Sunday, August 28, 2016

तीन कहानियां


पहली कहानी: हमारी बेटी (कही-सुनी)

वॉइस ऑफ अमेरिका के दिनों में एक वरिष्ठ भारतीय सहकर्मी एक दिन तय समय से कुछ पहले, थोड़ा हड़बड़ाते हुए दफ्तर से बाहर निकलीं। उन्हें मंदिर होते हुए घर जाना था। पता चला कि अगले दिन काम के सिलसिले में उनकी बेटी अपने कुछ सहकर्मियों के साथ पाकिस्तान जा रही थी। अमेरिका में पली और अमेरिकन से ब्याही उनकी बिटिया जिस समूह के साथ पाकिस्तान के दौरे पर जा रही थी उसमें वो अकेली ही भारतीय मूल की थी। वापस आकर उसने बताया कि पाकिस्तान के जिस भी शहर में जाना हुआ, मिलने वालों ने देखते ही कहा, तुम्हारी टीम के बाकी लोग होंगे विदेशी, तुम तो हमारी अपनी हो। बिचारी ने कई बार अपने सरनेम का हवाला देते हुए कहना चाहा कि वो अमेरिकन ही है, तो जवाब मिला, शादी की है ना अमेरिकी से तुमने, बेटी तो हमारी ही हो।

Saturday, August 20, 2016

पिता..बीस साल बाद


मोबाइल और इंटरनेट दोनों का युग आ चुका था लेकिन पिता अभी भी खबरें सुबह के अखबार में पढ़ते और शाम को दूरदर्शन का सरकारी बुलेटिन देखते। मोबाइल का इस्तेमाल बस दूरभाष के लिए होता, वो भी भरसक एक जगह पर बैठे-बैठे। 

बेटा अभी भी पिता से आंखों में आंखें डालकर बात करने में हिचकता था। हालांकि उसके पास अब एक अदद नौकरी, छोटी सी गाड़ी के अलावा बड़े शहर के छोटे मुहल्ले में डेढ़ कमरे का एक घर भी था। हालांकि बेटा जो काम करता था वो पिता की समझ से बिल्कुल परे था फिर भी उन्हें इस बात का गर्व था कि इतनी सी उम्र में उसने घर भी खरीद लिया और गाड़ी भी जबकि ग्रैचुय्टी के पैसों से घर बनाने के बाद पिता अपने दो पहियों के खटारा स्कूटर में दो और पहिए जोड़ पाने का सपना भी नहीं देख सकते थे।

Saturday, August 13, 2016

पिता


इंटरनेट, मोबाइल युग से बहुत पहले की एक शाम।

घर में हाहाकार मचा था। मां, बहनों का रो-रोकर बुरा हाल। शाम को ट्यूशन के लिए गया बेटा अभी तक घर नहीं लौटा। आधी रात होने को थी, पूरा पड़ोस घर में इकठ्ठा था। इस घर में तो क्या आस-पास के चार-आठ घरों में भी बना खाना चूल्हे पर रखा ठंढा हो रहा था। बदहवास पिता कभी बेटे के दोस्तों और दोस्तों के दोस्तों को घर तक दौड़ लगा रहे थे कभी घर की महिलाओं को ढाढस बंधा रहे थे।  दिमाग ने काम करना कब का बंद कर दिया था। अब इतनी हैसियत तो थी नहीं कि पैसे के लालच में बेटे को कोई उठाकर ले जाए। छोटी तनख्वाह वाली मामूली नौकरी में उन्हें दफ्तर के बाहर बहुत कम लोग जानते थे। पड़ोसियों को छोड़ दें तो शहर क्या मुहल्ले के भी चार-पांच घरों में बमुश्किल आना जाना था। फिर वो कोई छोटा बच्चा भी तो नहीं था जो रास्ता भूल जाए, 15-16 साल का जवान लड़का। पढ़ाई के अलावा घर-बाहर के कई काम संभालने वाला लड़का।

पड़ोसी बार-बार पुलिस में जाने का दबाव बना रहे थे। लेकिन घर में बड़ी होती बेटियां हों, तो पुलिस के पास जाने से पहले भी दस बार सोचता है शरीफ आदमी। मन भर के पैरों से दरवाज़े के बाहर निकले ही थे कि बेटे का खास दोस्त सामने दिखा। उसे कुछ बात करनी थी। शाम को उसने ही पूछे जाने पर मासूम इंकार में सिर हिलाया था। कोने में ले जाकर उससे बात की और उल्टे पैर घर में घुसे।

Sunday, August 7, 2016

छोटी-मोटी बातें


ये कहानी बहुत बचपन में पढ़ी थी।
अपने समय के एक बड़े चित्रकार ने एक सुंदर चित्र बनाया, दो बैलों की लड़ाई का चित्र। जिसने भी देखा वाह-वाह कह उठा। चित्रकार ने ऐसी जीवंत रेखाएं खीचीं थीं कि देखने वाले की आखों के सामने सायस ही दृश्य स्थापित हो जाता था। युद्धरत दोनों बैलों की मांसपेशियां खिचीं हुई थीं, शरीर के हर हिस्से में तनाव नज़र आता था। क्रोध और उत्तेजना में उनके फड़कते हुए रोंए तक महसूस किए जा सकते थे। नथुने फड़कते हुए थे, उनकी बोलती आखों से जैसे खून टपक रहा था। देखने वाला भी तारीफ किए बिना कैसे रह पाता। तारीफों से चित्रकार की छाती चौड़ी हो गई।