वक्त आने पर सही फैसले लेने की हिम्मत ना आर्थिक स्वतंत्रता से आती है ना ही स्कूली शिक्षा से। हां परिवार और परवरिश का इसमें योगदान ज़रूर हो सकता है लेकिन सबसे ज्यादा शायद व्यक्तित्व का होता है।
पिछली सर्दियों की
एक शाम बीमार कामवाली उसे लेकर घर आई।
“ये ही है मेरी बहू”, सास के बोलने की देर थी कि
गदबदे शरीर वाली उस सावंली सलोनी ने झट से बंगाली तरीके से मेरे पैर छुए और
बर्तनों से भरे सिंक की ओर चली गई। मशीन की गति से उसके मज़बूत हाथों ने मेरे
बर्तनों में जान डाल दी...वो बर्तन जो पिछले दो महीने से दो बार धोए जा रहे थे। एक
बार उसकी सास धोती जो अक्सर जूठे ही रह जाते और दूसरी बार मुझे धोने पड़ते। लेकिन
दिसम्बर-जनवरी के महीने में बर्तन वाली से झिक-झिक करने का जोखिम अनुभवी गृहस्थनें
नहीं उठातीं।