Wednesday, September 9, 2015

ना खाएंगे ना....

कुछ साल पहले हमारे एक घर की रजिस्ट्री के लिए बिल्डर का मेल आया। आप 25 हज़ार रुपए कैश और बाकी के चेक के साथ रजिस्ट्री ऑफिस पहुंचिए। पता चला एक दिन में तीस लोगों को बुलाया जा रहा है। हमने हिसाब किया, कैश 11 हज़ार लगने चाहिए थे, फिर 25 लाने क्यों बोला? अब समझने को कोई रॉकेट साइंस तो था नहीं इसमें, सो थोड़ी बेचैनी हुई। खैर, पूरे पैसे लेकर पहुंचे। बिल्डर ओर से एक वकीलनुमा सज्जन थे वहां मदद के लिए। 
लोगों से 25 लेकर 11 की रसीद काटी जा रही थी, और आधे दिन की छुट्टी पर आए ज्यादातर कॉर्पोरेट सेवक हड़बड़ाए से अपना काम करवा रहे थे।
सत्या ने (मोबाइल का रिकॉर्डर ऑन कर) पूछा,
“सर 14 ज्यादा क्यों दें हम?”
“वो इन लोगों के खर्चे-पानी के लिए”, आराम से जवाब आया। 


“लेकिन ये तो घूस हुआ ना?”
“हां हुआ तो? आपको नहीं देना तो आप नेता बन जाईए”, उन्होने हड़काते हुए कहा, “एक तो हम आपका काम एक ही दिन में करा रहे हैं”,
सनद रहे तब तक भ्रष्टाचार मिटाओ के आकाश पर ना केजरीवाल ना मोदी ही उदित हुए थे।
ख़ैर रिकॉर्डिंग हमारे पास थी, एकाध मिलते-जुलते विचार के लोग भी मिल गए। हमने एक अख़बार के रिपोर्टर को फोन किया। उन्होंने व्यस्तता के कारण आने में तो असमर्थतता जताई लेकिन अपना फोटोग्राफर भेज दिया साथ ही अपने दूसरे मित्रों को भी फोन कर दिया। आधे घंटे में चार-पांच अखबार और एकाध चैनल वाले वहां पहुंच गए।
झटका तब लगा जब अंदर से ज्यादा खलबली बाहर मची। तीसों परिवारों से हमने आग्रह किया कि ज्यादा पैसे ना दें ताकि इन लोगों पर प्रेशर बना रहे। एक-एक का हाथ पकड़ कर रोकने की कोशिश की। लेकिन ज्यादातर ने हमें ही उपदेश दे दिया।
“हमारे पास इतना वक्त नहीं जो हम इन चक्करों में छुट्टियां बर्बाद करें”
“आप बनते रहिए अबदुल्ला”
“कहीं बिल्डर ने चाभी नहीं दी तो 14 हज़ार के चक्कर में लाखों का घर फंस जाएगा”.....वगैरा, वगैरा
अपने हिस्से का घूस देने के बाद कुछ जागरुक टाईप विचारकों ने हमें नसीहत भी दे डाली,
“इन लोगों को रोक कर क्या होगा जी, बिड़ला, अंबानी ही कौन से दूध के धुले हैं, ये सब करना ही है तो वहां से शुरुआत करिए”
आखिरकार, हमें मिलाकर 30 में 3 लोग ऐसे निकले जिन्होंने बाकियों से 2 घंटे ज्यादा खर्चे, घूस नहीं दिया और अपना काम करवा कर वापस आए।
ख़बर अगले दिन अख़बारों में थी, बिल्डर शरीफ सा था, उसने वकील की छुट्टी का एलान किया। और हफ्ते भर की देरी के बाद हमें चाभी भी मिल गई।
कहानी इतने सालों बाद इसलिए याद आई कि उस वक्त कुछ हितैषी दोस्तों ने झिड़की के साथ नसीहत दे डाली थी,
“अजीब बौड़म हो तुम लोग, बाल-बच्चेदार होकर इन बिल्डरों से पंगा लेने पहुंच गए, पता नहीं कैसे क्रिमिनल टाइप होते हैं ये 

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