Thursday, November 5, 2015

बाबा नागार्जुन और मेरी बहनें


दसवीं के बोर्ड के बाद की छुट्टियों के दौरान थोड़े दिनों के लिए गांव में थी। बाबा नागार्जुन से पहली बार तभी मिलना हुआ। दादाजी के एक चचेरे भाई उनके अच्छे दोस्त थे, उस दिन वो उनसे मिलने पहुंचे। यूं उनका गांव तरौनी हमारे गांव के पास ही था, लेकिन यायावर बैधनाथ मिश्र का ख़ुद अपने गांव जा पाना बहुत कम ही हो पाता था। उस समय तक मैं प्रेमचंद, शरत और शिवानी वगैरा में उलझी थी, सातवीं के कोर्स की किताब में बाबा की सिर्फ एक कविता पढ़ी थी, गुलाबी चूड़ियां
प्राईवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता भी तो है।


दादाजी मुझे लेकर उनसे मिलने बक़ायदा मेरी फाइल लेकर गए थे, जिसमें मेरे पास एकाधी बचकानी कविता-कहानियों के अलावा विश्व शांति और अहिंसा, जस्टिस डिलेड इज़ जस्टिस डिनाइड नुमा भारी भरकम शीर्षक वाले कुछ लेख थे जिन्हें स्कूल की प्रतियोगिताओं के आलावा स्थानीय रेडियो स्टेशन में पढ़कर मुझे यदा-कदा डेढ़ सौ रुपयों का चेक मिल जाया करता था। बाबा अपने मित्र के बरामदे में चौकी पर गावतकिया लगाए बैठे, अख़बार पढ़ रहे थे। उस दिन वो अपना इयरफोन भूल आए थे, सो ज्यादा बातें नहीं हो पाई। लेकिन मैग्नीफाइंग ग्लास से उन्होंने सारे पन्ने पढ़े, एक छोटी कहानी अपने साथ रखी, फिर बातें करने लगे, घर की, परिवार की, पढ़ाई की और मेरी बहनों की। फिर उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुस्कुराते हुए कहा, ये सब गंभीर विषय हैं, तुम अभी हल्के-फुल्के विषयों पर लिखा करो, मेरे लिए एक लेख लिखो, मैं और मेरी बहनें, हम पढ़ेंगे। मैंने सिर हिला दिया। वो हर बात पर संशय कर जिरह करने की उम्र थी, जिसे टीनएज भी कहते हैं, इसलिए मेरा बचकाना मन समझ नहीं पाया कि अपनी तीनों छोटी बहनों के साथ सुबह से शाम तक के बेज़रुरत के हंसी ठठ्ठे और बेमतलब की लड़ाइयों में लिखने जैसा क्या था, तब जबकि मैं देश और समाज की बड़ी समस्याओं पर बात करना चाहती थी।
कुछ महीने बाद, सर्दियों की एक शाम दरभंगा में घर पर ख़बर आई कि बाबा आए हुए हैं और मुझसे मिलना चाहते हैं। दादाजी के साथ मैं तुरंत निकली। उनके बड़े बेटे शोभाकांतजी लहेरियासराय में हमारे घर के पास रहते थे उन दिनों। उसी शाम शोभकांत काका के पूरे परिवार ने पूरी मैथिल आत्मीयता से अपना लिया मुझे। उस दिन बाबा ने अपने शाम का नाश्ता, नमकीन हलवा मुझे खिलाया और अपने साक्षात्कारों का संग्रह मुझे दिया, मेरे साक्षात्कार’। "इसे बहुत ध्यान से पढ़ना, धीरे-धीरे, बार-बार।" फिर पूछा, "तुमने लिखा क्या मैं और मेरी बहनें?"
तब तक मैं ग्यारहवीं के कैलकुलस और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक थ्योरी से जूझ रही थी, वो भी बेमन से। मैंने इंकार में सिर हिलाया। 
निकलने लगे तो बाबा ने कहा, "घर जाकर अपनी मम्मी को बोलना कल हम तुम्हारे घर मांगुर माछ खाने आएंगे।" 
उस एक शाम में वो मेरे लिए सबसे पहले मेरे बाबा हो गए। खबर पहुंचते ही मेरे घर में एकदम से उत्सव जैसा माहौल हो गया।
वो ठीक ग्यारह बजे आए और कहा कि नीचे बैठकर खाएंगे। फिर मम्मी को बड़े स्नेह से पास बिठाकर कहने लगे, "कांटा निकालकर दे दो, हमें दिखता नहीं है।" 
एक-एक टुकड़े से मम्मी कांटे निकालती रही और बाबा विभोर होकर खाते रहे। मम्मी के सिर पर हाथ रख उन्हें खूब आशीर्वाद भी दिया। हमारे पड़ोस में दरभंगा में अंग्रेज़ी के जाने-माने शिक्षक जगदीश कर्ण जी रहते थे। उनकी मां स्वतंत्रता सेनानी थीं, असहयोग आंदोलन के दौरान काफी सक्रिय रही थीं। बाबा उन्हें जानते थे, उनसे मिलने की ईच्छा जताई। उनका हाथ पकड़कर मैं और दादाजी उन्हें लेकर गए। अगल-बगल की कुर्सियों मैं बैठकर दोनों भाव-विह्वल होकर जैसे मिले, एक-दूसरे का हाथ पकड़कर डबडबाईं आखों से जैसे बातें करते रहे, मैं आज भी आंखें बंद करके उस अद्भुत क्षण को महसूस कर सकती हूं।
उम्र ने जल्दी ही बाबा का घूमना-फिरना एकदम से कम बंद कर दिया। अब वो ज्यादातर बड़े बेटे के पास दरभंगा में ही रहने लगे। अगले कुछ सालों के दौरान मैंने शोभाकांत काका के परिवार को लहेरियासराय में बाबा के साथ किराये के कई मकान बदलते देखा। थोड़े समय बाद उनकी सबसे बड़ी पोती ऋचा दीदी की शादी तय हुई। बाबा की आंखों में अद्भुत चमक थी उस शाम। बार-बार एक ही वाक्य दोहराते, "ऋचा आज श्रीमति जी बन गई।"
अपनी पहली मांग लेकिन बाबा अब भी नहीं भूले थे, कई बार याद दिलाते जाते कि मैंने उन्हें मैं और मेरी बहनें लिखकर नहीं दिखाया। मैं उन दिनों ज़िंदगी से अपने सवालों के जवाब मांगने में जुटी थी। प्लस टू में साइंस से जी एकदम उचट गया था, बड़ी अकुलाहट होती थी, हमेशा स्नेह रखने वाले शिक्षकों ने सवाल उठाने शुरु कर दिए थे। जिस उम्र में अपनी ही समस्याएं विकट लगती हों उस उम्र में इतनी समझदारी तो दूर-दूर तक मेरे हिस्से नहीं आई थी कि मेरा लिखा कुछ पढ़ने की इच्छा दिखाने वाले, जिनका अनुरोध में हर बार प्राथमिकता के निचले पायदान पर डाल देती हूं, वैसे ही जैसे अपने दादाजी का डाल दिया करती हूं, बाबा तो हैं, साहित्य के पुरोधा नागार्जुन भी हैं।
स्कूल के बाद घर में सब समझ गए कि साइंस में मेरा मन नहीं लगता, मैंने इंजीनियरिंग का ख्याल मन से निकाला और पटना यूनिवर्सिटी में इकोनॉमिक्स और मैथ्स की पढ़ाई शुरु की। बाबा को बताने गई तो उनका पहला सवाल था, रहतै कत्तs’ (रहेगी कहां)?
समस्या वाजिब थी, लेट एडमिशन के चलते उस साल कैंपस हॉस्टल मिल पाना संभव नहीं था। बाबा परेशान हो गए, पटना यूनिवर्सिटी में अपने कई जानने वालों के नंबर और पते दिए, कुछ के नाम चिट्ठी भी लिखी, हॉस्टल लेकिन नहीं मिला और मैं कॉलेज से काफी दूर एक प्राईवेट हॉस्टल में रहने लगी। उसके बाद मुझसे उनके सवाल बदल गए, जब भी मिलने गई बस यही पूछते हॉस्टल मिला क्या?’
कॉलेज में सांइस का भूत पीठ से उतरा तो मैंने कई दूसरे लेखकों के साथ बाबा को भी पढ़ना शुरु किया। लेकिन कविताओं की जगह उपन्यास। वो समाज के प्रस्तावित मानकों से विद्रोह की उम्र भी थी। और समय बीता तो ये भी समझ में आने लगा कि चार बहनों का हमारा परिवार मॉडर्न होने की चाह की देहरी पर खड़े, अभी भी संकुचित समाज, के रडार पर आ गया था। पूरी तरह से। मिथिला की लड़की, जिसके मां-बाप चार बेटियां होने के बावजूद उसे हॉस्टल भेजकर पढ़ा रहे थे, ना डॉक्टर बनने जा रही थी ना इंजीनियर। उसने बल्कि साइंस छोड़कर आर्ट्स पढ़ने की धृष्टता की थी। शुभचिंतकों के लिए ये बड़ी चिंता का विषय था, इसलिए 18 साल की उम्र से मेरी शादी के नित नए रिश्ते पापा को सुझाए जा रहे थे ताकि उनका बोझ थोड़ा हल्का हो जाए। क्या बाबा ने ये सब देख लिया था? हम सबके लिए वो कर के दिखाने का वक्त था शायद।
मेरे अंदर का विद्रोह अब नायिकाओं से हौसला लेने की चाहत में उनकी परिस्थितयों से सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करने लगा था। खरे सोने से चरित्र वाली शरत की नायिकाओं का आखिर में समाज और परिस्थितियों के आगे झुक जाना बेहद खलता (शेष प्रश्न तब तक मैंने नहीं पढ़ी थी), शिवानी की नायिकाओं का अभिजात्य अपने परिवेश से बेहद इतर लगता, नागार्जुन की नायिकाएं लेकिन अपने गुण और अवगुण, साहस और ग़लतियों के साथ संपूर्ण थीं, एकदम अकृत्रिम। अपनी ज़रुरतों और कामियों के प्रति एक साथ ही सजग और बेपरवाह। पुरुष प्रधान कहानियों में भी अपने पतियों ओर प्रेमियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का माद्दा रखने वाली। स्त्री के प्रति अन्याय का सामाजिक प्रतिकार अगर कहानी के मूल में ना भी हो तो भी कथानक में कहीं ना कहीं ज़रुर झलकता। उग्रतारा की उगनी जबरन विवाह से ऊबी, अपने प्रेमी को पाने के लिए गर्भावस्था में एक बार फिर घर छोड़ने का क़दम उठाती है और नायक उसी अवस्था में उसके सींथ में सिंदूर भी भरता है। बलचनमा का सवर्णों से विद्रोह भी, बहन रेबनी पर ज़मींदारी की ज़बरदस्ती की कोशिश से अंकुरित होता है। 
अब मैं बाबा से इन सब के बारे में बात कर सकती थी, करना चाहती थी, लेकिन उन्होंने बात करना काफी कम कर दिया था। शहर छूटने के बाद मेरा उनसे मिल पाना भी काफी अनियमित हो गया था।
उनके बड़े बेटे का पूरा परिवार पूरी निष्ठा से उनकी सेवा में जुटा रहा, खासकर उनकी बड़ी बहू। काकी, बाबा की नायिकाओं की तरह बेहद कर्तव्यनिष्ठ और जुझारू महिला थीं। बाबा उन्हें बहुत मानते थे, उनके कई इंटरव्यू में काकी का ज़िक्र पढ़ा था। एक दिन बातचीत में उन्होंने एक ऐसी बात कही जो मुझे अभी भी याद है, ये मेरे ससुर नहीं हैं, ससुर होते तो दालान पर बैठे मेरे घर की रखवाली करते, मेरे बच्चों को शास्त्र और श्लोक पढ़ाते, लेकिन इन्होंने इनमें से कुछ भी कभी नहीं किया, मैं इनकी सेवा इसलिए करती हूं क्योंकि ये मेरे गुरु हैं और इस देश की इतनी महान विभूति हैं जिन्हें संभालने की ज़िम्मेदारी हमारी है।
कैंपस का हॉस्टल मुझे सेकेंड इयर के बाद यानि 1998 में मिला। सामान शिफ्ट करके मैं गर्मी की छुट्टियों में दरभंगा गई। बाबा तब तक बिस्तर पकड़ चुके थे। उनकी चौकी के बगल में लकड़ी की कुर्सी की सीट को गोलाकार काटकर कमोड की शक्ल दे दी गई थी। उस समय डॉक्टर उन्हें देखने घर आए थे, काकी उन्हें बाबा की पीठ पर उभर आए बेड सोर दिखा रही थी। इस बार बाबा ने मुझे नहीं पहचाना। किसी ने उनके कान में जाकर कहा, 'शिल्पी आई है।'
'ओकरा होस्टल भेटलै कि नई?' (उसे हॉस्टल मिला या नहीं) उन्होंने एकदम क्षीण आवाज़ में पूछा।
उनकी बहु ने मेरी ओर देखा, मैंने बोलने के लिए मुंह खोला, लेकिन आवाज़ नहीं निकली, बस हां में सर हिला दिया। दो बार ज़ोर से बोलने पर बाबा ने हां सुना, और हल्के से मुस्कुरा दिए। वो आखिरी दर्शन था, बस।

बचपन शायद अनमोल निधियों को गंवा देने की नादानियों का दूसरा नाम भी है। 

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