Sunday, August 2, 2015

दोस्ती......यारियां.....बेईमानियां

उनका असल नाम कुछ और है ये हमें बहुत साल बाद पता चला। दादाजी उन्हें यारबुलाते थे और इसलिए वो हमारे लिए बस यार बाबा थे और पापा के यार काका। उस समय तक दादाजी कई शहरों में घूम-घामकर अपनी तीस साल की नौकरी से रिटायर हो चुके थे और अपने शहर यानि दरभंगा में, बुढ़ापे के दिन बिताना चाहते थे। यार बाबा भी तब तक बिना एक दिन नौकरी पर गए और बिना दरभंगा से बाहर निकले भी बूढ़े हो चले थे और अपने स्कूल के दिनों के, पचास साल पुराने, अंतरंग दोस्त को वापस पाकर बड़े खुश थे। चूंकि दादाजी अपनी नौकरी की तरह अपने रिटायरमेंट को भी एन्जॉय करना चाहते थे, एकदम किंग साईज़, सो सुबह शाम उनके दोस्तों की पपलू की बाज़ी जमती हमारे बरामदे पर जो यार बाबा के बिना कभी पूरी नहीं हो पाती।

ताश की तीन गड्डियों से खेला जाने वाला वो जुआ मेरे बचपन की सबसे बड़ी फंतासी थी। अपने जुए के पैसों को लेकर दादाजी बड़े सतर्क रहा करते थे। पान-पराग के खाली डब्बे में हर महीने की पहली तारीख को पांच रुपए से शुरुआत की जाती और महीने के आखिर तक किसी को भी उस डब्बे को हाथ लगाने की इजाज़त नहीं थी। जीत के पैसों से हमारे लिए चॉकलेट-टॉफी वगैरा आया करती थी। उनदिनों पपलू 50 पैसे का होता था और टपलू 20 पैसे का। कभी चाय तो कभी पानी लेकर मुझे ही बाहर जाना पड़ता और अक्सर मैं जानबूझकर दादाजी के पीछे खड़ी होकर खेल देखा करती। कई बार जब पत्तियां बांटी जा चुकी होतीं तो दादाजी पहले मुझे उनको हाथ लगाने को कहते ताकि लक्ष्मी उनके पास आए। पपलू खेलना मैंने उन्हें देख-देखकर यूं ही सीख लिया जैसे मछली तैरना सीखती है।

यूं ही उनके पीछे खड़ी रहकर मैं ये भी देखा करती कि कैसे दादाजी, दस-दस पैसों के लिए यार बाबा से बेईमानी किया करते थे। उन दिनों दस पैसे के नए सिक्के चलाए गए थे जो बिल्कुल चवन्नी के जैसे थे। नौकरी के दौरान पूरे डिपार्टमेंट में अपनी ईमानदारी के लिए मशहूर मेरे दादाजी, कम रोशनी का फायदा उठा कर, अक्सर उन्हें चवन्नी के बदले दस पैसे दे दिया करते, अपने हारने पर। कई बार पत्तियों में भी गड़बड़ी करते और पकड़े जाने पर साफ मुकर जाते। अक्सर लड़ाईयां होतीं, फिर अगले दिन जेठ की बारिश की तरह सब सामान्य हो जाता। लेकिन एक दिन इतनी ज़ोर की लड़ाई हुई कि मेरे साथ मम्मी भी बरामदे पर दौड़ी। यार बाबा तब तक गुस्से में गेट का बाहर निकल चुके थे और ताश की कई पत्तियां फटी बिखरी थीं चारों ओर। टोली के बाकी लोग हतप्रभ खड़े।

बरामदा कई दिनों तक सूना रहा। बारिश मॉनसून वाली हो गई थी..बूंदे बरसनी बंद तो हुई लेकिन कीचड़ खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। तीसरे दिन दादाजी से रहा नहीं गया। यार बाबा का घर गली में पीछे की ओर था इसलिए कहीं भी निकलने के लिए उन्हें हमारे घर के सामने से ही गुज़रना पड़ता। दादाजी ताक लगाए बैठे रहते और जब भी यार बाबा सामने से निकलते, ज़ोर-ज़ोर से उनका नाम लेकर पुकारने लगते ताकि चार और घरों के लोग भी सुन लें। आजिज आकर उन्होंने पीछे का लंबा रास्ता पकड़ लिया। दो दिन नज़र ही नहीं आए। दादाजी की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। इस बार वो चौराहे पर गए और हर किसी को बोल आए हमारा यार हमसे नाराज़ है और इस बार मान ही नहीं रहा।‘ 

फिर क्या था..चौराहे पर अड्डा जमाने वाला हर शख्स, वहां का हर दुकानदार आते-जाते यार बाबा को चलो जी जो हुआ जाने दो...बहुत हो चुका जाने दो वाले स्टाईल में समझाने लगा। (बाई द वे कभी हां कभी ना तब तक रिलीज भी नहीं हुई थी)  हफ्ते भर में यार बाबा हमारे बरामदे पर वापस थे....दादाजी के लिए अपनी चुनी हुई गालियों के साथ। फिर पैसे इकठ्ठा किए गए, ताश की नई गड्डियां लाई गईं और खेल वापस अपने पुराने ढर्रे पर। चौथे दिन से दादाजी की बेईमानी और पकड़े जाने पर साफ-साफ मुकरना भी फिर से शुरु। 

पूरी ज़िंदगी कभी नौकरी नहीं करने वाले हमारे यार बाबा को बुढ़ापे में अपने बेटे की दुकान पर बैठना पड़ता था हर शाम और दादाजी को ये बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। एक बार उन्होंने कहा भी था अपनी जवानी में काम किया होता बुढ़ापे में बेटे की नौकरी नहीं करनी पड़ती।

उन्हीं दिनों यार बाबा के एक बेटे की शादी हमारे गांव में तय हुई। दादाजी को फिर मौका मिल गया उन्हें चिढ़ाने का। वो उन्हें यार की जगह समधी जी बुलाने लगे वो भी लड़की वालों के स्टाईल में, एकदम विनीत भाव से हाथ जोड़कर और प्रत्युत्तर में हमेशा एक नई गाली मिलती उन्हें। 

कई बार दादाजी गांव चले जाते हफ्ते दस दिन के लिए तो यार बाबा बेचैन हो जाया करते। ये वो वक्त था जब हमारे बरामदे के बाहर लगी घंटी महीने में मुश्किल से एकाध बार बजा करती थी। बाकी के वक्त आगंतुकों के हकारे से या ग्रिल खड़काने से काम चल जाया करता। दादाजी की गैरहाज़िरी में यूं भी बरामदा सूना रहता। एक दिन बाहर से गुनगुनाने की आवाज़ आई। बाहर आकर देखा तो सोफे पर लेटे यार बाबा कामिनी कौशल के गाने गुनगुना रहे हैं। मुझे देखकर झेंप गए।
बस अभी आए हम, इस बार बहुत दिन लगा दिया गांव में सार.....कुछ बताया कब आएगा?’
चाय लेंगे बाबा?'                                                                                                                                                                            
नहीं…..आने दो उसको वापस....अपनी धोती संभालते वो चले गए।

मुझे हमेशा से यार बाबा, दादाजी से ज्यादा बूढ़े लगते….पोपले मुंह और धोती कुर्ते में। हमारे छह फुटे दादाजी की शैतानियों के सामने निरीह से। वैसे उन दोनों में अक्सर इस बात की तू-तू, मैं-मैं होती कि कौन दूसरे की तेरहवीं का भोज खाएगा। और वो हमेशा जवाब देते, 
तुम रिटायर होकर शरीर गिरा दिए हो, हम चलते-फिरते, काम करते रहते हैं....देखना पहले तुम ही जाओगे। जब दादाजी की किडनी में स्टोन का पता चला और डाक्टरों ने दिल्ली जाकर ऑपरेशन कराने की सलाह दी, यार बाबा सुबह शाम उनके सिरहाने बैठे रहते। उस समय उनकी बातें एकदम धीरे-धीरे होती और मैं डर जाया करती।
 
दादाजी को गए दस साल हो गए। अपने शहर, अपने घर से मेरा नाता तो उससे पहले ही टूट सा गया था। आज भी अपने मुहल्ले का कोई मिलता है तो पहले यार बाबा का हाल पूछती हूं। दो साल पहले तक तो थे। इन दो सालों में क्या हुआ कुछ पता नहीं। हमारे घर में अब किराएदार हैं....सो अपने दोस्त की याद आती भी होगी तो यार बाबा बरामदे पर बैठकर कामिनी कौशल के गाने नहीं गुनगुना पाते होंगे। वैसे भी शायद उस रास्ते से निकलना उन्होंने कब का छोड़ दिया होगा।

पता नहीं मरणपार के देश में दादाजी ताश की तीन गड्डियां लेकर अभी तक उनका इंतज़ार कर रहे हैं या उनसे बेईमानी कर लड़ना-झगड़ना शुरु कर दिया है फिर से।


22 comments:

  1. शानदार लिखा है। मन को छू गया।

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    1. बहुत धन्यवाद....ये मेरा पहला ब्लॉग और सबसे पहला कमेंट आपका :-)

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  2. शानदार लिखा है। मन को छू गया।

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  3. वाह, मजा आ गया! इस नयी शुरुआत के लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद आपका :-)

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  4. Ant me rula diya dost , behtarin shirshak✌️

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  5. उम्दा है! अपने बचपन की यादें ताजी हुई!

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    1. धन्यवाद सर..मेरी भी

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  6. Spontaneous and original...reminiscences of the Darbhanga days made me nostalgic...Dada Ji's "Shippu" is a natural storyteller...all the best !!!

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  7. beautifully written, didi...having met 'dadaji' helped visualize it to the end..will wait for ur next!

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  8. पिछली पीढ़ी से हमारी अगली पीढ़ी का नाता ही टूट गया है. हमारा अपना बचपन ननिहाल की ड्योडी से लेकर दादा के घर की चौखट तक पसरा हुआ, आज भी हमारी आँखों के सामने से गुज़र जाता है. यह एक मूक फिल्म की तरह है, जिसमे दृश्य तो हैं पर आवाज़ गायब है. आज की आपाधापी भरे जीवन में संवाद के आधुनिक साधन स्मार्ट फ़ोन से लेकर फेसबुक और ट्विटर तक ने भूगोल की दूरी
    को बेशक कम कर दिया है पर आपसी मेल-जोल और शारीरिक उपस्थिति को बढ़ा दिया है. वह ननिहाल में बड़ों के पैर छूना और गलबाहियों से आशीर्वाद पाना मानो ब्लैक एंड वाइट ज़माने की देवानंद-दिलीप कुमार की फिल्मों का होना हो गया है. आज के रंगीन दौर में चमकीलापन तो है पर जीवन की चमक और उसका रस मानो कमतर हो गया है. खैर, अपने घर-आँगन के इतिहास को अपनी संतान से साँझा करने और उनमें उसकी समझ पैदा करने का गुरुतर दायित्व हमारा ही है. सो, उस दिशा में यह एक पहल दूसरों के लिए भी दीये का काम करेंगी यही आशा है. दुनिया के चमकदार रोशनी में अपने गांव-खेत-चौबारे का अँधेरा भी दूर हो इसके लिए शहर से उन तक जाने वाले रास्तों की समझ का दिशा-बोध होना जरूरी है. इसके होने से ही खेत के दरवाजे के कोने में बनी समाधि पर अगरबत्ती-धूप की उपस्थिति ही चिर निद्रा में सोये पुरखों से नयी पीढ़ी का तार जुड़ेगा. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शहर में तो न अब खेत हैं, न समाधि बनाने की परंपरा सो हमारी किस्मत में तो बिजली के शवगृह में राख होकर मैली यमुना में तिरोहित होना बदा है.

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    1. आपने पसंद किया..तहे दिल से शुक्रिया...मैं पूरी कोशिश करूंगी उम्मीदों पर खरा उतरने की

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  9. अतिसुंदर दीदी !

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  10. chayavad ki ek aur sundar evam sanjida mishaal....thanks Shilpi....and keepit doing....

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  11. उम्दा. मार्मिक. बधाई!

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  12. बहुत सुंदर संस्मरण। दिल को छू गया।

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