Sunday, December 27, 2015

ये दिन वो साल



फोन से पुरानी तस्वीरों का बोझ कुछ कम करने बैठी तो नज़रें उस आई-कार्ड के फोटो पर ठिठक गईं। कहीं घूमने जाओ तो टैक्सी या उसके ड्राइवर की फोटो खींच लेने की पुरानी आदत है पतिदेव की। उसका चेहरा और साथ गुज़ारे दो दिन एकदम से आखों के सामने घूम गए। ठीक एक बरस पहले उसी के भरोसे अब तक की सबसे दुरूह सड़क यात्रा की थी। गंगटोक होटल में जब उसे बोलेरो में हमारा सामान डालते देखा तो डर सी गई। इतना छोटा लड़का, ये ले जाएगा उन रास्तों पर जहां जा सकने के लिए खास परमिट लेनी होती है राज्य सरकार से, जिन रास्तों पर ना हर ड्राइवर जा सकता है ना हर गाड़ी।
कल ही लौटा हूं वहां से, डरो मत, लेप्चा हूं मैं, 23 साल का हूं, सीज़न में हर तीसरे दिन जाता हूं, उसने स्टीयरिंग व्हील पर बैठते हुए पूरे प्रोफेशनल रुखाई से जवाब दिया। ये लो, एक तो रास्ता दुरूह उसपर रूखे स्वभाव का सारथी, हो गया काम।

Friday, December 18, 2015

तो आज आप क्या होतीं मां?


कल पार्क में शर्मा आंटी मिली थीं।
कौन सी शर्मा आंटी?
अरे वही जो हर बात में, तुम्हारे अंकल ये, तुम्हारे अंकल वो करती रहती हैं।
हां जी वही जो सोसायटी की मीटिंगों में सबसे तेज़ बोलती हैं, हर बार नई शिकायत के साथ।
अब कहानी बिना टोके खत्म करेंगे।
हां तो शर्मा आंटी पार्क की बेंच पर बैठी एक दूसरी आंटी से बतिया रही थीं,  सामने बच्चों का बैडमिंटन गेम चल रहा था, एक तरफ दो लड़कियां सामने एक लड़के से हार रही थीं।
जज करके शॉर्ट तो खेल ही नहीं रहीं, कैसे बेमन से मार रही हैं ये।
आप भी खेलती थीं ?”, मैंने हल्के से पूछ लिया।

Saturday, December 12, 2015

द्रौपदी को चाहिए भीम?


इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की डिग्रियों, बड़े नाम वाली कंपनी में खुद का केबिन और उसके साथ की सैलरी और सुविधाओं वाली आत्मविश्वास से लबरेज वो लड़की तीस के पायदान को पार करते ही आजकल परिवार की चिंताओं का सबब बनी बैठी है। कारण जानने के लिए पहेलियां बूझने की ज़रूरत भी नहीं। एक ही वजह हो सकती है इस इक्वेशन में, उसके लिए योग्य लड़का नहीं मिल रहा।
ऐसे बेहूदा सवाल करते हैं लड़के, कुकिंग का शौक है क्या आपको? जैसे मैं कोई बीए पास लड़की होऊं, उसने हंसते हुए बताया।

Wednesday, December 9, 2015

ना आना इस देस...


वक्त आने पर सही फैसले लेने की हिम्मत ना आर्थिक स्वतंत्रता से आती है ना ही स्कूली शिक्षा से। हां परिवार और परवरिश का इसमें योगदान ज़रूर हो सकता है लेकिन सबसे ज्यादा शायद व्यक्तित्व का होता है।
पिछली सर्दियों की एक शाम बीमार कामवाली उसे लेकर घर आई।
ये ही है मेरी बहू”, सास के बोलने की देर थी कि गदबदे शरीर वाली उस सावंली सलोनी ने झट से बंगाली तरीके से मेरे पैर छुए और बर्तनों से भरे सिंक की ओर चली गई। मशीन की गति से उसके मज़बूत हाथों ने मेरे बर्तनों में जान डाल दी...वो बर्तन जो पिछले दो महीने से दो बार धोए जा रहे थे। एक बार उसकी सास धोती जो अक्सर जूठे ही रह जाते और दूसरी बार मुझे धोने पड़ते। लेकिन दिसम्बर-जनवरी के महीने में बर्तन वाली से झिक-झिक करने का जोखिम अनुभवी गृहस्थनें नहीं उठातीं।

Saturday, December 5, 2015

गुड़िया और कहानियां



चार बहनों वाले घर में ज़्यादा खिलौनों की ज़रूरत नहीं होती। हमारे समय में ज़्यादातर हैसियत भी नहीं होती थी। फिर भी, पता नहीं क्यों, पापा एक बार्बी डॉल लेकर आए थे, पचास रुपए की। छोटे कस्बों के महंगे स्कूलों की एक महीने की फीस होती थी तब इतनी। भूरे बालों और भूरे कपड़ों वाली वो बार्बी हमारे घर में लेकिन उपेक्षित सी पड़ी रही, शो रैक पर। गुड़ियों के खेल के लिए हमें बड़े परिवार की दरकार होती थी। दादा-दादी, चाचा-चाची, भैया-दीदी वाला परिवार, जो ज़रूरत पुरानी सफेद कपड़ों की हाथ से बनी गुड़िया ही पूरी कर सकती थी। इन गुड़ियों का आशियाना बनता पुराने कार्टन में, जिसमें माचिस के खाली डब्बों के सोफे होते और माचिस के डब्बों का ही टीवी भी होता। बाकी काम तरह-तरह के बर्तन सेट पूरे करते जिनकी हमारे पास भरमार थी। इलीट सी बार्बी उसमें आउट ऑफ प्लेस ही रह गई।

Sunday, November 29, 2015

लौटना अपनी जड़ों को



मम्मा क्या हम बेहारी है?’ बच्चों ने स्कूल से आकर पूछा।                                
बेहारी नहीं बिहारी, आप अपने राज्य का नाम भी ठीक से बोल नहीं सकते। मैंने उन्हें डपट दिया। वो रुआंसे हो गए, तो मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। मैं उन्हे पास बिठाकर बताने लगी, दरभंगा, उनकी मां का शहर, जहां वो तो क्या उनके पैदा होने के बाद उनकी मां तक नहीं गई। सहरसा, उनके पिता का शहर, जहां हम उन्हें बस एक बार ले गए, दो साल की उम्र में, कुलदेवी के सामने मुंडन की परंपरा निभाने।

Thursday, November 26, 2015

मेरी प्यारी मां


मेरी प्यारी मां,
आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है इसलिए जाने कितने सालों बाद तुम्हें खत लिखने बैठ गई। याद है ना मां इसके पहले आखिरी खत मैंने कॉलेज से लिखा था जब फर्स्ट सेमेस्टर की परीक्षा के पहले मेरा दिल बहुत घबरा रहा था और घर का फोन आउट ऑफ आर्डर था। कितने साल बीत गए उस बात को...शायद उन्नीस या बीस। जानती हूं आज भी जब तुम सुनोगी तो हंसोगी। दिन में तीन बार तो फोन पर बात होती है हमारी...बच्चों के होमवर्क से लेकर डिनर के मेन्यू तक हर चीज तो पता होती है तुम्हे मेरे घर की। फिर आज मैं तु्म्हें लिखने क्यों बैठ गई अचानक? फोन क्यूं नहीं किया? तुम्हारा दिन तो वैसे भी तीनों बच्चों के फोन के इंतजार में ही कटता है ना...
पर फोन तो तब करते हैं ना मां जब एक दूसरे से कुछ कहना सुनना हो। जब केवल कहना ही कहना हो तब? मन का बोझ हल्का करने के लिए। और ये सब कोई मां के अलावा और किससे बांट सकता है।

Saturday, November 21, 2015

बुद्धु बक्से (इडियट बॉक्स) और हम


घर में बच्चों के दोस्तों का गेट-टुगेदर था। उनके कमरे में जूस, सैंडविच और कुकीज़ पहुंचाने के क्रम में बातचीत के कुछ शब्द कानों तक तैरते चले आए।
मेरे घर में पांच टीवी और आठ एसी हैं, संयुक्त परिवार में रहने वाली सहेली ने कहा।
मेरे घर में चार एसी और दो टीवी, दूसरी ने कहा।
हमारे घर में दो टीवी क्यों नहीं हो सकते, उम्मीद के मुताबिक उनके जाते ही बिटिया का पहला सवाल था।

Thursday, November 5, 2015

बाबा नागार्जुन और मेरी बहनें


दसवीं के बोर्ड के बाद की छुट्टियों के दौरान थोड़े दिनों के लिए गांव में थी। बाबा नागार्जुन से पहली बार तभी मिलना हुआ। दादाजी के एक चचेरे भाई उनके अच्छे दोस्त थे, उस दिन वो उनसे मिलने पहुंचे। यूं उनका गांव तरौनी हमारे गांव के पास ही था, लेकिन यायावर बैधनाथ मिश्र का ख़ुद अपने गांव जा पाना बहुत कम ही हो पाता था। उस समय तक मैं प्रेमचंद, शरत और शिवानी वगैरा में उलझी थी, सातवीं के कोर्स की किताब में बाबा की सिर्फ एक कविता पढ़ी थी, गुलाबी चूड़ियां
प्राईवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता भी तो है।

Saturday, October 31, 2015

भाग्य-भाग्य की बात



भाग्यशाली फिर भी औरतें ही होतीं हैं। पुरुषों के भाग्य में भाग्यशाली होना कम ही लिखा है।

अच्छा तुम्हारा पति घर का कामों में तुम्हारा हाथ बंटाता है, सुबह जब तक किचन का काम संभालती हो वो बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर देता है, ताकि दोनों साथ में दफ्तर के लिए निकल सको? फिर शाम को जब घर पहुंचती हो तो जब तक तुम किचन, अगली सुबह के कपड़े, सफाई वगैरा का काम देखती हो वो बच्चों को होमवर्क भी करा देता है? अगर किसी दिन तुम्हें देर हो गई तो वो चाय भी बना कर इंतज़ार करता है तुम्हारा? सचमुच किस्मतवाली हो तुम।

Thursday, October 15, 2015

नियम तोड़ने और सीखने का दिन

एम्सटरडम घूमने के लिए बस एक दिन था हमारे पास और वो भी बूंदा-बांदी और तेज़ हवाओं वाला बेहद ठंढा दिन। मई के आखिर में तपती दिल्ली का अभ्यस्त हमारा शरीर सूती जैकेटों में रह-रहकर कंपकंपा उठता था। दिन का पूरा उपयोग करने के लिए हमने होटल सुबह ही छोड़ा, सामान एम्स्टरडम सेन्ट्रल स्टेशन पर रखा और सिटी टूर बस में बैठ गए। इस तरह, यात्रा के बाकी दिनों की तुलना में उस दिन सबसे कम चलना हुआ (हालांकि दोपहर बाद ये कसर एम्सटरडम के मशहूर आर्टिस चिड़ियाघर में तीन घंटे चलकर पूरी हो गई)। बस का ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि सड़क पर कम चलने के बावजूद उस एक दिन में मैंने ट्रैफिक के इतने नियम तोड़े जितने शायद पूरी ज़िंदगी में नहीं।

Thursday, October 8, 2015

शॉनब्रुन पैलेस : एकतरफा प्रेम की दास्तान का मौन साक्षी

विएना में एब्सबर्ग (Habsburg) राजवंश के तीन सौ साल पुराने निवास शॉनब्रुन (Schönbrunn) पैलेस का नाम दुनिया के चंद बेहतरीन राजमहलों में शुमार है। शॉनब्रुन का मतलब है सुंदर वसंत। विएना की यात्रा इस परिसर को देखे बिना पूरी नहीं मानी जाती, और इसे अच्छी तरह देखने के लिए एक पूरा दिन भी कम पड़ जाता है। सड़क के दोनों ओर सतर सिपाहियों से खड़े करीने से कटे पेड़, खूबसूरत बाग़ीचे, उनके बीच झाड़ियों की भूल-भुलैया, संग्रहालय, रोमन खंडहर, नेप्च्यून फाउन्टेन, शाही बग्गी की सवारी और मूल महल के 1400 से ज्यादा कमरे, जिनमें केवल 60 पर्यटकों के लिए खुले हैं। वैसे परिसर के हर हिस्से में जाने के लिए टिकटों के कई तरह के पैकेज मौजूद हैं और सब ख़रीदने पाने में अक्सर जेब की रज़ामंदी नहीं होती। 

Monday, October 5, 2015

मुलाक़ात मोनालीज़ा से

Mosse de Orsay  यानि म्यूज़ियम ऑफ मॉडर्न आर्ट से निकलकर सेन नदी पार कर मोनालीसा के घर The Louvre Museum तक जाने के रास्ते उस दिन बड़ी गुनगुनी सी धूप निकल आई थी। जैसे सूरज ने बादलों की चादर झटककर फेंक दी हो एकदम से। दो दिन से ऐसी धूप को तरसते हम सब छोड़छाड़ कर वहीं पार्क की चमकती घास पर बैठ गए और मोनालिसा को थोड़ा और इंतज़ार करने दिया।
हमारी ये गुस्ताखी शायद ना मोनालीसा को रास आई ना हमारे क़दमों को। तभी तो, म्यूज़ियम में घुसते ही पता चला कि मोनालीसा की चौखट की ओर जाने वाले एस्केलेटर बंद कर दिए गए हैं। दूसरी ओर से चढ़ते ही इलेक्ट्रॉनिक गाईड और नक्शों के बावजूद हम रास्ता भटक गए।

यूं भी, साढ़े छह लाख स्कवेयर फीट में फैले दुनिया के इस सबसे प्रसिद्ध म्यूज़ियम में रखी गई 35000 नायाब पेंटिंग्स और कलाकृतियों को नज़र भर देखने में ही कलाप्रेमी हफ्तों बिता देते हैं। लेकिन कला के नाम पर लगभग अनपढ़ हम जैसों के लिए यहां आकर मोनालिसा को सामने से देख पाना लगभग वैसा ही है जैसे पूजा में ना बैठने के बावजूद आपने प्रसाद पाकर ख़ुद को पुण्य का भागी मान लिया।
सो भटके हुए रास्ते में जो नज़र आया उसे मुग्ध आंखों से पीते हुए हम उस ओर बढ़े जहां सबसे ज्यादा भीड़ जा रही थी। तीन मंज़िल के बराबर सीढ़ियां, सात-आठ गलियारे और दसियों कमरे पार कर मोनालीसा को तलाशना कुछ-कुछ उस राजकुमार की कहानी की याद दिला रहा था जो अपने पिताजी महाराज के आदेश पर बाग का सबसे बड़ा सेब तोड़ने जाता है और रास्ते में पड़े एक से एक खूबसूरत सेबों को नज़रअंदाज़ कर देता है, ये सोचकर कि आगे और बढ़िया मिलेगा।

Friday, October 2, 2015

यातनाशिविर की पाश्विक क्रूरताओं के साक्ष्य

टूरिस्ट बनकर किसी देश में जाना किसी के घर जाकर ड्राईंग रूम में बैठने जैसा है। घर का सबसे साफ-सुथरा, सजा-संवरा कोना जहां बैठने वाले को ना बाथरुम में टपक रहे नलके की चिंता ना किचन की आलमारियों के टूट रहे कब्जों की, ना बाल्कनी की कुर्सियों पर धूल की परतों की खबर ना स्टोर में लटक रहे डेढ़ हाथ के जालों की। अलग-अलग इमारतों, चौराहों और बाज़ारों के सामने जब आप रंग-बिरंगी मुस्कान ओढ़ फोटो खिंचवाते हैं तो एंबुलेंस या सायरन की आवाज़ भी चौंका देती है। अच्छा! अस्पताल भी हैं यहां, ज़रुरत इनकी भी होती है रोशनी और खिलखिलाहटों से भरे इस शहर को!
लेकिन बर्लिन के थोड़ा हटकर ओरानियनबर्ग की यात्रा बिल्कुल वैसी रही जैसे आपने किसी के घर का सबसे वर्जित कोना देख लिया हो.....उस बंद दरवाज़े के पीछे झांकने की हिमाकत कर ली हो जिसने घर के इतिहास के सारे काले पन्नो को अपने अँधरे में क़ैद कर रखा है।

बराबरी का खेल

एक-एक बढ़ता सेकेंड अब मुझपर भारी पड़ रहा था...लेकिन दरवाज़ा पकड़े वो अपनी सशक्त उम्मीदवारी का सारा परिचय जैसे अभी के अभी दे देना चाहती थी। मैं अपने इस घिसे-पिटे इंटरव्यू को जल्द से जल्द निपटा लेना चाहती थी ताकि 10 मिनट बाद कम से कम आज बिना ताने सुने अपनी कॉल शुरु कर सकूं। लेकिन पहली मुलाकात में ही अपनी झल्लाहट दिखाकर उसे अपना असली परिचय भी नहीं देना चाहती थी। घर में पोंछा लगे तीन दिन हो गए थे और आज की कॉल में मुझे क्लाईंट से दूसरी बार प्रपोज़ल बनाने की डेडलाइन बढ़ाने की रिक्वेस्ट करनी थी। कामवाली और क्लाईंट में से किसी एक को चुनना था मुझे इस वक्त। ये उन असंख्य चुनावों में एक था जो हम औरतों को हर रोज़, हर क़दम पर करने पड़ते हैं, छोटे या बड़े। करियर और बच्चों के बीच, प्यार और ज़िम्मेदारी के बीच, मन और मकसद के बीच।

Saturday, September 26, 2015

घर और शहर

घर वो अपना जहां आपने अपना बचपन बिताया, जिसकी दीवारों पर अपने बढ़ते क़द की निशानियां छोड़ीं, जिसकी चाहरदीवारी को फांद गीली गेंद उठाई, कच्ची अमिया चुनी, जामुन चुराए, आंगन में गढ्ढे खोद अपने खज़ाने छुपाए, मां ने नाराज़गी में कान उमेठे तो मां का नाम लेकर ही रोए, जहां सुबह भाई-बहनों के साथ झगड़कर संपत्ति और सीमा का बंटवारा किया और शाम तक फिर सब मिला लिया। जहां आंगन में आम के पेड़ पर चढ़ उत्सुक हाथों से तोते के अंडे गिने और हाथ लग उनके गिर जाने पर फूट-फूट कर रोए। जहां कैंपकॉट पर सूख रहे धुले गेहूं की रखवाली की, रात के अँधेरे में छत पर लेट तारों और हवाई जहाज़ में अंतर करना सीखा। घर वो जहां नाम नहीं रिश्ते जिए।

Thursday, September 24, 2015

यादें ना जाएं....2

बचपन से सुनती आई, हमारे गांव नेहरा को उसकी समृद्धि और विकास के कारण मिथिला का पेरिस कहा जाता है। संयोग ऐसा कि इस बार जब दो दशक बाद गांव जाना हुआ तो पेरिस समेत कुछ और यूरोपीय देशों की यात्रा से तुंरत लौटी थी। सो बचपन से सुनी गई तुलना और प्रत्यक्ष में झलकते विरोधाभास और व्याजोक्ति ने बरबस मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया। पटना से नेहरा तक सड़क के रास्ते बदलाव टुकड़ों में दिखा। पटना से निकले और एक ओर से आधे टूटे गांधी सेतु पर ज्यादा ट्रैफिक नहीं मिला तो ड्राईवर ने चैन की सांस ली। हाजीपुर और मुज़फ्फरपुर के रास्ते कमोबेश वैसे ही लगे। मुज़फ्फरपुर से सकरी की सड़क लेकिन विकास का उद्घोष कर रही थी। सकरी स्टेशन के बाद के सात किलोमीटर कैनवास के उस कोने से लगे जिसके होने ना होने का चित्रकार को आभास ही नहीं रहा।

Friday, September 18, 2015

यादें ना जाएं...

19 साल बाद अपने गांव जाना हुआ। ज्यादातर रिश्तेदारों से शादी के बाद पहली बार मिलना हुआ, कुछ से तो दो दशकों में पहली बार। आख़िरी कस्बे के जर्जर रेलवे स्टेशन को छोड़ जब हमारी टैक्सी चली मुझे डर लगा कहीं रास्ता भूल आगे ना बढ़ जाऊं। इन रास्तों पर तो कुछ नहीं बदला था, बस इन सालों में मेरी दुनिया बदल गई थी। लेकिन हमारे टोले वाली गली ने सौ मीटर पहले ही मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया मुझे। इन रास्तों से पहचान के सारे तार खुद-ब-खुद जुड़ गए, सालों के फासले एक पल में मिट गए। गली के मुहाने पर दो काका कड़ी धूप में इंतज़ार कर रहे थे हमारा, चूंकि पता था साथ में जमाई बाबू भी आ रहे हैं। जमाइयों के लिए उमड़े इस अनावश्यक प्यार से पता नहीं क्यों अब मुझे जलन नहीं होती क्योंकि इसके मूल में बेटी के लिए खूब सारा प्यार और उससे कहीं ज्यादा उसकी फिक्र होती है।

Saturday, September 12, 2015

योर च्वाईस बट कंडीशन्स अप्लाई

एक बार मेरे घर पर, मेरे हाथ का बना तीन कोर्स का खाना खाकर डकार मारते हुए एक परिचित ने कहा, वैसे आप खाना-वाना बनाने टाइप लगती नहीं हैं।
क्या मतलब?’ उनसे ज्यादा बेतकल्लुफ नहीं थी सो थोड़ा अटपटा लगा।
पढ़ी-लिखी, मॉडर्न हैं आप, मीडिया जैसी इंडस्ट्री से हैं, विदेश-उदेश भी रह आई हैं ऐसी फ्री थिंकिंग लड़कियां आजकल कहां किचन-विचन का काम करती हैं। उन्होंने अपना बेतकल्लुफ अंदाज़ जारी रखा।  

Wednesday, September 9, 2015

ना खाएंगे ना....

कुछ साल पहले हमारे एक घर की रजिस्ट्री के लिए बिल्डर का मेल आया। आप 25 हज़ार रुपए कैश और बाकी के चेक के साथ रजिस्ट्री ऑफिस पहुंचिए। पता चला एक दिन में तीस लोगों को बुलाया जा रहा है। हमने हिसाब किया, कैश 11 हज़ार लगने चाहिए थे, फिर 25 लाने क्यों बोला? अब समझने को कोई रॉकेट साइंस तो था नहीं इसमें, सो थोड़ी बेचैनी हुई। खैर, पूरे पैसे लेकर पहुंचे। बिल्डर ओर से एक वकीलनुमा सज्जन थे वहां मदद के लिए। 
लोगों से 25 लेकर 11 की रसीद काटी जा रही थी, और आधे दिन की छुट्टी पर आए ज्यादातर कॉर्पोरेट सेवक हड़बड़ाए से अपना काम करवा रहे थे।
सत्या ने (मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर) पूछा,
“सर 14 ज्यादा क्यों दें हम?”
“वो इन लोगों के खर्चे-पानी के लिए”, आराम से जवाब आया। 

Friday, September 4, 2015

नींव की पहली ईंट

शनीचर सर। मेरी यादों में सिर्फ उनकी कहानियां हैं, ढेर सारी। ना उनकी शक्ल ठीक से याद है ना आवाज़। बस जबसे यादें सहेज कर रखने की उम्र शुरु हुई है, तब से ना जाने कितनी बार उनका नाम सुना है। उनकी कहानियां सुनी हैं, जिसमें वो होते हैं, मैं होती हूं और होती हैं मेरी शैतानियां।
उनसे मेरा रिश्ता कुछ यूं जुड़ा जब चार साल की बेहद बातूनी और बला की शरारती, लाड़ से बिगड़ी अपनी पोती को शाम के वक्त एक जगह पढ़ने बिठा पाने भर के लिए मेरे दादाजी को एक ट्यूटर की ज़रूरत महसूस हुई और वो मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंचे। प्रिंसिपल सर भी मुझसे वाकिफ रहे होंगे इसलिए उन्होंने इस काम के लिए सबसे योग्य शनीचर सर को मेरे घर जाने को कहा। मेरे पहले गुरु शनीचर सर खुद बस मिडिल पास थे, लेकिन छोटे बच्चों के फेवरिट। धैर्य गज़ब का रहा होगा उनमें।

Thursday, August 27, 2015

परवरिश हमारी

अपने अमेरिकी और यूरोपीय दोस्तों से मैने कई बार बच्चों की परवरिश के भारतीय तौर-तरीकों की आलोचना सुनी है, हालांकि उतनी ही बार मैं अपने संस्कार और अपने पारिवारिक मूल्यों का हवाला देते हुए उनसे उलझी भी हूं। फिर भी एक अमेरिकी दोस्त की ये टिप्पणी मेरे अंदर गहरे पैठ गई है कहीं,
“You don’t actually bring up your kids, you turn them into a bundle of emotional fools”
जज़्बाती होकर विदेशियों से इस मुद्दे पर मैं अभी भी लड़ने तो तैयार हूं क्योंकि तर्क-वितर्क करना मेरे व्यक्तित्व में है लेकिन एक अपने भीतर झांकने पर इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर सकने का दोमुंहापन मेरे अंदर नहीं है। 
तुम्हें बड़ा करने में हमनें अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी।
हमने हमेशा तुम्हारी सुविधाओं के आगे अपनी ज़रूरतों को अनदेखा किया।
क्या मां-बाप होने के नाते हमारा तुमपर इतना भी अधिकार नहीं? क्या तुम हमारी इतनी सी बात नहीं मान सकते?

Saturday, August 22, 2015

काश

कुछ यादें अंतर्मन की तलहटी में जाकर बैठ जाती हैं और हमेशा के लिए जम जाती हैं वहां। जब भी मन ने हिलोरें लीं उछल कर आ गईं नज़रों के सामने। पता नहीं कितने साल बीत गए...शायद बीस बाईस या उससे भी ज्यादा। बारहवीं की परीक्षा देकर मैं रिजल्ट निकलने का इंतजार कर रही थीं। नानी कई हफ्तों से हमारे घर में ही थीं। ज़िंदगी के आखिरी कुछ दिन अपनी सबसे लाडली संतान, मां, के साथ बिताने के लिए अपने बेटे बहुओं की नाराज़गी झेल कर भी आ गईं थी पापा के एक आग्रह पर। और तब से मां की सारी दुनिया नानी के बिस्तर, उनकी दवाईयों और उनकी पसंद की एक-एक चीज़ बनाने के इर्द गिर्द सिमट गई थी। मेरी परीक्षा कब शुरु हुई कब खत्म हो गई उन्हें शायद पता भी नहीं चला। परीक्षा खत्म होते ही मेरा भी सारा वक्त उन दोनों के साथ गुज़रने लगा था। मां तो वैसे भी मेरे लिए चुंबक जैसी थीं, मेरे अस्तित्व का केन्द्र। उनकी आवाज़ के बगैर मेरी सुबह नहीं होती, उन्हें बगल में बिठाए बिना मेरे हलक से कौर नहीं उतरता। मां ने कभी कान भी खींचे या थप्पड़ भी मारा तो भी मां-मां करके ही रोती। तुम दोनों मां-बेटी पिछले जन्म में या तो कंगारू या फिर बंदरिया रहे होगे...पापा का फेवरेट डायलॉग था ये। और वही मां अब बंट रही थी मुझसे...अपनी मां के लिए। रिज़ल्ट और कॉलेज एडमिशन की चिंता नहीं होतीं तो कई बार ठुनक भी चुकी होती मैं मां के सामने इस बात की शिकायत लेकर।

Sunday, August 16, 2015

तोहफा

बिल्लियों के झगड़ने की आवाज़ से नींद खुली तो मनोज को कुछ मिनट लगे ये समझने  में कि अभी सुबह ठीक से हुई भी नहीं है। चौकी से नीचे उतरने की कोशिश की तो ध्यान आया कि वो तो छत पर गद्दा बिछा कर सोया है। रात उमस इतनी बढ़ गई थी कि कमरे में दो घड़ी भी बिता पाना मुश्किल हो गया था। वरना कुल डेढ़ महीने पुरानी बीवी को अकेला छोड़ने की गलती कोई सरफिरा ही कर सकता था। सविता का ख्याल आते ही वो बिजली की तेज़ी से उठा। साढ़े पांच से ज्यादा नहीं बजे होंगे, मुकेश सात बजे के पहले ड्यूटी से वापस नहीं आएगा। उसे भी तैयार होकर ड्यूटी पर जाने में घंटे से ज्यादा नहीं लगेगा। जबसे सविता आई है, खाना बनाने का घंटा तो वैसे ही बच जाता है, और गर्मियों की छुट्टी का इतना फायदा तो है कि साहब के बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए सुबह आठ बजे ड्यूटी पर नहीं पहुंचना पड़ता। अभी अगर नीचे चला गया तो घंटे डेढ़ घंटे तो.....पत्नी का ख्याल आते ही उसके शरीर में झुरझुरी सी हो आई, या शायद सुबह के पहले ठंडे झोंके की वजह से हुआ हो...

Saturday, August 8, 2015

वो एक दिन....

बरसाती पानी से बजबजाती गलियां नालियों से एकाकार हो गई थीं। बाहर बादल अब अपना रहा सहा ज़ोर निचोड़ रहे थे एक-एक टपकती बूंद के साथ और अंदर जून की उमस में चाय का ग्लास पकड़े उनके कांपते हाथ पसीने से सराबोर हो रहे थे।
चाची....किशोर शायद बड़ी देर से खड़ा था सामने या शायद अभी-अभी आया।
संजू भैया का फोन आया था...दिल्ली पहुंच गए हैं...दोपहर तक पटना भी आ जाएंगे.....पटना में गाड़ी का इंतज़ाम हो गया है। मुन्ना कलकत्ता उतरेगा शाम तक, सुबह तक ही पहुंच पाएगा। आप एक बार घर हो आते तो....बबली दी, जीजाजी पहुंचने वाले हैं घंटे भर में....मुज़फ्फरपुर से फोन आया था।
इस बार आंखों से टपकती बूंद को चाय के ग्लास तक पहुंचने से रोक नहीं पाई वे। तीसरा दिन है आज, ना बच्चे अपने घरौंदों से यहां तक का दूरी तय कर पाए हैं ना वो ही शीशे से उस पार बिस्तर तक दस क़दम का फासला तय कर पाई हैं। दिन, घंटे, मिनट सब जैसे एक वृत में बंध शून्य में अटक गए हैं और आरबी मेमोरियल के आईसीयू के बाहर सहमे खड़े हैं उनके साथ। ना दिमाग काम कर रहा है ना शरीर। किशोर एक टांग पर खड़ा सब संभाल रहा है।

Sunday, August 2, 2015

दोस्ती......यारियां.....बेईमानियां

उनका असल नाम कुछ और है ये हमें बहुत साल बाद पता चला। दादाजी उन्हें यारबुलाते थे और इसलिए वो हमारे लिए बस यार बाबा थे और पापा के यार काका। उस समय तक दादाजी कई शहरों में घूम-घामकर अपनी तीस साल की नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अपने शहर यानि दरभंगा में, बुढ़ापे के दिन बिताना चाहते थे। यार बाबा भी तब तक बिना एक दिन नौकरी पर गए और बिना दरभंगा से बाहर निकले भी बूढ़े हो चले थे और अपने स्कूल के दिनों के, पचास साल पुराने, अंतरंग दोस्त को वापस पाकर बड़े खुश थे। चूंकि दादाजी अपनी नौकरी की तरह अपने रिटायरमेंट को भी एन्जॉय करना चाहते थे, एकदम किंग साईज़, सो सुबह शाम उनके दोस्तों की पपलू की बाज़ी जमती हमारे बरामदे पर जो यार बाबा के बिना कभी पूरी नहीं हो पाती।