‘मम्मा क्या हम बेहारी है?’ बच्चों ने स्कूल से आकर पूछा।
‘बेहारी नहीं बिहारी, आप अपने राज्य का नाम भी
ठीक से बोल नहीं सकते।‘ मैंने उन्हें डपट दिया। वो रुआंसे हो गए, तो मुझे अपनी
ग़लती का एहसास हुआ। मैं उन्हे पास बिठाकर बताने लगी, दरभंगा, उनकी मां का शहर,
जहां वो तो क्या उनके पैदा होने के बाद उनकी मां तक नहीं गई। सहरसा, उनके पिता का
शहर, जहां हम उन्हें बस एक बार ले गए, दो साल की उम्र में, कुलदेवी के सामने मुंडन
की परंपरा निभाने।
‘लेकिन फिर हम वहां जाते क्यों नहीं?’ बिटिया ने फिर पूछा।
‘जाते तो हैं हर साल, नानू-नानी के पास।‘
‘लेकिन वो तो झारखंड में रहते हैं ना, इसका मतलब आप झारखंड की
हैं?’
क्योंकि अफसरों के
लिए सरकार के सवर्ण विरोधी रुख से परेशान होकर उनके नाना ने राज्य के बंटवारे के
बाद झारखंड कैडर में रहना पसंद किया। ये बात अलग है कि जो नहीं बदलना था वो वहां
भी नहीं ही बदला। भारत का जो भूगोल ये बच्चे पढ़ रहे हैं वो हमारे समय से बिल्कुल
अलग है, इनके लिए झारखंड, बिहार नहीं है, कभी भी नहीं होगा। हमारे लिए ये शायद कभी
दो नहीं होंगे। भूगोल क्योंकि कभी भी समाज से इतर, एकाकी नहीं हो सकता। बिहारी होने का ताना
बिहारियों के साथ झारखंडियों को भी सुनना पड़ेगा, अभी थोड़े दशक और।
अपना ननिहाल हर दो
साल बाद बदलते देखना इन बच्चों की आदत में शुमार हो गया है, बिल्कुल वैसे ही जैसे
इनकी मां को आदत थी हर दो साल बाद घर और शहर बदलता देखने की। लेकिन उन दिनों घर का
पता बताना बहुत आसान था हमारे लिए। घर मतलब दरभंगा, जहां हमारे दादाजी रहते थे,
जहां हमारी जड़ें थीं। बीच में पापा का ट्रांसफर उस ओर हो गया तो कई साल टिककर हम
दरभंगा वाले अपने उस घर में रहे भी थे, तो वो शहर हमेशा के लिए हमारा हो गया। उस
समय कभी भूले से भी ये ख्याल दिल में नहीं आता था कि ‘कहां के हो’ का जवाब इसके इतर भी कुछ
हो सकता है मेरे लिए।
‘मेरी मैम को कैसे पता चला कि हम बिहार के हैं?’, ये सवाल बेटे का था।
‘आपके लास्ट नेम से।‘ चलो कुछ तो है जो ताउम्र अपने
मूल से जोड़े रखेगा इन्हें।
‘लेकिन हम तो अमेरिकन हैं’, बेटे ने शरारत से कहा और
खेलने निकल लिया।
हमारी लाख कोशिशों
के बावजूद ‘अमेरिकन होना’ हल्का सा दर्प ले ही आता है इनकी बातचीत में। मां-बाप के
वश में हर चीज़ होती भी नहीं। बच्चों का जन्म अमेरिका में हुआ सो जन्म के आधार
पर वहीं की नागरिकता मिली। लगभग उसी समय हमने ये फैसला ले लिया था कि इनकी पढ़ाई
और परवरिश अपने देश में होगी। सो एकदम से सब कुछ छोड़ हम घर लौट आए। मेरे लिए वो
लौटना शॉपिंग मॉल की चकाचौंध छोड़ अपने घर के सुकून में लौटना था। लेकिन हमारे लिए
घर लौट आना दिल्ली लौटने तक ही सीमित हो सका। इसके बाद की यात्रा हम पूरी नहीं कर
पाए, कभी नहीं कर पाएंगे। उन सड़कों, उन रास्तों से इनकी पहचान कभी नहीं हो पाएगी
जो मेरे अस्तित्व का केन्द्र हैं।
कई बार सोचा है, जड़
क्या है? बीतती हर पीढ़ी के लिए जड़ की परिभाषा क्या वही रहनी चाहिए या बदल जानी चाहिए? जब पलायन समझने की उम्र
नहीं थी तब भी इतना तो पता ही था कि दरभंगा से अच्छा पटना है और पटना से बहुत
अच्छा दिल्ली। उसके आगे के शब्द हमारी पहुंच से बाहर थे। उसके आगे की यात्रा तो भी
होकर रही, अपने प्रारब्ध से।
अपने अमेरिकी
दोस्तों से जब भी मैंने ये सवाल किया कि वो कहां के हैं उनका जवाब काफी लंबा होता
था। वो अमेरिकी राज्य जहां वो बड़े हुए, जहां उनके मां-बाप रहते थे के अलावा वो
देश जहां से उनके पिता या उनके पूर्वज आए और वो देश जहां से उनकी मां या उनके के
पूर्वज आए। भले ही उन देशों को देखने का मौका उन्हें कभी नहीं मिला हो। उन लोगों
को यूं अपनी जड़ से जुड़ा देखना मुझे हमेशा ही रोमांचित करता।
मेरे बच्चों के लिए
कहां के हो का जवाब दे पाना भी उतना ही लंबा होगा शायद। मैं भी सोचती हूं कितना
ज़रूरी है इस सवाल का जवाब देना?
शहर क्या बस भूगोल
होता है? शहर क्या बस रास्ते होते हैं जिनसे गुज़र कर हम चलते हैं? शहर क्या बस बाज़ार,
मुहल्ले और चौक होते हैं जो अपने नामों से जाने जाते हैं? शहर वो भी तो होता है जो
हमारे साथ चला आता है, जो हमारे अंदर रह जाता है। चाहे कहीं भी चले जाएं, चाहे
कितना भी उलझ जाएं अपनी प्राथमिकताओं के बुने जाल में। और जब हम अपने बच्चों को
बड़ा करते हैं, शहर का एक हिस्सा उनमें भी प्रत्यार्पित हो जाता है। कहां अलग हैं वो
अपनी जड़ों से? जाने-अनजाने उसके एक हिस्से के साथ ही तो बड़े हो रहे हैं।
बचकानी सोच है ना।
होने दो, आंखे बंद कर ये सोच कर तसल्ली तो मिलती है कि जड़ यहीं कहीं आस-पास है।
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