19 साल बाद अपने गांव जाना हुआ। ज्यादातर रिश्तेदारों से शादी के बाद पहली बार
मिलना हुआ, कुछ से तो
दो दशकों में पहली बार। आख़िरी कस्बे के जर्जर रेलवे स्टेशन को छोड़ जब हमारी
टैक्सी चली मुझे डर लगा कहीं रास्ता भूल आगे ना बढ़ जाऊं। इन रास्तों पर तो कुछ
नहीं बदला था, बस इन सालों में मेरी दुनिया बदल गई थी। लेकिन हमारे टोले वाली गली
ने सौ मीटर पहले ही मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया मुझे। इन रास्तों से पहचान के सारे
तार खुद-ब-खुद जुड़ गए, सालों के फासले एक पल में मिट गए। गली के मुहाने पर दो
काका कड़ी धूप में इंतज़ार कर रहे थे हमारा, चूंकि पता था साथ में जमाई बाबू भी आ
रहे हैं। जमाइयों के लिए उमड़े इस अनावश्यक प्यार से पता नहीं क्यों अब मुझे जलन
नहीं होती क्योंकि इसके मूल में बेटी के लिए खूब सारा प्यार और उससे कहीं ज्यादा उसकी
फिक्र होती है।
गाड़ी से वहीं उतर मैं पैदल ही अपने घर की ओर बढ़ गई। कुछ नहीं बदला यहां, फिर
भी कितना कुछ बदल गया है। गली वैसी ही ऊबर-खाबड़ लेकिन और पतली लग रही है। आगे की
खुली जगहों को घेर गली के मुहाने तक कमरे और बरामदे जुड़ गए हैं। बड़े-बड़े अंगनों
के बीच कई-कई दीवारें उग आई हैं। अगर आप भूल गए हों कि किस परिवार में कितने भाई
थे तो ये दीवारें गिन लीजिए। साफ-सुथरी दीवार और घर का मतलब परिवार अभी भी यहीं रह
रहा है। बंद जंगले और काली दीवारें यानि यहां कोई नहीं रहता अब, मन उचट गया यहां
से, अपनी जड़ें, अपना अधिकार, लेकिन कोई नहीं छोड़ना चाहता। कुछ दरवाज़ों के ताले तो
बस गर्मी की छुट्टियों और छठ के दिनों में खुलते हैं।
इसके पहले बारहवीं के बोर्ड के बाद यहां आई थी। कितनी हलचल रहती थी यहां, हर
घर से रिश्ते की ढेरों बहनें निकल आती थीं। जिनकी शादियां हो गई थीं उनके पहले
बच्चे यहीं पल रहे थे, नानी और मौसियों के पास। हर दरवाज़े पर कितने तो बाबा लोग
थे, और उतना गुना था प्यार उनका।
ये गांव, मेरा घर कभी नहीं था, यहां जब भी आना हुआ मेहमान बनकर ही। दादाजी के
बड़े भाईयों के घर। मैं क्या मेरे पापा भी यहां नहीं रहे कभी। दादाजी ने
रिटायरमेंट के कई साल बाद यहां अपना घर ज़रूर बनवाया, वहां भी ज्यादा दिनों
के लिए नहीं रह पाते थे। फिर भी ये जड़ है हमारी, इस मिट्टी का मोह कभी नहीं जाने
वाला था। मेरी ज़िंदगी के बीच के 19 साल जैसे फुर्र से उड़ गए थे हवा में। अपने घर
के दरवाज़े पर इंतज़ार करती काकियों से लिपट गई मैं। वैसी की वैसी थीं सब,
इक्के-दुक्के बालों की चांदी के अलावा कहीं कुछ नहीं बदला था उनके दमकते चेहरों पर
(शुक्र है अपने बालों की चांदी मैं हेयर कलर के नीचे छिपा आई थी)। बस प्रमोशन हो
गया था सबका, लगभग सभी सास-ससुरों के गुज़र जाने के बाद अब वो यूं गली में खड़ी होकर
बातें कर सकती थीं।
‘सारे
घर कितने बदल गए हैं ना’, मेरे मुंह से बस इतना निकला।
‘लोग
बदल गए हैं तो घर कब तक वैसे ही रहते’, एक ने मेरा सामान
लेते हुए प्यार से कहा।
मेरी आंखें जाने क्यों भर आई। इस हलचल में भी अजीब सा सन्नाटा पसरा था। इनमें
से कितनों की आपस में अब बात नहीं होती। एक दूसरे के घर आना जाना बंद है। मेरे
मां-बाप से भी कईयों की शिकायत होंगी, बहुत सारी। फिर भी प्रत्यक्ष में मुझसे कोई
दुराव नहीं। मैं बेटी हूं यहां की और बेटियां सबकी होती हैं हमारे गांव में, किसी
एक की नहीं।
शाम हुई तो लोग जुटने शुरु हुए। दूर के रिश्ते की कई भाभियां मुझे और मैं
उन्हें पहली बार देख रही थी। मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती थी...बस उनकी
शक्लों को चचेरे, फुफुरे
भाईयों के नामों से जोड़ने की कोशिश कर रही थी। ख़ुद उनके नाम याद करने का कोई
फायदा नहीं था, फलां-फलां की पत्नी से वो सब किसी ना किसी की
मां बन गई थीं अब और उसी नाम से जानी-जाती थीं।
उन्होंने मेरे बारे में बहुत कुछ सुना था, मुझे टीवी पर देखा था। अब मुझे पास से देखना चाहती थीं।
उन्हें शायद पता नहीं था कि अब मैं भी ज्यादातर मां ही हूं, बाकी
सब बाद में, थोड़ी-थोड़ी, कहीं-कहीं
से। शादी के बाद पहली बार गांव जाना हुआ था सो मां और सास की ताकीद पर गला,
कान, हाथ हर जगह गहने थे और पहनने को भी बस साड़ियां
साथ थीं। उनकी कौतूहल भरी आखों में जाने क्यों मुझे निराशा दिखी। अरे इसी के बारे
में इतनी बातें सुनी थीं, इतनी कहानियां सुनी इसकी, ये तो बस ऐसी सी है, वाली
निराशा।
“आपने
टीवी की नौकरी छोड़ दी, आज रहतीं तो कहां से कहां पहुंच सकती थीं”, एक ने खुल कर कह ही दिया।
“नौकरी
छोड़ना मेरी मजबूरी नहीं थी, मेरा फैसला था, जिसका कोई अफसोस नहीं है मुझे। जब करने का मन था तो चार महीने के बच्चों को छोड़कर पराए
देश में, नए शहर में नौकरी शुरु की थी। तब दो साल फिर पति ने बच्चों को संभाला था
वर्क फ्रॉम होम करके। अपने फैसले लेने की स्वतंत्रता
रही है मुझे हमेशा”, मैंने
उन्हें बताना चाहा।
उनका तर्क लेकिन अपनी जगह पहाड़ था, “ऐसे
फैसले मजबूरी का दूसरा नाम ही होते हैं, इसमें स्वतंत्रता कैसी? आज़ादी तो अपने कमाए पैसों के बल पर ही आती है।“
“लेकिन
मेरी कामवालियां ऐसे फैसले लेने को स्वतंत्र नहीं हैं, अपने बच्चों को पालने के
लिए उन्हें रोज़ काम पर आना पड़ता है नहीं चाहते हुए भी।“
“तुम
भी पागल हो, कामवाली से तुलना करोगी अपनी अब?”
“लेकिन
मेरी फलां सहेली भी स्वतंत्र नहीं है ऐसे फैसले के लिए। उसका पति अपनी कंपनी शुरु
करने के चक्कर में तीन साल से घर बैठा है। घर चलाने के लिए नौकरी करना उसकी भी
मजबूरी है। मेरी दूसरी ख़ास दोस्त भी चाहकर घर नहीं बैठ सकती। उसकी सास ने उससे
साफ तौर पर कह दिया है कि इसी डिग्री और नौकरी के लिए उसे पसंद किया गया था। घर
उसके लिए वैसे भी जेल जैसा है क्योंकि वहां सासू मां का एकक्षत्र राज है। लेकिन
बच्चों से देर शाम तक दूर रहना उसे कष्ट देता है। उसकी उदासी समझने वाला कोई नहीं
है।“ मैं पूरा ज़ोर लगाकर तर्क करना चाहती हूं।
कई जोड़ी आंखें अब भी
अविश्वास से मेरी ओर देख रही थीं। कभी-कभी किसी को अपनी बात समझाने के लिए शब्दकोश के सारे शब्द भी कम पड़ जाते हैं। इनकी नज़र में
दुनिया की कोई भी वजह टीवी की नौकरी छोड़ने के लिए काफी नहीं थी। मैंने कोशिश छोड़
दी, पर जाने क्यों अवसाद में घिर गई।
“तुम
नहीं समझोगी, यहां बेटियों को तुम्हारे उदाहरण दिए जाते हैं। टीवी पर तुम्हें
देखकर हम भी अपने ससुराल में गर्व करते थे। तुम्हें अपने जैसा देखना यहां इसलिए किसी
को अच्छा नहीं लगा”, खुल कर अपनी बात कहने वाली ये मेरी बहन लगती
थीं।
मेरी नौकरी का कोई रिश्ता इतने लोगों से हो सकता है ये जानना मेरे लिए नया
अनुभव था बिल्कुल। पिछले कई साल जैसे समंदर में बिताए हैं, जहां सबको बहते जाना
है, बिना किसी पहचान के। तालाब के पानी का ठहराव और मिठास भूल सी गई थी।
“ऐसा
नहीं है कि मैं कुछ नहीं कर रही पीएचडी कर ली है, रिसर्च
पेपर छपते रहते हैं, किताब पर काम कर रही हूं और सुबह के तीन-चार घंटे पढ़ाती भी
हूं, कई यूनिवर्सिटीज़ में”, मैंने उन्हें संतुष्ट करने की भरसक कोशिश की। फिर भी लगा
जैसे उनकी आंखों में मुझे लेकर निराशा थी जिसे मैं कम नहीं कर पाई।
मैं घर-घर घूम सबसे
मिलने गई। मायके का तो पत्ता भी प्यारा होता है, ये तो मेरे अपने थे। हमारे ख़ानदान
की सबसे बड़ी काकी बिल्कुल पहचानी नहीं जा रहीं। याद आया, काका कई साल हुए गुज़र
गए। पोपले मुंह से हंसते हुई उन्होंने सबसे तपाक से गले लगाया मुझे। उन्हें मेरी
नौकरी होने ना होने से कोई मतलब नहीं। उन्हें जानना है कि सास कैसी हैं, ज्यादा
काम तो नहीं करवातीं मुझसे, मेरी शादी में गहने कितने दिए गए, बच्चे देखने में किस पर
गए हैं वगैरा-वगैरा। फिर आंचल मुंह पर खींच मुझसे पूछा, “वहां हर तरह के कपड़े
पहनती होगी तुम तो?"
हां, मैंने उनके सुर में सुर
मिलाया, “आप चलिए मेरे साथ आपको भी खरीद दूंगी जींस, लाल रंग की।“
वो खुशी से हंसती-हंसती दोहरी हो गईं, वात्सल्य
उनके पूरे चेहरे पर छा गया।
सालों बाद आसमान भर तारे देखे, रात के सन्नाटे
की आवाज़ सराउन्ड साउन्ड में सुनी, जून के महीने में बिना एसी के घोड़े बेचकर सोई। दो दिन यूं
ही बीत गए, भाई-भतीजों के नंबर सेव किए गए, व्हाट्स ऐप करते रहने के वादे किए गए।
निकलते समय मुझे विदा करने के लिए गली भर गई। काकियों और दीदियों ने रोते-रोते
चूड़ी-सिंदूर के साथ सौ-सौ के नोट मुझे पकड़ाए, गले से लगाया औऱ खूब-खूब आशीष
दिया। आंसू मेरे भी नहीं रुके। मुझे लगा जैसे मेरी विदाई दोबारा हो रही है। अगली
बार बच्चों को भी लाने के वादे के साथ मैं गाड़ी में बैठी। पता नहीं अगली बार यहां
आना कब होगा, होगा भी या नहीं। लेकिन अपनेपन के ये दो दिन हमेशा याद आएंगे।
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