Saturday, January 2, 2016

समय के पंखों के पीछे-पीछे




यूं अभी कुछ हफ्ते बाक़ी हैं, लेकिन हलचल काफी पहले शुरु हो गई है। घर के किसी कोने में जब दोनों सिर जोड़ कर गुपचुप कर रहे हों, समझो योजनाएं बन रहीं हैं। दोस्तों के नाम कई बार जोड़े और काटे जा चुके हैं, मेन्यू, रिटर्न गिफ्ट जैसे काम मां के जिम्मे हैं, लेकिन नए सुझावों की फेहरिस्त रोज़ सामने रखी जा रही है। साल शुरू होते ही बच्चों का जन्मदिन दस्तक देने लगता है, और ये साल तो यूं भी खास है, ये उनका पहला डबल डिजिट बर्थ डे है। दस साल..क्या बस इतने से होते हैं?  

स्पर्श की बनियान अब अक्सर ग़लती से पापा की आलमारी में रख दी जाती हैं, पापा की टी-शर्ट पहनना उसका लेटेस्ट शगल है। शगुन को अब मम्मा की चुन्नियों की साड़ी पहनने से संतोष नहीं होता, उसकी नज़र साड़ियों के पूरे सूटकेस पर है, जिसे आलमारी में जगह की कमी के कारण परछत्ते पर रख दिया गया है। मेरे कपड़ों और जूतों पर अभी से रिज़र्वेशन स्लिप लगा कर रखी जा रही हैं। "इसको प्लीज़ डोनेट मत करिएगा ममा, टू-थ्री ईयर्स तक संभाल कर रखिएगा मेरे लिए।"

मां लेकिन भागते दिनों को मुट्ठी में पकड़ लेना चाहती है। दिन सचमुच जैसे उड़ रहे हैं, उनके उड़-उड़ के जाने की सरसराहट मैं हर रोज़ महसूस कर रही हूं और उन्हें रोककर रखने का कोई उपाय नहीं है, धीमा करने का भी नहीं। ऐसे कैसे बीत सकता है ये वक्त इतनी जल्दी? मैं ख़ुद से लड़ना चाहती हूं, और भगाओ समय को लठ्ठ ले लेकर। कितनी जल्दी मची रहती थी शुरु से। रात भर सोएंगे कब, स्कूल कब जाएंगे, बैठेंगे कब, चलेंगें कब, खुद से कब खाएंगे, तैयार कब होंगे। सब हो गया अब, सब। सुबह मैं जल्दी मचाती हूं तो हाथ दिखाकर कहते हैं, हमें घड़ी देखना आता है मम्मा, हम तैयार हो जाएंगे समय से। आखिरी दस मिनट अभी भी भले ही अफरा-तफरी के होते हों। हमें सुलाकर अब ये देर रात तक किताबें पढ़ना चाहते हैं। नाराज़ मां को मनाने के लिए किचन में चुपचाप मैगी और टोस्ट बनाना चाहते हैं। हर तीसरे दिन अपने सवालों से चौंका देना चाहते हैं।

कितने लम्हे हैं जिन्हें कई-कई बार याद करती हूं, कितने दिन जिन्हें कई और बार जीना चाहती हूं। जून की अनिश्चितता भरी वो दोपहर जब हाथ में, प्रेग्नेंसी किट की लकीरें गिनती कांपती हुई खड़ी थी, शादी के चार महीने बाद उस समय हम नए देश में नए सिरे से शुरुआत करने की कोशिश कर रहे थे। उसके कुछ हफ्तों बाद की वो सुबह जब पहले अल्ट्रासाउंड में मशीन ऑन कर स्क्रीन की ओर देखते ही मेरी अल्ट्रासाउन्ड टेक्नीशियन खुशी से लगभग चीखती हुई बोली थी, “You gotta be kidding me, they are two” मिनटों में क्लीनिक के अंदर जाने कितने देशों के अनजाने चेहरे हमें बधाइयां देने लग गए थे। उस अनजाने देश में मेरे बच्चों ने आने से पहले मेरे लिए कितने चितांतुर चेहरों का परिवार बनाना शुरू कर दिया था।
शुरूआती कुछ महीने याद आते हैं, जब तारीख दिन और रात में नहीं बंटी होती थी, हर तीन घंटे बाद की फीड, नैप, डायपर के खांचों में बंटी थी, दोस्त कहते बच्चे छह महीने के हो जाएं तो परेशानी कम हो जाएगी। कभी एक तो कभी दूसरे बच्चे को गोद में लिए मैं सोचती रहती, क्या बच्चे छह महीने के हो जाते हैं? एक बार दोनों के सोने के बाद एक किताब पढ़ते सासू मां ने पकड़ लिया।
दोनों सो रहे हैं तो तुम क्यों नहीं सो जाती, किताब में क्या है?”
किताब का नाम “What to expect the first year” था।
बच्चों के पहले साल के उपर लिखी किताब है, देख रही हूं बच्चे रात भर सोना कब से शुरू करते हैं, मैंने उन्हें मासूम सा जवाब दिया। तब ये नहीं पता था कि ये समय अच्छा है जब बच्चे के सोते ही मां निश्चिंत होकर सो सकती है। जल्द ही एक समय वो भी आता है जब अपनी बात कह बच्चा तो सो जाता है लेकिन तमाम आशंकाओं से घिरी मां की नींद कई बार गायब हो जाती है। 
ये समझते-समझते भी वक्त लगा कि मां बनना केवल बच्चे के जन्म के साथ ही नहीं हो जाता। ये तो चिरंतर प्रक्रिया है। मैं हर रोज़ थोड़ा और मां बनी हूं। मेरे मातृत्व का क़द रोज़ बढ़ा है, अपने बच्चों के साथ। 
मां होना हमेशा के लिए बदल ही नहीं देता, हमेशा के लिए दो भागों में बांट भी देता है। आपकी ज़िंदगी में कुछ भी पहले जैसा नहीं रहता। आप हर चीज़ को दो तरह से सोचते हैं, एक मां बनकर और दूसरा वो इंसान बनकर जो आप इतने समय से रहे हैं।
मां बनना आपको स्वार्थी भी बना देता है, आप दुनिया की हर नेमत बस अपने बच्चों के लिए चाहने लगते हैं। उनकी एक खांसी आपको दवाओं के साथ उन तमाम मन्न्तों की याद करा देती है जिन्हें आप अभी तक पुरापंथी मानते रहे।
मां होना आपको थोड़ा अंधविश्वासी भी बना देता है। आप अपने बच्चों को हर बुरी नज़र से बचाने की कवायद में हर किसी की दुलार और प्यार भरी नज़रों की भी रेटिंग करने लगते हैं, उनको तौलने भी लगते हैं। ख़ुद अपनी नज़र पर इख्तियार नहीं रहता आपको।
लेकिन सबसे ज्यादा मां होना आपको चिंताएं दे जाता है, अनगिनत, हर बात की। मातृत्व की चिंताएं दरअसल प्रेगनेंसी के स्ट्रेच मार्क्स की तरह होती हैं, हमेशा के लिए, पर्मानेंट और कहीं से भी शुरु होकर कहीं तक भी जाने वाली।
हर रोज़ इनके मज़बूत होते पंख छोटी-छोटी निर्भीक उड़ानों के लिए बेकल दिखते हैं। समय की लंबी छलांग में ज्यादा वक्त नहीं अब। मन यादों की तलहटी से फिर एक मोती छांट लाना चाहता है।
छोटा स्पर्श तुतलाता था, मम्मा तोयल तू-तू तर रही है, अंतल ताम तर रहे हैं, मैं त्या तरूं?”

शायद ज्यादा वक्त नहीं जब मां अपने आप से ये सवाल करेगी, “सब अपनी दुनिया में हैं अब मैं क्या करूं"

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