बचपन से सुनती आई,
हमारे गांव ‘नेहरा’ को उसकी समृद्धि और विकास के कारण मिथिला का पेरिस कहा जाता है। संयोग ऐसा कि
इस बार जब दो दशक बाद गांव जाना हुआ तो पेरिस समेत कुछ और यूरोपीय देशों की यात्रा
से तुंरत लौटी थी। सो बचपन से सुनी गई तुलना और प्रत्यक्ष में झलकते विरोधाभास और
व्याजोक्ति ने बरबस मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया। पटना से नेहरा तक सड़क के रास्ते
बदलाव टुकड़ों में दिखा। पटना से निकले और एक ओर से आधे टूटे गांधी सेतु पर ज्यादा
ट्रैफिक नहीं मिला तो ड्राईवर ने चैन की सांस ली। हाजीपुर और मुज़फ्फरपुर के
रास्ते कमोबेश वैसे ही लगे। मुज़फ्फरपुर से सकरी की सड़क लेकिन विकास का उद्घोष कर
रही थी। सकरी स्टेशन के बाद के सात किलोमीटर कैनवास के उस कोने से लगे जिसके होने
ना होने का चित्रकार को आभास ही नहीं रहा।
गर्मी की छुट्टियां चल रहीं थीं, साल भर बंद रहने वाले कई घरों के ताले खुले थे। कई अपनी छुट्टियां बिताकर लौट चुके थे। उनसे नहीं मिल पाने का अफसोस किया तो पता चला ज्यादातर दिल्ली में ही हैं। सालों बाद जिनसे हुलस कर मिल रही थी या कई चेहरे ऐसे जिन्हें भूल सी गई थी, उनमें से कई मेरे घर के 50 किलोमीटर के दायरे में ही रह रहे थे। ज्यादातर के होने का मुझे बिल्कुल पता नहीं था। वे जानते थे मगर। फिर भी यहां रहकर मिलते रहने का कोई प्रयास नहीं। गलती हममे से किसी की नहीं। दिल्ली और गांव का अंतर दो जहान का अंतर है। गांवों में रिश्ते अमूमन उम्र से तय होते हैं। ऐसा नहीं है कि यहां रिश्तों में हैसियत का वज़न नहीं होता लेकिन पांव पर उसे ही झुकना पड़ता है जिसकी उम्र कम हो। महानगर में रिश्ते तय करने की कई-कई विभाजक रेखाएं होती हैं और उतने ही बहुआयामी समीकरण भी बन जाते हैं। आपके पते से लेकर, घर के कमरों और कमरों में एसी की गिनती, गाड़ी के मॉडल, यहां तक कि आपकी पहुंच के शॉपिंग मॉल और मॉल के अंदर की दुकानें तक तय करती हैं कि आपके रिश्ते किसके साथ बनेंगे और किसके साथ निभेंगे। सो सबने रिश्ते निभाने का काम गांव यात्रा के लिए छोड़ रखा है।
गर्मी की छुट्टियां चल रहीं थीं, साल भर बंद रहने वाले कई घरों के ताले खुले थे। कई अपनी छुट्टियां बिताकर लौट चुके थे। उनसे नहीं मिल पाने का अफसोस किया तो पता चला ज्यादातर दिल्ली में ही हैं। सालों बाद जिनसे हुलस कर मिल रही थी या कई चेहरे ऐसे जिन्हें भूल सी गई थी, उनमें से कई मेरे घर के 50 किलोमीटर के दायरे में ही रह रहे थे। ज्यादातर के होने का मुझे बिल्कुल पता नहीं था। वे जानते थे मगर। फिर भी यहां रहकर मिलते रहने का कोई प्रयास नहीं। गलती हममे से किसी की नहीं। दिल्ली और गांव का अंतर दो जहान का अंतर है। गांवों में रिश्ते अमूमन उम्र से तय होते हैं। ऐसा नहीं है कि यहां रिश्तों में हैसियत का वज़न नहीं होता लेकिन पांव पर उसे ही झुकना पड़ता है जिसकी उम्र कम हो। महानगर में रिश्ते तय करने की कई-कई विभाजक रेखाएं होती हैं और उतने ही बहुआयामी समीकरण भी बन जाते हैं। आपके पते से लेकर, घर के कमरों और कमरों में एसी की गिनती, गाड़ी के मॉडल, यहां तक कि आपकी पहुंच के शॉपिंग मॉल और मॉल के अंदर की दुकानें तक तय करती हैं कि आपके रिश्ते किसके साथ बनेंगे और किसके साथ निभेंगे। सो सबने रिश्ते निभाने का काम गांव यात्रा के लिए छोड़ रखा है।
मैं जिन घरों में गई
लिम्का या कोका कोला के ठंढे ग्लास तुरंत ट्रे में रखकर लाए गए। ‘तुमलोगों को आदत होगी
इसकी’, मुझसे कहा गया। मैं बताती बताती थक गई कि सालों से मेरे घर में कोल्ड ड्रिंक
खरीदा जाना लगभग बंद है, मैं तो पैकेज्ड जूस भी नहीं खरीदती लेकिन गांव में अब ये
स्टेटस सिंबल हैं। यकीन मानिए 50 रुपए में दो लीटर की ठंढी बोतल स्टेटस बढ़ाने का
सबसे त्वरित तरीका है।
नेहरा, दरभंगा के
सांसद कीर्ति आज़ाद की ससुराल भी है (कीर्ति खुद भागलपुर से हैं)। लेकिन सांसद से
जुड़े होने का इस गांव को कोई फायदा मिला हो ऐसा नज़र नहीं आता। कीर्ति आज़ाद यूं
भी गांव में बहुत लोकप्रिय कभी नहीं रहे। नेहरा के लोग वैसे भी अक्खड़ होने की
सीमा तक स्वाभिमानी होने का दंभ भरते हैं। बिल्कुल ‘खाएंगे गेहूं नहीं तो रहेंगे एहूं’ टाईप।
इस बार की बातचीत
में 'सुनील चौधरी' की बड़ी चर्चाएं सुनीं। पता चला, गांव में पले बढ़े सुनील का ‘कशिश’ डेवलपर्स नाम से रीयल
स्टेट बिजनेस अच्छा जम गया है। जर्जर हाल की कुछ चीनी मिलें भी उन्होंने ख़रीदीं
हैं। सुनील की चर्चाएं यहां इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने गांव के नौजवानों को
ढूंढ-ढूंढकर अपनी कंपनी में नौकरियां दी हैं। बचपन में उनके दोस्त रहे मेरे कुछ
भाई भी उनके साथ काम कर रहे हैं। इनमें से किसी की नौकरी गांव में नहीं है।
दिल्ली, मुंबई,
पटना, जिसे जहां जगह मिली, थोड़ी उम्मीद दिखी चला गया है। जर्जर ज़मींदारी के
टुकड़ों में ज्यादातर के पास नाममात्र की ज़मीनें बची हैं। कुछ की तो इतनी कम कि
पूरी तरह बेच कर प्राईवेट कॉलेज में बेटे की इंजीनियरिंग की फीस भर दे लें। ऐसे
लोगों के लिए समृद्धि का केवल एक ही रास्ता है, पालायन। जो दिल्ली, पटना नहीं
पहुंच सका वो दरभंगा में काम कर रहा है, गांव लेकिन कोई नहीं रहना चाहता, कम से कम
मेरी पीढ़ी का। जिसके बारे में पूछो, दो शब्द बताए जाते हैं, 'दिल्ली' और 'प्राईवेट कंपनी'। ये प्राईवेट कंपनी 'सुलभ शौचालय' से लेकर 'मैकेंज़ी' तक कोई भी हो सकती है। कंपनी का नाम नहीं बताया जाए तो पूछने वाला समझ जाता है, बताने लायक कुछ नहीं। सरकारी नौकरियां ज्यादातर अनुकंपा के आधार पर मिली हैं यानि जिनके
पिता सरकारी नौकरी के दौरान ही चल बसे उनकी पिता की जगह नियुक्ति। दो पीढ़ी पहले
तक यहां रहे फलाने जज साहब, फलाने डॉक्टर साहब की बाद की पीढ़ियां इस गांव से कब
का रिश्ता तोड़ चुकी हैं।
मेरे घर के आयोजन में
काम बंटाने आई ब्राह्मणी नौकरानी रामसखी का पूरा परिवार भी दिल्ली में है। उसने मौका
पा कर मुझे अपनी कई दिल्ली यात्राओं की कहानी सुना डाली। शाहदरा से लेकर नेहरु नगर
और संगम विहार तक की। वो मुझे इन जगहों तक जाने वाली बसों के नंबर तक बताने वाली
थी लेकिन आंगन में झाड़ू लगाने के लिए उसकी पुकार हुई और उसे उठ जाना पड़ा।
लब्बोलुआब ये कि दिल्ली अब यहां से किसी के लिए भी दूर नहीं रही। बस सबकी दिल्लयां
अलग-अलग हैं। गुड़गांव, नोएडा से लेकर द्वारका, रोहिणी और पांडव नगर, कटवारिया
सराय से लेकर मदनगीर और संगम विहार के बीच करीने से बंटी हुई। दिल्ली पहुंचना आसान
भले हो लेकिन ये दूरियां मिटा पाने में अभी और पीढ़ियां चुकेंगी शायद।
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