Friday, September 4, 2015

नींव की पहली ईंट

शनीचर सर। मेरी यादों में सिर्फ उनकी कहानियां हैं, ढेर सारी। ना उनकी शक्ल ठीक से याद है ना आवाज़। बस जबसे यादें सहेज कर रखने की उम्र शुरु हुई है, तब से ना जाने कितनी बार उनका नाम सुना है। उनकी कहानियां सुनी हैं, जिसमें वो होते हैं, मैं होती हूं और होती हैं मेरी शैतानियां।
उनसे मेरा रिश्ता कुछ यूं जुड़ा जब चार साल की बेहद बातूनी और बला की शरारती, लाड़ से बिगड़ी अपनी पोती को शाम के वक्त एक जगह पढ़ने बिठा पाने भर के लिए मेरे दादाजी को एक ट्यूटर की ज़रूरत महसूस हुई और वो मेरे स्कूल के प्रिंसिपल के पास पहुंचे। प्रिंसिपल सर भी मुझसे वाकिफ रहे होंगे इसलिए उन्होंने इस काम के लिए सबसे योग्य शनीचर सर को मेरे घर जाने को कहा। मेरे पहले गुरु शनीचर सर खुद बस मिडिल पास थे, लेकिन छोटे बच्चों के फेवरिट। धैर्य गज़ब का रहा होगा उनमें।
मुझ जैसी को अगर उन्होंने एक घंटा बैठा लिया होगा तो उनके धैर्य की गारंटी तो मैं लेती हूं। सुना है उनके साथ मेरे बैठने की शुरुआत इस शर्त के साथ हुई थी कि वो मुझे पढ़ाएंगे नहीं। इसलिए वो सामने बैठकर मुझे कहानियां सुनाते। तीन राजकुमारों की, लालची कुत्ते की, टोपीवाले और बंदरों की। फिर पूछते, "बीस टोपी बंदर ले गए और टोपी वाले के पास बची पांच। बताओ कितनी टोपी लेकर चला था वो?" 
कई बार उन्हें टॉफियों का सहारा भी लेना पड़ता। 
"मेरे पास 5 टॉफी है, दो तुमको दिए तो कितना बचा?"
"पहले दीजिए फिर बताएंगे," मेरा जवाब होता। 
टॉफियां हाथ में लिए ज्यादातर दादीमां खड़ी होतीं पीछे। और इसके बीच अगर कहीं मैंने ये सूंघ लिया कि मुझे पढ़ाया जा रहा है तो खेल खत्म।
मुझे अक्षरज्ञान करा दिया उन्होंने, पढ़ना-लिखना भी सिखा दिया और जोड़-घटाव भी। केवल मेरी लिखावट सुधार नहीं सके। लेकिन इसका किसी को मलाल नहीं क्योंकि खराब हैंडराईटिंग हमारी ख़ानदानी प्रॉब्लम रही है। 
मैं छह साल की रही होउंगी जब दादाजी का मधुबनी से ट्रांसफर हो गया और शनीचर सर मेरे बचपन की याद भर में सिमट कर रह गए। हम वहां रह भी गए होते तो भी ज्यादा दिन वो पढा नहीं पाते मुझे। लेकिन उसके बाद सालों तक मेरी छोटी-बड़ी हर सफलता पर एक बार उनके नाम का ज़िक्र ज़रुर छिड़ता घर में। वो सुनते तो बहुत खुश होते। 
दादीमां कहतीं, "तुम अच्छा रिज़ल्ट लाओगी तो तुमको लेकर चलेंगे उनसे मिलाने उनके लिए नए कपड़े लेकर।" सबकी कहानियां सुन-सुनकर मैंने अपने दिमाग में उनकी पुख्ता तस्वीर जीवंत कर ली। धोती-कुर्ते और खिचड़ी बालों में, मीठी सी आवाज़ के साथ।

रोज़मर्रा की तमाम ज़रूरी, ग़ैरज़रूरी कामों में जाना कभी नहीं हुआ, बावजूद इसके कि इसके बाद 10-12 साल हम उस शहर से एक-डेढ़ घंटे की दूरी पर रहे होंगे। दूरियां बढ़ती गईँ, अपना शहर भी छूटा, प्रदेश भी और एक सीमा तक यादें भी। फिर भी जब-जब बच्चों को अक्षरज्ञान कराने में तारे दिखे उन्हें याद किया।  

उम्र होने के बाद अक्सर बचपन के जिए दिनों और बचपन में बार-बार सुनी कहानियों का अंतर खत्म होने लगता है। इसलिए कई बार ऐसा महसूस होता है कि मैं मिल आई उनसे। अच्छे स्कूल में प्रवेश पाने के बाद, बोर्ड के रिज़ल्ट के बाद, नौकरी मिलने के बाद। मलमल का कुर्ता और झक्क सफेद धोती लेकर गई उनसे मिलने।


लेकिन जानती हूं मैं कभी नहीं गई। और मेरे बहुत सारे अफसोसों की लिस्ट में ये एक अफसोस भी शामिल रहेगा हमेशा। तकनीक के इस तंत्रजाल में भी मैं उन्हें ढूंढ नहीं सकती। क्या कोई ऐसा है जो मधुबनी के आदर्श शिशु विद्यालय में 1983-84 के दौरान पढ़ाने वाले मेरे शनीचर सर को ढूंढ लाए या मुझे उनका पता ही बता दे। 


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