वक्त आने पर सही फैसले लेने की हिम्मत ना आर्थिक स्वतंत्रता से आती है ना ही स्कूली शिक्षा से। हां परिवार और परवरिश का इसमें योगदान ज़रूर हो सकता है लेकिन सबसे ज्यादा शायद व्यक्तित्व का होता है।
पिछली सर्दियों की
एक शाम बीमार कामवाली उसे लेकर घर आई।
“ये ही है मेरी बहू”, सास के बोलने की देर थी कि
गदबदे शरीर वाली उस सावंली सलोनी ने झट से बंगाली तरीके से मेरे पैर छुए और
बर्तनों से भरे सिंक की ओर चली गई। मशीन की गति से उसके मज़बूत हाथों ने मेरे
बर्तनों में जान डाल दी...वो बर्तन जो पिछले दो महीने से दो बार धोए जा रहे थे। एक
बार उसकी सास धोती जो अक्सर जूठे ही रह जाते और दूसरी बार मुझे धोने पड़ते। लेकिन
दिसम्बर-जनवरी के महीने में बर्तन वाली से झिक-झिक करने का जोखिम अनुभवी गृहस्थनें
नहीं उठातीं।
वो तो मेरी किस्मत
से सास के हाथ-पैरों में सूजन आ गई औऱ डॉक्टर ने उसे पानी छूने से मना किया और
मेरी रसोई के अच्छे दिन लौट आए नहीं तो तीन महीने पुरानी अपनी इकलौती बहू को इस
तरह काम वो कभी नहीं भेजती।
“लउ मेरीज है हमारी”, सलाद काटते-काटते बहु ने अपनी सजीली मुस्कान के साथ मुझे बताया।
“फंसा लिया मेरे इकलौते बेटे को, उसकी सास मुझे महीना भर
पहले ही बता चुकी थी, जिस कोठी में ये अपनी मां के साथ दिन भर का काम करती थी
वहीं राज मिस्त्री का काम करने गया मेरा बेटा और अठ्ठारह साल की उम्र में
ही शादी करने की ज़िद कर बैठा। तीन बहनों वाले घर से सीधे इकलौते बेटे वाले घर
आ पहुंची किस्मत की धनी, जहां कनेक्शन वाला बड़ा गैस भी है, हीटर भी और पानी गरम
करने वाला राड भी। और तो और पखाना-बाथरूम भी घर ही में है।“
“वो बाईस के हैं और मैं उन्नीस की” बहू ने घर में आए चार
मेहमानों के हिसाब से परात भर आंटा गूंधते हुए मुझे सुनाया, मानो कह रही हो एकदम मच्यौर
डिसीजन है हमारा, इसे कच्ची उम्र का प्यार समझने की भूल मत करना।
मेरा दिमाग लेकिन इस
ओर लगा रहा कि कैसे सास को घर बिठा बहू से काम करवाने का फैसला करवा लूं। बड़ी
मुश्किल से सास इस बात के लिए राज़ी हुई और मेरी गृहस्थी के दिन पलट गए। महीना भी
नहीं हुआ था कि एक दिन की छुट्टी के बाद लौटी बहू ने काम छोड़कर जाने का एलान
किया। मेरे ऊपर फिर से घड़ों पानी पड़ गया। गुस्से में मैंने उससे बात नहीं की।
अगली शाम वो मेरे पास सिर झुका कर खड़ी हो गई, “दीदी, आप गुस्सा मत होना, मैं आपका काम ही नहीं,
अपने ससुराल का घर ही छोड़कर जा रही हूं।“
इस बार चौंकने की
बारी मेरी थी। उसके मुंह से जो कहानी सुनी तो कई मिनट तक कुछ बोलने की हिम्मत नहीं
हुई।
उसके ससुराल के घर
में एक मुंहबोले चाचा का बहुत आना-जाना था। एक शाम वो आया तो घर में केवल सास-बहु
ही थीं। जितनी देर में वो चाय बनाने गई, सास कमरे से निकल चुकी थी। रिश्ते के उस
ससुर ने उससे ज़बरदस्ती की कोशिश की। किसी तरह खुद को छुड़ा वो घर से भागी। सास ने
उल्टे उसे ही खरी-खोटी सुनाई और पति और बेटे को भी कहानी पर विश्वास नहीं करने को
कहा। कई दिनों तक वो परेशान, रोती रही। पास-पड़ोस में बात की तो पता चला सास और
उसके तथाकथित देवर के किस्सों के चर्चे यहां सबको पता हैं। वो पैसे वाला है, गांव
के कुछ मकानों का मालिक, इनके घर के खर्चे भी उठाता है इसले मेरे निठल्ले ससुर को
कोई आपत्ति नहीं। सब सुन-समझकर एक दिन की छुट्टी लेकर वो मायके गई, मां-बाप के घर
के बगल में एक किराए का कमरा लिया और लौटकर अपने पति को अल्टीमेटम दे दिया, ‘साथ चलना है तो चलो नहीं तो
मैं अकेली ही घर छोड़कर जा रही हूं।‘
कहानी सुनाते-सुनाते
वो रोती जा रही थी, “बताओ दीदी, खुद की बेटी होती तो ऐसा होने देती क्या? मेरा पति साथ चलने को तैयार
है दीदी। मैं इस घर में ये सोच कर आई थी कि खूब काम करके सबको खुश रखूंगी। एक ही
बेटा-बहू है तो भी इनको कभी तकलीफ नहीं होगी। लेकिन यहां रही तो उस आदमी से खुद को
ज्यादा दिन बचा नहीं पाऊंगी। जिस दिन सास को मेरी ज़रूरत होगी अपने पास बुलाकर
सेवा करूंगी, लेकिन उनके घर में कभी वापस नहीं आऊँगी।“ आखिरी वाक्य बोलते-बोलते
उसकी आवाज़ में अनोखा आत्मविश्वास भर गया। मैं एकटक चौथी पास उस लड़की का चेहरा
देखती रही।
“आप चिंता मत करो दीदी, आपके घर किसी को लगाए
बिना नहीं जाऊंगी, आप बस आर्शीवाद दो कि इस ससुराल में मुझे लौटकर नहीं आना पड़े।“
मेरे मुंह से बस यही
निकला, आमीन।
कहने की ज़रूरत नहीं
कि उसके बाद उसकी सास को मैंने आजतक अपने घर के आसपास नहीं देखा।
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