गलत कहता है
विज्ञान। समय कभी एक गति से नहीं चलता। अगर चलता तो छोटा सा बचपन ज़िंदगी का सबसे
लंबा हिस्सा कैसे लगता? सबसे ज्यादा कहानियां बचपन की, सबसे ज़्यादा यादें बचपन से।
बचपन की बस एक ही चीज़ छोटी होती है, स्कूल की छुट्टियां। खासकर तब, जब छुट्टियों
के उस पार बोर्डिंग वाला स्कूल इंतज़ार कर रहा हो।
बोर्डिंग से हमसे
ज़्यादा चिढ़ मां को थी। हम बोर्डिंग में होते तो मां रात-रात को उठकर रोतीं, पापा
से लड़तीं, अच्छी पढ़ाई के लिए बेटियों को हॉस्टल भेजने पर मां ने पापा को कभी माफ
नहीं किया। हर छुट्टी के बीतते-बीतते मां, पापा से छुपकर, हज़ार-हज़ार प्रलोभन
देती, “एक बार बोल दो नहीं जाना है, मत जाओ, यहीं के स्कूल में पढ़ना। छोटा है तो
क्या हुआ, पढ़ाई तो तुम्हारी मेहनत पर निर्भर करेगी।“ दिल डोल जाता, फिर हमारी
ज़रूरत की चीज़ें जुटाने में स्कूटर से शहर के कई-कई चक्कर लगाते पापा का चेहरा
याद आता और हम मन मार लेते। मां घर में तैयारियां करतीं और रोती रहतीं। पापा रोते
नहीं, आखें नम होती हों शायद, लेकिन मां के आसुंओं की बाढ़ में उनकी नम आखों की
याद हमेशा धुंधला जाती।
फिर दूर वाले
बोर्डिंग जाना पड़ा। भाषा नई, परिवेश नया, लोग नए। अकेले में खूब रुलाई आती, रात को
ही नहीं, अक्सर दिन में भी। तेरह-चौदह साल की उम्र में मन अपनी मर्ज़ी का हो जाने
के पक्ष में जाने कितने तर्क गढ़ लेता है। मां की बात एकदम सच लगने लगती है, इससे
तो स्कूल छोड़ घर वापस चलते हैं, थोड़ा कम अच्छा स्कूल ही सही, हम खूब मेहनत करके
पढ़ेंगे, बस कोई इस जेल से छुड़ाकर वापस घर ले चले अपने। इसी आशय का एक पत्र लिखकर
बाकायदा घर पर पोस्ट भी कर दिया। लेकिन जब तक चिट्ठी घर पहुंचती, नए दोस्त भी बन गए
और जगह से पराएपन की गंध भी कम होने लगी। फिर ध्यान आया, मां ने चिट्ठी पढ़कर पापा
को कितना परेशान किया होगा। बाद में पता चला वो चिट्ठी मां तक कभी पहुंची ही नहीं,
गेट पर ही पापा के हाथ लगी और गोल।
बेटियों के पापा,
चट्टान के ज़्यादा थिर। पापा कम बोलते, कम डांटते, बस देखते रहते, शब्द यूं भी
ज़्यादा कहां हैं उनके पास। जब डर लगा, कदम हिचकिचाए, पापा ने बस एक बात कही, “बस अपने सपनों का पीछा करो
और एक ही बात याद रखना, All your
successes are yours, all your failures will be mine, तुम्हारी सारी सफलताएं तुम्हारी, तुम्हारी सारी असफलताएं मेरी।“ इस एक पंक्ति के सामने जैसे
चुनौतियों के सारे पहाड़ ध्वस्त।
पापा के हौसले ने
कभी पीछे मुड़कर देखने नहीं दिया। पता नहीं हमने कितनी असफलताएं, कितनी निराशाएं
पापा की झोली में डालीं और हौसलों की नई खेप उनसे बटोर ली। धीरे-धीरे स्कूल,
कॉलेज बन गया और कॉलेज, ऑफिस। हमें रिपोर्टिंग की नौकरी की खुशी और पापा के सामने
मां का डर संभालने की चुनौती। हर स्टोरी के बाद पापा की बेबाक राय मिलती, बीट से
जुड़ी खबर किसी अखबार में आ जाए तो पापा तुरंत फोन कर बताते, “तुम्हारे चैनल पर तो दिखी
नहीं, ज़रा फॉलो करो।“ रात को शूट होते तो पापा, मां से छुपा लेने की ताकीद करते।
पापा की बेटियां
अपने सपनों को तलाशती घर से दूर चली गईं। छुट्टियां कम से कमतर होती चली गईं और
मां-पापा का साथ भी। फिर सबकी अपनी गृहस्थी के जंजाल शुरू हुए। मां के अकेलेपन की
कहानियां सुनते लेकिन पापा? पता नहीं। उनके मन की थाह किसे मिली है।
किसी शून्य से एक
आवेग उमड़ता है, सब स्थगित कर यूं ही कुछ दिनों के लिए घर आने का आवेग। फिर लगता, इसी
दिन के लिए तो इतनी मेहनत की। बिना बात छुट्टी लेकर घर आने पर पापा क्या कहेंगे। एक
दिन फोन पर रोकते-रोकते भी पापा के सामने बात निकल ही गई मुंह से। और पापा का जवाब
अप्रत्याशित सा आया, “जल्दी आ जाओ ना बेटा, छुट्टी ना हो तो भी आ जाओ, कभी-कभी
यूं भी आना चाहिए घर। इस बार तुम्हें देखे बहुत दिन हो गए।“
पापा की आंखें अब
अपनी नमी नहीं छिपा पातीं। पापा एक फोन, आने की एक खबर का इंतज़ार मां से ज़्यादा
शिद्दत से करते हैं। बेटियों के बच्चों के लिए पापा खुद खिलौना बन जाते हैं, उनका
सबसे प्यारा खिलौना।
ना, पापा हमेशा पापा
नहीं रहते, धीरे-धीरे मां बनने लगते हैं। और पापा, जैसे-जैसे मां बनते जाते हैं
उनका कद हमारी ज़िंदगी में बढ़ता चला जाता है।
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