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Wednesday, December 9, 2015

ना आना इस देस...


वक्त आने पर सही फैसले लेने की हिम्मत ना आर्थिक स्वतंत्रता से आती है ना ही स्कूली शिक्षा से। हां परिवार और परवरिश का इसमें योगदान ज़रूर हो सकता है लेकिन सबसे ज्यादा शायद व्यक्तित्व का होता है।
पिछली सर्दियों की एक शाम बीमार कामवाली उसे लेकर घर आई।
ये ही है मेरी बहू”, सास के बोलने की देर थी कि गदबदे शरीर वाली उस सावंली सलोनी ने झट से बंगाली तरीके से मेरे पैर छुए और बर्तनों से भरे सिंक की ओर चली गई। मशीन की गति से उसके मज़बूत हाथों ने मेरे बर्तनों में जान डाल दी...वो बर्तन जो पिछले दो महीने से दो बार धोए जा रहे थे। एक बार उसकी सास धोती जो अक्सर जूठे ही रह जाते और दूसरी बार मुझे धोने पड़ते। लेकिन दिसम्बर-जनवरी के महीने में बर्तन वाली से झिक-झिक करने का जोखिम अनुभवी गृहस्थनें नहीं उठातीं।

Sunday, November 29, 2015

लौटना अपनी जड़ों को



मम्मा क्या हम बेहारी है?’ बच्चों ने स्कूल से आकर पूछा।                                
बेहारी नहीं बिहारी, आप अपने राज्य का नाम भी ठीक से बोल नहीं सकते। मैंने उन्हें डपट दिया। वो रुआंसे हो गए, तो मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ। मैं उन्हे पास बिठाकर बताने लगी, दरभंगा, उनकी मां का शहर, जहां वो तो क्या उनके पैदा होने के बाद उनकी मां तक नहीं गई। सहरसा, उनके पिता का शहर, जहां हम उन्हें बस एक बार ले गए, दो साल की उम्र में, कुलदेवी के सामने मुंडन की परंपरा निभाने।

Saturday, November 21, 2015

बुद्धु बक्से (इडियट बॉक्स) और हम


घर में बच्चों के दोस्तों का गेट-टुगेदर था। उनके कमरे में जूस, सैंडविच और कुकीज़ पहुंचाने के क्रम में बातचीत के कुछ शब्द कानों तक तैरते चले आए।
मेरे घर में पांच टीवी और आठ एसी हैं, संयुक्त परिवार में रहने वाली सहेली ने कहा।
मेरे घर में चार एसी और दो टीवी, दूसरी ने कहा।
हमारे घर में दो टीवी क्यों नहीं हो सकते, उम्मीद के मुताबिक उनके जाते ही बिटिया का पहला सवाल था।

Thursday, November 5, 2015

बाबा नागार्जुन और मेरी बहनें


दसवीं के बोर्ड के बाद की छुट्टियों के दौरान थोड़े दिनों के लिए गांव में थी। बाबा नागार्जुन से पहली बार तभी मिलना हुआ। दादाजी के एक चचेरे भाई उनके अच्छे दोस्त थे, उस दिन वो उनसे मिलने पहुंचे। यूं उनका गांव तरौनी हमारे गांव के पास ही था, लेकिन यायावर बैधनाथ मिश्र का ख़ुद अपने गांव जा पाना बहुत कम ही हो पाता था। उस समय तक मैं प्रेमचंद, शरत और शिवानी वगैरा में उलझी थी, सातवीं के कोर्स की किताब में बाबा की सिर्फ एक कविता पढ़ी थी, गुलाबी चूड़ियां
प्राईवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता भी तो है।

Thursday, September 24, 2015

यादें ना जाएं....2

बचपन से सुनती आई, हमारे गांव नेहरा को उसकी समृद्धि और विकास के कारण मिथिला का पेरिस कहा जाता है। संयोग ऐसा कि इस बार जब दो दशक बाद गांव जाना हुआ तो पेरिस समेत कुछ और यूरोपीय देशों की यात्रा से तुंरत लौटी थी। सो बचपन से सुनी गई तुलना और प्रत्यक्ष में झलकते विरोधाभास और व्याजोक्ति ने बरबस मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया। पटना से नेहरा तक सड़क के रास्ते बदलाव टुकड़ों में दिखा। पटना से निकले और एक ओर से आधे टूटे गांधी सेतु पर ज्यादा ट्रैफिक नहीं मिला तो ड्राईवर ने चैन की सांस ली। हाजीपुर और मुज़फ्फरपुर के रास्ते कमोबेश वैसे ही लगे। मुज़फ्फरपुर से सकरी की सड़क लेकिन विकास का उद्घोष कर रही थी। सकरी स्टेशन के बाद के सात किलोमीटर कैनवास के उस कोने से लगे जिसके होने ना होने का चित्रकार को आभास ही नहीं रहा।

Friday, September 18, 2015

यादें ना जाएं...

19 साल बाद अपने गांव जाना हुआ। ज्यादातर रिश्तेदारों से शादी के बाद पहली बार मिलना हुआ, कुछ से तो दो दशकों में पहली बार। आख़िरी कस्बे के जर्जर रेलवे स्टेशन को छोड़ जब हमारी टैक्सी चली मुझे डर लगा कहीं रास्ता भूल आगे ना बढ़ जाऊं। इन रास्तों पर तो कुछ नहीं बदला था, बस इन सालों में मेरी दुनिया बदल गई थी। लेकिन हमारे टोले वाली गली ने सौ मीटर पहले ही मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया मुझे। इन रास्तों से पहचान के सारे तार खुद-ब-खुद जुड़ गए, सालों के फासले एक पल में मिट गए। गली के मुहाने पर दो काका कड़ी धूप में इंतज़ार कर रहे थे हमारा, चूंकि पता था साथ में जमाई बाबू भी आ रहे हैं। जमाइयों के लिए उमड़े इस अनावश्यक प्यार से पता नहीं क्यों अब मुझे जलन नहीं होती क्योंकि इसके मूल में बेटी के लिए खूब सारा प्यार और उससे कहीं ज्यादा उसकी फिक्र होती है।

Wednesday, September 9, 2015

ना खाएंगे ना....

कुछ साल पहले हमारे एक घर की रजिस्ट्री के लिए बिल्डर का मेल आया। आप 25 हज़ार रुपए कैश और बाकी के चेक के साथ रजिस्ट्री ऑफिस पहुंचिए। पता चला एक दिन में तीस लोगों को बुलाया जा रहा है। हमने हिसाब किया, कैश 11 हज़ार लगने चाहिए थे, फिर 25 लाने क्यों बोला? अब समझने को कोई रॉकेट साइंस तो था नहीं इसमें, सो थोड़ी बेचैनी हुई। खैर, पूरे पैसे लेकर पहुंचे। बिल्डर ओर से एक वकीलनुमा सज्जन थे वहां मदद के लिए। 
लोगों से 25 लेकर 11 की रसीद काटी जा रही थी, और आधे दिन की छुट्टी पर आए ज्यादातर कॉर्पोरेट सेवक हड़बड़ाए से अपना काम करवा रहे थे।
सत्या ने (मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर) पूछा,
“सर 14 ज्यादा क्यों दें हम?”
“वो इन लोगों के खर्चे-पानी के लिए”, आराम से जवाब आया। 

Friday, September 4, 2015

नींव की पहली ईंट

शनीचर सर। मेरी यादों में सिर्फ उनकी कहानियां हैं, ढेर सारी। ना उनकी शक्ल ठीक से याद है ना आवाज़। बस जबसे यादें सहेज कर रखने की उम्र शुरु हुई है, तब से ना जाने कितनी बार उनका नाम सुना है। उनकी कहानियां सुनी हैं, जिसमें वो होते हैं, मैं होती हूं और होती हैं मेरी शैतानियां।
उनसे मेरा रिश्ता कुछ यूं जुड़ा जब चार साल की बेहद बातूनी और बला की शरारती, लाड़ से बिगड़ी अपनी पोती को शाम के वक्त एक जगह पढ़ने बिठा पाने भर के लिए मेरे दादाजी को एक ट्यूटर की ज़रूरत महसूस हुई और वो मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंचे। प्रिंसिपल सर भी मुझसे वाकिफ रहे होंगे इसलिए उन्होंने इस काम के लिए सबसे योग्य शनीचर सर को मेरे घर जाने को कहा। मेरे पहले गुरु शनीचर सर खुद बस मिडिल पास थे, लेकिन छोटे बच्चों के फेवरिट। धैर्य गज़ब का रहा होगा उनमें।

Sunday, August 2, 2015

दोस्ती......यारियां.....बेईमानियां

उनका असल नाम कुछ और है ये हमें बहुत साल बाद पता चला। दादाजी उन्हें यारबुलाते थे और इसलिए वो हमारे लिए बस यार बाबा थे और पापा के यार काका। उस समय तक दादाजी कई शहरों में घूम-घामकर अपनी तीस साल की नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अपने शहर यानि दरभंगा में, बुढ़ापे के दिन बिताना चाहते थे। यार बाबा भी तब तक बिना एक दिन नौकरी पर गए और बिना दरभंगा से बाहर निकले भी बूढ़े हो चले थे और अपने स्कूल के दिनों के, पचास साल पुराने, अंतरंग दोस्त को वापस पाकर बड़े खुश थे। चूंकि दादाजी अपनी नौकरी की तरह अपने रिटायरमेंट को भी एन्जॉय करना चाहते थे, एकदम किंग साईज़, सो सुबह शाम उनके दोस्तों की पपलू की बाज़ी जमती हमारे बरामदे पर जो यार बाबा के बिना कभी पूरी नहीं हो पाती।