Sunday, January 17, 2016

शुक्रिया ज़िंदगी


17 जनवरी को आखिरी चेकअप था।
अभी घर जाकर आराम करो, कल सुबह करेंगे ऑपरेशन, डॉक्टर सॉर्किन वेल्स ने एक और मीठी हिदायत दी।
सर्जरी के लिए अच्छे से तैयार होकर आना, हो सके तो मेकअप भी। इसके बाद हफ्तों तक शायद तुम्हें कंघी करना भी याद नहीं रहने वाला है’, निकलते-निकलते ये सलाह नर्स लिज़ की थी। 
हम पूरी तैयारी से समय पर पहुंचे थे, रात वैसे भी ऑंखों में ही कटी थी।


फर्स्ट बेबी ब्रीच है, सिज़ेरियन ही करना होगा वो भी लेबर में जाने से पहले, ये हमें दो हफ्तों से पता था।
अंजता घड़ी के समय, ठीक 10:10 पर बिटिया आई और उसके एक मिनट बाद आया उसका भाई, निकलते ही डॉक्टर को गीला करता हुआ। ये आया शैतान, डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, इसे पता नहीं इसके ऊपर बहन का ध्यान रखने की बड़ी ज़िम्मेदारी है।  
तय समय से पूरे तीन हफ्ते पहले आए थे बच्चे। वैसे मेरा बस चलता तो दो दिन और पहले आते, 16 को, हमारी शादी की पहली सालगिरह का दिन। डॉक्टर सॉर्किन वेल्स ने सुना तो भड़क गईं, एक साथ दो जन्मदिन मनाने से संतोष नहीं है क्या तुम्हें जो एनिवर्सरी भी साथ मनाना चाहती हो।मैंने खुद को याद दिलाया, ये वो देश है जहां पति-पत्नी के संबंध को फ्रॉर ग्रांटेड नहीं लिया जाता, उसमें बराबर निवेश की ज़रूरत होती है। पतिदेव भी उनसे सहमत थे, सो 18 तारीख तय की गई।
मेरे आस-पास वो चेहरे थे जिन्हें पिछले सात महीनों में मैंने सबसे ज्यादा देखा था, डॉक्टर, नर्सें, ह़ॉस्पीटल के बाकी स्टाफ, जो उस दूर देश के अनजाने शहर में मेरे लिए चिंतित, मेरा अस्थायी परिवार थे। बच्चों के दादा-दादी के अलावा हमारा बाकी परिवार, 13000 किलोमीटर दूर, एक-एक पल बचैनी से काटने और उसके बाद एक-दूसरे के गले लगे बधाईयां देने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था। 
मातृत्व के इंतज़ार में नए देश और परिवेश के ये महीने वैसे भी नए अनुभवों का ख़ज़ाना थे। अपने देश में प्रेगनेंसी को लेकर अभी भी लज्जा, एक संकोच का भाव रहता है। गर्भावस्था, जितना हो सके समाज और परिवार से छुपा कर रखने वाली स्थिति है। उस समाज में ये वो खुशी है जिसे आपसे टकराने वाला अनजान इंसान भी बांटना चाहता है। डिपार्टमेंटल स्टोर के काउन्टर पर बैठी महिला भी आपकी अवस्था देख आपसे सहजता से पूछ सकती है, लड़का है या लड़की? नाम सोचा है या नहीं? शॉपिंग की या नहीं? वगैरा-वगैरा
छठे महीने में एक दिन पैदल अपने घर से दो ब्लॉक दूर वॉलमार्ट जाना पड़ा। मैं अकेली थी। बीच में थोड़ी व्यस्त सी एक सड़क पार करनी थी। आधी दूर ही पहुंची थी कि बत्ती हरी हो गई। मुझे 25-30 सेकेंड और लगे होंगे दूरी तय करने में, उतने समय तक दोनों ओर खड़ी कोई गाड़ी ना हिली ना किसी ने हॉर्न बजाया। हर किसी ने धैर्य से मेरे दूसरी ओर जाने का इंतज़ार किया, फिर आगे बढ़ा।  
बच्चों के आने के बाद अस्पताल के तीनों मंज़िलों में हलचल सी हो गई। काले-काले बालों वाले इंडियन ट्विन्स, वो भी एक लड़का और एक लड़की, स्टाफ के हमारे कमरे में आने का सिलसिला थमता ही नहीं। बहुत सारी खुशियों को कहीं ना कहीं नज़र लगती है, इसलिए शायद शाम तक स्पर्श को सांस लेने में थोड़ी तकलीफ होने लगी। अगले पांच दिन के लिए उसे नर्सरी में ऑक्सीजन पर रखा जाना था। ये बात सत्या को बताने के बाद डॉक्टर मेरे कमरे में भी आए, मुझे दोबारा पूरी बात बताने। बच्चे की मां से हम कुछ भी नहीं छुपा सकते हैं, पूरी परिस्थिति तुम्हें भी मालूम होनी चाहिए, हमारे क्यूं पूछने पर उन्होंने जवाब दिया।
शगुन को अपनी गोद में रखे मुझे अपनी खुशियां अधूरी लगतीं। डॉक्टर का ख्याल था कि चूंकि स्पर्श को अपनी बहन की आदत है इसलिए शगुन के साथ होना उसे जल्दी ठीक करेगा। तो बीच-बीच में शगुन भी भाई के पास चली जाती। दो दिन बाद लिज़ मुझसे मिलने आई। बच्चे नर्सरी में हैं, मैंने आदतन उसे बताया।
मै बच्चों से नहीं मां से मिलने आई हूं, उसने प्यार से मुझसे कहा, बच्चा होने के बाद मां को सब भूल जाते हैं, सबका ध्यान बस बच्चे पर होता है और मां से बस अपेक्षाएं रह जातीं हैं। जबकि मां को अभी भी उतनी ही देखभाल और प्यार की ज़रूरत होती है। इसलिए मैं तुमसे मिलने आई हूं, तुम तो ठीक हो ना?” मैं उसे बस एक अस्फुट सा थैंक-यू ही कह पाई। सच तो ये है कि बच्चे होने के बाद मां को भी अपना ख्याल नहीं रहता, ऐसे में यहां कोई ऐसा भी है जिसे मेरी चिंता पहले है।
नर्सरी में रात कि ड्यूटी ट्रीज़ा की होती थी। उसका पति इराक में मोर्चे पर था। हर रात नन्हीं जिंदगियों को संभालती वो अपने पति के लिए दुआएं भी सहेजती। तुम्हारे बच्चे की देखभाल के लिए हम सब हैं यहां, तुम जितना कर सकती हो उतना आराम करो, घर जाकर तुम्हें बहुत हिम्मत की ज़रूरत होगी,‘ वो हर रात मुझसे यही कहती।

मैटर्निटी वॉर्ड में हर क्षण उत्सव का माहौल रहता। मांओ के आने और बच्चों के साथ जाने का सिलसिला चलता रहता है। हम यहां सबसे ज्यादा, 8 दिन रह लिए थे। आखिरी दिन मुझे डिस्चार्ज क्लास अटेंड करनी थी, जिसमें घर जाने के बाद बच्चे की ज़रूरतें और देखभाल के बारे में जानकारी दी जानी थी। आठ-नौ माओं की उस कक्षा में दो बिन-ब्याही टीनएजर्स भी थीं। एक के साथ उसकी मां और दूसरी के साथ शायद पिता थे। उन बच्चों के बाप, ज़ाहिर है, ज़िम्मेदारी से घबरा उन्हें और उनकी मांओं को छोड़ गए थे। याद आया कुछ समय पहले डॉक्टर सॉर्किन वेल्स कहा था, ‘सुखी दंपत्तियों के बच्चों का जन्म देखने की खुशी कुछ और ही होती है, जब हम भी ये जानते हैं कि बच्चा एक खुशहाल परिवार में जाएगा। दुर्भाग्य से हर बच्चे को ऐसा परिवार नहीं मिल पाता। इस वक्त मैं लेकिन ये सोचकर उपरवाले की शुक्रगुज़ार हो रही थी कि इस परिवेश में ये बच्चे जन्म तो ले पाए, वो भी समाज की स्वीकार्यता के साथ जहां मांओं को अपना मुंह छुपाने की ज़रूरत नहीं थी। 
डिस्चार्ज क्लास में हर मां को अपने बच्चे का नाम और वज़न बताना था। आठ-आठ पाउन्ड के अमेरिकी बच्चों के बीच साढ़े पांच पाउन्ड बोलने में मुझे वैसा ही संकोच हो रहा था जैसे ए प्लस लाने वाले बच्चों के बीच सी ग्रेडर को होता है। फिर अहसास हुआ कि सारी निगाहें मेरी गोद के दोनों बच्चों पर ही टिकी हुई हैं। मेरे लिए बधाइयां भी दोगुनी थीं और सावधानियां भी। घर जा रहे नवजातों को उनकी गाड़ी तक छोड़ कर आने की ड्यूटी भी होती है नर्स की। ताकि तस्कीद कर ले कि मां-बाप उन्हें पूरी सुरक्षा से इन्फैंट कार सीट में लेकर जा रहे हैं।

घर लौटने के उत्साह और सुकून के साथ रतजगों का लंबा सिलसिला इंतज़ार कर रहा था। बिना कामवाली या बाहरी मदद के दो बच्चों को पालने का अकथ परिश्रम और रोज़ छोटी-बड़ी उपलब्धियों की खुशियों का अनंत सिलसिला। वो कहानी खैर अब भी जारी...



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