Wednesday, March 16, 2016

बड़की मां का फेसबुक एंकाउन्टर


"बड़की मां, ये देखिए छोटी भाभी कितनी प्यारी लग रही हैं” हाथों में लैपटॉप लिए ही दीवार फांद कर मैं बड़े पापा के बरामदे तक पहुंच गई। निशा भाभी ने आज ही अपनी प्रोफाइल पिक्चर बदली थी। समन्दर के किनारे धानी पीले रंग की नी लेंथ हॉल्टर नेक की ड्रैस में, एक ओर गर्दन झुकाकर, ज़रा तिरछी खड़ी निशा भाभी सचमुच जलपरी लग रही थीं। हवाई आईलैंड की फोटो थी शायद। वहीं तो जाने वाले थे भैया-भाभी जब मैं बंगलौर से छुट्टियों के लिए निकली थी।
“ई-मेल में भेजी है क्या”...बड़की मां ने बड़े ध्यान से फोटो को देख कर पूछा। समय के साथ अब वो भी बदलना सीख गईं थीं, या सीख रही थीं।
“अरे नहीं बड़ी मां फेसबुक पर डाली है, मने इंटरनेट पर।“
“अच्छा, तो अउर कौन-कौन देखा है इसको?”
“कोई भी बड़की मां, जो भी उनकी फ्रेंड लिस्ट में है, सब देख सकते हैं ना।“
“मने सब दोस्त-उस्त उसका?”
“अरे नहीं बड़की मां, बस नाम है फ्रेंड लिस्ट इसका, हो तो कोई भी सकता है ना इसमें। अब जैसे निशा भाभी की फ्रेंड लिस्ट में बड़े भैया, मंझले भैया, जीजू, कनाडा वाले मौसा-मौसी, मामा, सब लोग हैं। इसको सब देख सकते हैं।“
“अब देखिए, मैंने कमेंट बॉक्स में क्लिक करके उन्हें दिखाया, जीजू तो लिख भी दिए हैं- ‘Wow beautiful’
और छोटे मौसाजी, भाभी, सबने लाईक भी किया है।“ मैंने बकायदा दोनों हाथ फैला-फैलाकर उन्हें समझाना शुरु किया। मुझे कौन सा रोज़-रोज़ मौका मिलता है कम्प्यूटर इंजीनियरों से भरे इस परिवार में अपना आईटी ज्ञान बघारने का।
“तुम लोग भी पहनती हो क्या ई सब ड्रेस”
“यहां पहनेंगे तो मम्मी काट नहीं डालेंगी क्या? बैंगलोर में तो सब चलता है।“

और निशा भाभी हमारी आईडियल हैं..क्या ड्रेसिंग सेंस है उनकी और क्या कलेक्शन है उनके पास। बैंगलोर में कितनी लास्ट मिनट पार्टियों में उबारा है उन्होंने हमें। और हां, उन्हें भाभी कहलाना बिल्कुल पसंद नहीं है, ‘निशा बोलो ना यार..भाभी मेक्स मी फील ओल्ड’ और बैंगलोर में दोस्तों के सामने, मॉल में मैं निशा ही बुलाती हूं उन्हें

निशा भाभी की तारीफ में मैं लगातार बोलती जा सकती थी। और शायद बेवकूफ की तरह सब बोल भी देती अगर बड़ी मां के चेहरे पर किसी स्टेज की बैकलाइट की तरह रंगों का बदलना नहीं देखा होता। उनकी शक्ल बता रही थी कि एक बार फिर मुझसे बड़ी वाली ग़लती हो चुकी थी।

“मने ससुर, भैंसुर सब देख लिया इसको ऐसा अधकट्टी पहने। जब सबको देखाना ही है तो ईहां माथा पर ओढ़नी डालकर क्यों रहती है। हमसे तो कहे दोनों कि ऑफिस के काम से जाना है। और उहां ये सब हो रहा है, घूमने-फिरने का समय है सबके पास, लेकिन पावन-त्यौहार में नैहर ससुराल आने का टाईम नहीं है,” बड़ी मां के भुनभुनाने का सिलसिला शुरु हो चुका था।

ऑफिस ट्रिप बस भैया की ही थी, लेकिन भाभी साथ चली गई थी, ये बात बस मुझे ही पता थी। दिवाली, छठ में यहां आने के बजाय अमेरिका जाना वॉज़ नॉट अ बैड डील बाई एनी स्टैंडर्ड्स, कोई भी यही करता। शुक्र है ये बात मेरे मुंह से नहीं निकली।

फिर भी नहीं बताने वाली बात तो मैंने बता ही दी थी। हमेशा की तरह अति-उत्साह में एक बार फिर मैंने कुल्हाड़ी पर अपना पैर मार लिया था। अब मम्मी, दीदी, भैया-भाभी पता नहीं किस-किस की गालियां मुझे मिलने वाली थी। मम्मी ग़लत नहीं कहती हैं मेरे बारे में, ये आग लगाने की लुत्ती हमेशा साथ लेकर चलती है।

घबराहट में मैं अपने हाथों को देखने लगी। इस समय मैं बस यहां से गायब हो जाना चाहती थी।

“मिनी आई है क्या?” दोमंजिले से ये आवाज़ बड़े भैया की थी। इससे अच्छा मौका मेरे लिए क्या हो सकता था। मैं जान लेकर ऊपर भागी, बड़े भैया-भाभी के घर। डर के मारे अपना लैपटॉप उठाने की हिम्मत भी नहीं हुई। भैया-भाभी से एक घंटे तक गपियाने और पिया-पिहू के साथ ऊनो खेलने के बाद पीछे के रास्ते से नीचे उतरी तो बड़ी मां की बातें दिमाग से हवा हो चुकी थीं।

पूजा घर से बड़े पापा के पाठ की आवाज़ बरामदे तक आ रही थी। पंचाक्षर का पाठ कर रहे थे पापा,
“नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगंबराय तस्मे ना काराय नम: शिवाय: ।।
मंदाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय।
मंदारपुष्प बहुपुष्म सुपूजिताय तस्मै ‘म’ काराय नम: शिवाय।।
शिवाय गौरी वदनाब्जवृंद सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय
श्री नीलकंठाय वृषभद्धजाय तस्मै ‘शि’ काराय नम: शिवाय।।“

कुछ तो था बड़े पापा की गुरु गंभीर आवाज़ में, अजीब शांति मिलती थी उनके पाठ से। जब भी पापा पूजा वाले फेज़ में होते, पूजा घर के सामने बैठना बहुत भला सा लगता था मुझे। वैसे उनके मूड का कोई ठिकाना कहां होता था आजकल। कभी साकार, कभी निराकार, सगुण, निर्गुण जाने क्या-क्या, किस-किस के बीच डोलते रहते थे। कभी तो कई-कई महीने मंदिर का रुख भी नहीं करते, और जब मन करता अपने हाथों से एक हज़ार एक महादेव बना कर पूजा शुरु करते तो तीन-चार बजे तक खाना ही नहीं खाते। बड़ी मां कितना तो गुस्साती रहती थी।

बैंगलोर में जब भी कभी घर को महसूस करने के लिए आंखें बंद करती थी तीन चीज़ें हीं तो याद आती थी, पापा की किताबें, बड़ी मां के हाथ दाल वाले पिट्ठे और बड़े पापा के पूजा के अविरल तैरते श्लोक, खासकर शिव तांडव स्रोत।

मेरे क़दम अपने आप पूजाघर की ओर बढ़ गए, दरवाज़े की ओर पीठ किए पापा नंगे बदन पाठ में तल्लीन थे.  चौखट पर बैठी बड़ी मां लगातार बड़बड़ किए जा रही थी- “बुड़बक के मौगी, गांव के भौजाई बन के रह गए हम, अइसन सिद्धू होने का क्या फैदा, कि बेटा-पतोहु सबको छूट दे दें और अपनी कनिया को कोई पूछे ना पूछे फर्के नहीं। एगो बड़का है, चार दिन हुए मंझला भाई के बियाह का, घर अलग करे का नाटक पसार लिया, दुसर ऊ मंझला है, पहले सरकारी नौकरी ना करब पराईभेट में करवा द, फेर नौकरी में मन नहीं लगता तो घर दामाद बनके बिजनेस करेंगे साला साथे। और एगो छोटका है, पहले शादी कर आया लालाईन से अब नगर नट्टिन बना के घुमाए रहा है उसको भर दुनिया। कहने को तीन-तीन सुपुत्तर है, लेकिन ई उमर में मरियो गए तो तीन दिन तक पता नहीं चले किसी को। एतना छूट दई के कोन फैदा कि नुआ-धोती खोल के माथे पर नाचने लगे सब बाल-बच्चा।“

खूब प्यारी बड़की मां कैसे इतनी जल्दी रोने झींकने वाली सीरियलों जैसी सास में कैसे बदल सकती है, मैं आजतक नहीं समझ पाई। छोटी-बड़ी हर बात पर घंटों भुनभुनाने वाला गुण जाने कहां से बड़की मां और मां दोनों को विरासत में मिला था। मेरा बस चलता तो अगली ट्रेन से वापस बैंगलोर भाग जाती। फिलहाल बस लैपटॉप लेकर अपने कमरे तक जा सकती थी।

मम्मी ने लेकिन वो भी नहीं करने दिया। कमरे के दरवाज़े पर ही आंखों का ज्वालामुखी बनाकर खड़ी मिलीं- “कर आई कांड छोटी रानी? तुम्हारे बड़-बड़ करने की आदत कभी जाएगी भी? कौन बोला था लैपटॉप लेकर जंगला कूदने के लिए?”

मैंने डर से खुद को बाथरूम में बंद कर लिया।  

हर दूसरे सामान्य भारतीय परिवार की तरह हमारे परिवार पर भी महाकाव्य लिखा जा सकता था। बड़की मां यानि हमारी बड़ी ताई हमारी छोटी नानी भी होती थी। दरअसल मम्मी की सबसे छोटी मौसी थी, बड़की मां। नाना हमारे जब गुजरे तो मम्मी इंटर की परीक्षा दे रही थी। नानी के बिखरे घर को संभालने के लिए बड़की मां ने उनकी सबसे बड़ी बेटी यानि मम्मी की शादी अपने सबसे छोटे देवर से करा कर नानी के एकदम से बिखर गए परिवार को एक सहारा देने की कोशिश की। नानी जब तक ज़िंदा रही बड़की मां को असीसती रही। मां भी शायद पूरी ज़िंदगी खुश रहती अपनी शादी से, अगर छोटी मौसी को कनाडा वाले मौसाजी नहीं मिले होते। मौसाजी का पूरा परिवार मॉंट्रियल में था, कुछ साल में उन्होने मंझली मौसी और छोटे मामा के भी कनाडा में बसने का रास्ता खोल दिया। यहां रह गए बस बड़े मामा और मम्मी। उस समय बहुत पीछे पड़ी थीं पापा के, लेकिन पापा ने साफ मना कर दिया। बड़े पापा के साथ हाई कोर्ट की प्रैक्टिस छोड़ विदेश में किराना दुकान चलाने से। बस तभी से अपनी किस्मत को कोसने का राग मम्मी के सुबह-शाम के रियाज़ में शामिल हो गया था। वैसे अपने कमरे में लाख भुनभुना लें मम्मी, बड़की मां के सामने उनके होंठ हिलते नहीं थे। घर और रसोई भी मम्मी से पहले बड़ी भाभी की ही अलग हुई थी। पिट्ठे का डोंगा भी बड़की मां के यहां से पहले मम्मी के किचन में आता है फिर ऊपर बड़े भैया के लिए जाता है।
 
‘मुकुंद’, बड़े भैया को पुकारती बड़े पापा की चिंघारती आवाज़ बाथरूम के रोशनदान को चीरती मेरे कानों में पड़ी तो मेरे लिए अंदर बंद रहना मुश्किल हो गया। कमरे में तो मम्मी को किचन से निकलकर हड़बड़ाते हुए पापा की स्टडी में जाते देखा। उस घर की आवाज़ सबसे साफ किचन से ही सुनाई पड़ती थी।

“भाई जी बड़ा गुस्साए हुए हैं, जोर-जोर से बोल रहे हैं कितना तो, जाकर देखिए जरा आप।“

पापा को किताब से सिर निकालना ही पड़ा, बड़े पापा का ऊंची आवाज़ में बोलना कोई रोज़-रोज़ की बात तो थी नहीं।

मेरे साथ मम्मी भी पीछे से कुड़-कुड़ करतीं पीछे के रास्ते से निकली- “दिन भर भुन-भुन करके आग लगाती रहेंगी, आदमी का दिमाग खराब नही हो तो क्या, बहु सबको भी देवरानी समझे हुए है जो सब बात मान लेगी इनका।“

मामला मेरी गिल्ट फीलिंग से बहुत आगे निकल चुका था, छोटे-छोटे मतभेदों के बादल घनघोर घटा बन चुके थे। बड़े पापा की ऊंची आवाज़ अब पारिवारिक चीखा-चिल्ली में बदल चुकी थी। मैदान में अब बड़े भैया के साथ भाभी भी थीं। जाने कितने सालों के गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे थे।

भैया चीख-चीख कर बोल रहे थे कि अपना स्वार्थ साधने के लिए बड़े पापा ने उन्हें बाहर पढ़ने नहीं भेजा. जिससे उनकी वकालत की दुकान चलती रहे. नहीं तो छुटके की तरह वो भी विदेश उड़ रहे होते आज। बड़े पापा हर बार की तरह दोहरा रहे थे कि सब बच्चों को पीछे रख सबसे ज्यादा खर्चे और अरमानों से इसको पाला। मंझले भैया के हिस्से का उनको फोन पर दिया जा चुका था। छोटे भैया के मोबाइल पर भी तीन बार ऑटो रिकॉर्डेड मैसेज सुना जा चुका था।
बड़े पापा को देखकर लग रहा था अभी दिल का दौरा पड़ जाएगा उन्हें। बड़ी मां बदहवास सी कभी बड़े पापा का हाथ पकड़ती तो कभी भैया को अपनी कसम देकर चुप कराने की कोशिश करतीं.

“इतना ही जोर है तो मंझली-छोटकी के सामने चला कर देखें ये जुत”, भाभी ने भी हवन में अपने हिस्से की आहुति दे दी।

“बहुत घमंड है तो अलग करो अपना चैंबर और घर दोनों, बूढा-बूढ़ी अभी भी अकेले ही रह रहे हैं, कोई ना समझे किसी के भरोसे हैं हम”, बड़े पापा ने अपना ब्रह्महास्त्र छोड़ा।

मैं ऊपर से नीचे पसीने से तर पिया-पीहू के हाथ पकड़ गेट से बाहर हो ली और शहर के दूसरे कोने में दीदी की ससुराल पहुंचकर ही दम लिया।
शाम तक तो बागीचों के पत्तों ने भी हिलने से मना कर दिया था। पूजा घर के बाहर आज बने महादेव नीचे बिखरे, कीचड़ में तब्दील हो चुके थे. चीटिंयां अक्षतों के आखिरी दाने उठाकर ले जा रही थीं। ऊपर भैया-भाभी के घर में एकबा बत्ती तक नहीं जली थी। बड़े पापा के कमरे का दरवाज़ा अभी तक बंद था। पापा वापस अपनी स्टडी में घुस चुके थे। मम्मी शायद तीसरी बार चाय गरम करके बड़की मां को पिलाने की कोशिश कर रही थीं। और बड़की मां, पूजा घर की चौखट पर माथे पर हाथ रखे लगातार रोए जा रही थीं- “ऐसा उल्टा माथा के आदमी के साथ कैसे जिंदगी बिताए हम ही जानते हैं, इतना कड़ा नहीं रहते तो ऐसे परिवार टूटता हमारा, ऐसा कौन गुस्सा कि बाल-बच्चा ही दूर कर दिए अपने से, भर जनम कोशिश कर लिए हम परिवार जोड़ के रखने का लेकिन कोनो फायदा नहीं, ई आदमी का गुस्सा हमको कहीं का ना छोड़ा, तुम तो एतना साल से देखिए रही हो छोटी।“

हफ्ते भर बाद छुट्टियां खत्म कर मुझे बैंगलोर के लिए निकलना था और जाने की पहले हर बार तरह बड़ी मां की रसोई का प्रसाद पाना था। बड़ी मां से अच्छा खाना तो खैर पूरी दुनिया में कोई नहीं बना सकता था, लेकिन आज का मेन्यू मेरी उम्मीद के विपरीत था। केले के कोफ्ते, भरवां करेला, चने की दाल और पालक के पकौड़े, बैंगन बड़ी, ये सब मेरी नहीं बड़े भैया की पसंद की चीज़ें थीं। खाने में बड़े भैया और बड़े पापा को एक सी चीज़ें ही तो पसंद थीं ना। ये देखकर भी थोड़ा बुरा लगा कि मुझे एक दो बार पूछकर वो खिला भी पूरे मनोयोग से बड़े भैया को ही रहीं थीं। आखिर उन्हें मनाकर नीचे बुलाने में सात दिन जो लगाए थे उन्होंने।

और बड़े पापा? वो तो पूरे समय बिना खाए पिए, रूठे हुए से पापा की स्टडी में बैठे रहे। जैसे किसी बच्चे को बड़े खिलौने का लालच देकर किसी ने उसका छोटा खिलौना भी तोड़ दिया हो। 

Tuesday, March 8, 2016

एक वुमन की पाती उसके तमाम ब्वाय+फ्रेंड्स के नाम


सबसे पहले तो ये कि ब्वाय अब तुममे से कोई नहीं रहा, (चालीसे के पार जा चुके या आसपास भटक रहे को ब्वाय कौन कहे भला) लेकिन फ्रेंड तुम पहले की तरह ही हो हमेशा-हमेशा के लिए। वैसे एक बात बताऊं, सर के बचे बाल संवारकर, अपनी कमर के बढ़ते घेरे को जिम में टोन कराकर, बच्चों और बीवी के साथ फोटे खिंचाकर जब तुम शेयर करते हो ना, कसम से बड़े क्यूट लगते हो। पहले से भी ज़्यादा।

Saturday, March 5, 2016

कितनी बार?


पड़ोस का वो बड़ा लड़का जिसे उसकी मां ने बचपन से भाई कहना सिखाया, जिसकी कलाई पर उसने राखियां बांधीं साल दर साल, उस दिन हाथ पकड़ कर ले गया अपने कमरे में और उतार दी अपनी पैंट उसके सामने। वो घबराकर भागी और पीछे से मुंहबोला भाई विजयी भाव से हंसता रहा। भय से मिचीं आखों को उसने अपने घर पहुंच कर ही खोला, लेकिन उसकी मां को बस चौखट से टकराकर दाएं पैर में आई मोच ही नज़र आई। राखी अगले साल भी बांधी गई उस कलाई पर और उसके अगले साल भी।