लोकतंत्र के चौथे
खंभे की ईंटें गढ़ने के कारखाने गली-गली में खुल गए हैं, इन ईंटों को गढ़ने के
कारीगर भी दिहाड़ी मज़दूरों की तरह मिलते हैं, पनियल से, कोर्स भी वैसे ही लचर,
बीच-बीच में एक सेलिब्रिटी कारीगर को बुला भेजा जाता है, सुनहरे भविष्य के सपने
दिखाने, बेस्वाद कोर्स पर घी का तड़का लगाने। यूं आजकल ऐसे कारखानों का
बड़ा नाम है जहां तपाई गई ईंटे उन्हीं की दीवारों पर चुन देने के वायदों के भरोसे
आती हैं। बिल्कुल हींग लगे ना फिटकरी, रंग चोखा की तर्ज़ पर। 40-45% नंबर वाले मेधावी भी यहां “मैं माधुरी दीक्षित बनना
चाहती हूं” वाले अंदाज़ में पहुंचने का हौसला रख सकते हैं।
वैसे अक्सर ये कोर्स
बड़ी सी प्राइवेट यूनिवर्सिटी में एक छोटे से डिपार्टमेंट से भी होते हैं, राजधानी
की छप्पन भोगी थाली में चटनी के समान। इस संदर्भ में ये ‘स्कूल ऑफ मास कम्यूनिकेशन
एन्ड जर्नलिज़्म’ बड़े से डिपार्टमेंटल स्टोर के छोटे से सेक्शन के स्टॉल से दिखते हैं। बेचारा
नेट क्वालीफाइड शिक्षक यहां सेल्समैन की नौकरी करता है और छात्र और उनके अभिभावक होते
हैं उसके ग्राहक। और भला सेल्समैन की क्या औकात कि वो अपने ग्राहकों को नाराज़
कर दे। गर्मियों की छुट्टी के दौरान अपनी तनख्वाह जस्टीफाई करने के लिए ये सेल्समैन कैंपस छोड़ शॉपिंग मॉल्स या अपने से
थोड़ी ज्यादा नामी दुकानों के गेट के बाहर नए छात्र तलाशने की ड्यूटी पर होते हैं,
‘आपको यहां सीट नहीं मिली, चलिए हमारी दुकान, हम सिर आखों पर बिठाएंगे’ या फिर ‘अजी हमारी डिग्री इससे काफी
कम कीमत पर उपलब्ध है, और माल बिल्कुल ऐसा ही, एक बार आजमाइए तो सही’ के तर्ज पर।
एक शिक्षक मित्र ऐसी
ही क्लासनुमा दुकान में लगभग हर विषय में फेल कर रहे छात्र ग्राहक को डांट रहे थे,
“इस तरह से पढ़ोगे तो कौन नौकरी देगा तुम्हें और ख्वाब देखते हो न्यूज़ चैनल
में काम करने के।“
दोनों हाथों को सिर
के पीछे ले जाकर अंगड़ाई लेते उस मासूम ने भोलेपन से सवाल किया, ‘सरजी, एक न्यूज़ चैनल खोलने
में कित्ता पईसा लगेगा?’ पता चला उस ज्ञानपिपासु बालक के पिता बिल्डर टाइप
भारी-भरकम जीव थे। इन दुकानों में अगर छात्रों की उपस्थिति अनियमित हो तो भी ये
ग़लती बिचारे शिक्षक की ही होती है। हर पन्द्रह दिन बाद उन्हें अभिभावकों को फोन
कर याद दिलाना होता है कि आपके बालक ने फीस तो दे दी लेकिन 15 दिन से दर्शन नहीं
दिए। एक अन्य मित्र ने इस सिलसिले में एक चिंतित पिता को फोन मिलाया तो 20 घंटियों
बाद जवाब मिला, ‘अभी व्यस्त हूं आप शाम को बात करिए हमसे’।
वैसे मास
कम्यूनिकेशन बड़ा ही मायावी शब्द है, जिसमें ट्विटर पर मैसेज करने से लेकर रिएल्टी
शो में चीखने-चिल्लाने तक की सारी कलाएं शामिल हैं। कई बार कक्षाएं दिनों तक खाली
रहती हैं क्योंकि कैंपस में रिएल्टी शो का ऑडिशन चल रहा होता है। कुछ साल पहले एक बार
मेरे सामने एक खूबसूरत सी बाला अपने हेड ऑफ डिपार्टमेंट को हड़का रही थी कि उसे
एमटीवी के एक रिएल्टी शो में भाग लेने के लिए तीन महीने की छुट्टी क्यों नहीं दी
जा रही जहां जाकर वो उस जैसी यूनिवर्सिटी का भी नाम करने की काबलियत रखती है।
सालाना परीक्षा देना क्या इतना ज़रूरी है यहां पर?
कई जगहों पर तीन-चार शिक्षक मिलकर पूरा
डिपार्टमेंट संभाल रहे हैं। जिज्ञासा होती है कि इतनी क्लासें खाली रहती हैं, आप
मैनेज कैसे करते हैं? किसी ना किसी चैनल के टॉक शो में भीड़ तो रोज़ ही चाहिए
होती है, वहीं भेज देते हैं इनको, लाइव ट्रेनिंग के लिए, बारी-बारी से। एक क्लास
से पूरे दिन की छुट्टी फिर।
यहां ये बता देना ज़रूरी
है कि ये विश्वविद्यालय पूरी तरह समाज के नियमों पर चलते हैं। अब लड़की जितनी
सुंदर होगी दहेज उतना ही कम लगेगा। जैसे-जैसे सुंदरता कम हुई दहेज की मोटी गठरी की
दरकार भी बढ़ती जाती है, उसी तर्ज पर यहां एडमिशन सबका होता है लेकिन जैसे-जैसे
नंबर कम होते हैं, फीस की रकम उतनी ही बढ़ती जाती है।
संयुक्त परिवार के
नियमों का भी यहां बखूबी पालन होता है। जिसकी कमाई जितनी ज्यादा परिवार में उसकी
पूछ उतनी ही। यहां पूछ का आधार आपके डिपार्टमेंट में होने वाले एडमिशन और
प्लेसमेंट में मिलने वाले पे-पैकेज होते हैं। इस मामले में बिचारा मास कम्यूनिकेशन
डिपार्टमेंट और उसके शिक्षक इतने ही निरीह होते है जितने कॉन्वेंट स्कूलों के
हिंदी शिक्षक होते आ रहे हैं ।
एक मित्र ने बड़े
दुखी स्वर में कहा, पहले ही कम समस्याएं थी हमारे पास जो आजकल मीडिया कंपनियों से
निकाले गए लोग-बाग इलस्ट्रेटेड करियर और इंडस्ट्री एक्सपीरिएंस के नाम पर और भीड़ बढाए
जा रहे हैं हमारे यहां। बाबा नागार्जुन होते तो क्या लिखते इस सिचुएशन में...
"प्राइवेट
यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का
पिता भी तो है,
सामने मॉनिटर पर खोल
रखी है उसने स्कूल की अगली फीस की रसीद...."
No comments:
Post a Comment