकरी दिलवा दे, वोट उसको मिले जो टूटी सड़कें ठीक करवाएगा। किसी ने उम्मीदवार का पूरा नाम जानने की कोशिश भी नहीं की। ईश्वर तो मन में बसते हैं, धर्म अफीम है और कर्तव्यपरायण जनता नशे को पाप मानती है। सबने मिलकर केवल अच्छी छवि वाले उम्मीदवारों को ही वोट दिया। आपराधिक रिकॉर्ड वालों की तो ख़ैर ज़मानत ही ज़ब्त हो गई, भ्रष्ट छवि वाले भी पानी नहीं मांग पाए। चुन-चुनकर केवल कर्मठ और ईमानदार जन-प्रतिनिधि संसद भेजे गए। फिर हर तिमाही देश के अलग-अलग हिस्से में होने वाले चुनावों में भी जनता ने अपना पर्फामेंस दोहरा दिया।
अब सब सांसद, विधायक वगैरा को पता होना चाहिए है उन्हें काम करने के लिए भेजा गया है, किसी जाति-वाति वालों को खुश करने के लिए नहीं, सो सिर झुकाकर सब काम किए जाएं अपना।
फिर भी पता नहीं क्यों, सरकार निकम्मी है। पिछली सरकारें भी निकम्मी थीं।
शानदार, जबरजस्त, ज़िंदाबाद। टिकट खरीदा, पॉपकॉर्न खाया और फिल्म देखकर आ गए सब के सब। खूब तालियां बजाई, गर्मी से हथेलियां लाल हो गईं। फिर सबने एक-दूसरे को संशय से देखा, मन ही मन गालियां दीं और एक-दूसरे के भरोसे सो गए। एक और शानदार, जबरजस्त....

बचपन की कहानियां भी ना, कमबख्त याद से उतरतीं ही नहीं, आज एक फिर गोल-गोल घूम रही है दिमाग में, नींद में पीछा नहीं छोड़ रही। शिकारी आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, भूल से उसमें फंसना नहीं। शिकारी आएगा, जाल...सब गोल-गोल घूम रहा है। सफर की थकान जो ना करवाए। 

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