शहर बड़ा ही दबंग था
और ये दबंगई वहां के भिखारियों में भी झलकती थी। मैं उन भिखारियों की बात कर रही
हूं जो परिचित से बन गए थे, हफ्ते दस दिन में चले आते अपने बंधे-बंधाए घरों में।
हफ्तावसूली के अंदाज़ में, पूरे अधिकार से गेट खोलकर बरामदे तक पहुंच जाते। जिस
दिन देर हुई उस दिन समय खराब करने का उलाहना भी दे देते, देने में उनकी उम्मीद पर
खरे नहीं उतरे तो उसका भी इतने उच्च स्वर में उद्घोष होता जिसे आस-पास के चार घर
सुन लें।
शायद इसलिए उसका आना
अलग से याद है अभी तक। उसके मुंह से निकली आवाज़ हम तक पहुंचने से पहले ही कहीं
टूट जा रही थी, गेट पर खड़ा बस इशारे से खाना मांग रहा था।
‘कच्चे चावल का सिधा देकर क्या होगा उसे, खड़ा भी
तो नहीं हो पा रहा है’, मम्मी ने टोका मुझे।
नहीं रात की रोटी भी
नहीं।
उसे गेट के अंदर आकर
बैठने का इशारा कर मम्मी ने कुकर में खिचड़ी चढ़ाई। जितना वक्त उस खिचड़ी को
परोसने में लगा उसके दसवें हिस्से में उसने सब का सब उदरस्थ कर लिया। धुंआ छोड़ती
वो पतली सी खिचड़ी उसके हाथों में जाते ना जाते गायब हो जाती। धुंए से उसकी आंखे
भी पनीली हो गईं। जिस जगह वो बैठा था वहां बार-बार माथा टेकता गेट से बाहर निकला। लेकिन
जाने कितनी शामों के उपासे के बाद अंदर गया अन्न ज्यादा देर उसका साथ नहीं दे
पाया। सड़क पार करते ही नाली किनारे बैठ वो उल्टियां करने लगा। वो मेरा भूख के क्रूरतम
रूप से परिचय था। जब अन्न के इंतज़ार में सिकुड़ती अंतड़ियों की खाने से पहचान ही
छूट जाए।
वो हर साल सर्दियां
शुरु होते ही पहुंच जाते, दो-तीन की टोली में पीठ पर गठरी लटकाए मुहल्लों में
घूमते, कश्मीरी शॉल और फिरन बेचने। हमारे लिए उन सबका एक ही नाम था, कश्मीरी शॉल वाले, जाने
कश्मीर के किस शहर, किस कस्बे से आए थे, जाने आने के लिए हमारा शहर ही क्यों चुना
था।
उस दिन दोनों शाम
ढले पहुंचे, थोड़े हताश से।
‘आज कुछ ले लो दीदी, सुबह से बोहनी नहीं हुआ, अब
रोज़ा खोलने का वक्त भी हो गया है।‘
उन दिनों हमारी मां
का बटुआ ज्यादातर खाली लेकिन भंडार हमेशा भरा रहता था। बेज़रूरत शॉल तो वो ख़रीद
नहीं सकती थीं सो पूछ लिया, ‘रोज़ा क्या खाकर खोलते हो?’
‘घर में अम्मी कुछ मीठा बनाती है’, दोनों में छोटे की उदास
आवाज़ में चहक आई। सो उस शाम उन दोनों ने अपना रोज़ा मेरी मां के हाथ के बने
गरमा-गर्म हलवे से खोला। जाते वक्त नम आंखो से कहते गए, ‘आप सचमुच मेरी दीदी हैं और
मैं छोटा भाई आपका।‘
मेरे लिए वो भूख के
रास्ते मीठे संबंध के जुड़ जाने से परिचय का दिन था।
जितने साल उस घर में
रहे मां का अपने उन भाइयों से रिश्ता यूं ही बना रहा। कई बार सुबह-सुबह कुछ समय घर
पर बिता काम पर जाते, ‘दीदी के घर से जाते हैं तो खूब बिक्री होती है।’ उन्हें पता चलता कि मम्मी
को किसी शादी-पार्टी में जाना है तो आलमारी से वो साड़ी मंगवाते जो उन्हें पहननी
होती, फिर उसकी मैचिंग शॉल छोड़ जाते, ‘पार्टी में पहन लो फिर ले जाएंगे’।
कभी दिन भर के थके
हारे केवल चाय पीने रुक जाते, फिर अपनी गठरियों के सहारे बैठ घर-परिवार की
कहानियां सुनाते। अपनी दीदी के लिए उनके मन में श्रद्धा के साथ करुणा भी उपजी जब
पता चला कि हमारे पापा इंजीनियर हैं।
‘कश्मीर में इंजीनियर के गेट से घर तक कालीन बिछी
होती है दीदी, आपका घर तो...’
बढ़ने की उम्र में
मां ने बताया तो नहीं लेकिन फिर भी समझ में आ गया कि अन्नपूर्णा वो नहीं जो
आमंत्रित मेहमानों के लिए रच-रच कर बनाए और मनुहार कर खिलाए। अन्नपूर्णा वो जिसकी
कड़ाही कभी भी, किसी के लिए भी चढ़ जाए।
कैशोर्य में भूख के
चेहरे से एक और परत उतरती देखी, जब शहर से कुछ दूर पर हमारे स्कूल के स्थाई भवन के
शिलान्यास के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री को आना था। हमें बहुत सवेरे बसों में भरकर
लाया गया, चूंकि कार्यक्रम दस बजे का था। अप्रैल का सूरज सर पर चढ़कर उतरने भी लगा
लेकिन सम्मानित मेहमान का कोई अता-पता नहीं। कुछ बच्चों को चक्कर आए जिसके बाद बगल
के गांव वालों की मदद से सबके लिए एक एक केले और चार बिस्कुटों का इंतज़ाम हो
पाया। माननीय का हेलीकॉप्टर उतरा शाम के चार बजे और माइक पकड़ते ही उन्होने विपक्षी पार्टियों का शाब्दिक क्रियाक्रम शुरु किया। भाषण कितनी देर चला ये तो याद नहीं, और
भी जुमलेबाज़ी रही होगी उसमें वो भी याद नहीं लेकिन छह घंटे से उनके इंतज़ार में भूख
से कुलबुलाते कुछ सौ बच्चों के लिए उसमें कुछ नहीं था ये याद है।
वो तब तक देखा भूख
का निकृष्टम रूप था। वो एक बड़ी भूख के सामने सैकड़ों छोटी भूखों के बौना पड़ जाने
की कड़वी हकीकत से परिचय का दिन था।
बड़े होने पर भूख के
कई और चेहरे भी देखे। विराट-बौने, कुछ मौकापरस्त तो कुछ मासूम भी। उनमें से सबसे
नियमित भूख लेकिन रिपोर्टिंग के दिनों में घंटों ड्यूटी पर तैनात रहते वक्त ऑफिस
में पड़े लंच बॉक्स की याद भर से कुछ क्षण को शांत हो जाने वाली ही थी, जिसका
भुगतान कुछ सालों बाद गॉल-ब्लाडर में पथरी के तौर पर किया।
सबसे मासूम भूख यूं भी
पेट की भूख ही होती है।
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