Tuesday, January 26, 2016

सास-कथा


शादी करके नैना जब ससुराल आई तो उसका हाथ अपने हाथों में लेकर पति ने उससे ये बात कही, ये घर तुम्हारा है, इसे अपने हिसाब से चलाना, बस एक बात का ध्यान रखना कि मेरी मां को किसी बात का दुख नहीं पहुंचे। उसकी ज़रूरतें वैसे भी कम हैं, कभी कुछ नहीं मांगेगी वो हमसे, लेकिन हर काम से पहले उसकी राय ज़रूर लेना, बहुत दुख उठाए हैं उसने, लेकिन अपने बच्चों की खातिर चुप रही हमेशा, मां की बात करते-करते पति की आंखे भर आईं लेकिन उसने बोलना जारी रखा, बहुत से लोग हैं इस दुनिया में जिनसे नफरत करता हूं मैं क्योंकि उन्होंने मेरी मां को कष्ट दिए, मेरा पूरा बचपन अपनी मां को छोटी-छोटी खुशियों के लिए तरसते और दूसरों की ग़लतियों की डांट सुनते देखते बीता है। अपने पिता से भी शिकायत है मुझे क्योंकि अपने परिवार की वजह से उन्होंने कभी मेरी मां के हक की आवाज़ नहीं उठाई। तभी से मैंने सोच लिया था कि बड़ा होकर अपनी मां का हमेशा ख्याल रखूंगा, कभी उसके चेहरे की मुस्कुराहट कम नहीं होने दूंगा। इसलिए आज से तुम्हारी हर ख्वाहिश सर आंखों पर बस मां को शिकायत का मौका मत देना।

नैना ब्याह कर छोटे कस्बे से बड़े कस्बे में आई थी। अपनी ज़िंदगी के ये साल उसने छोटे कस्बे के छोटे से गर्ल्स कॉलेज से बीए, एमए करने के अलावा घर के कामकाज में मां की मदद करने और केबल टीवी पर सास-बहू के कार्यक्रम देखते हुए बिताए थे। सच्चे दिल की सास की कहानियां सुनकर उसकी आंखें भी भर आईं और उसने प्रण किया कि जी-जान से मम्मीजी की सेवा करके एक आर्दश बहू बन कर दिखा देगी।
चौका छूने के दिन से ही उसने घर का हर काम संभाल लिया, सास से पूछकर रसोई बनती, उनकी राय से सब्ज़ियां और राशन खरीदे जाते, कपड़े उनकी पसंद से आते, उसकी आलमारी की चाभी मम्मीजी के हाथ में रहती, वगैरा-वगैरा। फिर भी उसने देखा मम्मीजी के चेहरे की मुस्कुराहट कम ही है। खुद उसकी मुस्कुराहट तो ना जाने कब की गायब हो चुकी थी। काम में चूक भी बहुत होने लगी थी उससे, गैस चूल्हे पर दूध चढ़ा आंच धीमी करके कपड़े सुखाने जाती तो पता नहीं कैसे आंच एकदम तेज़ हो जाती और दूध उफन-उफनकर गिरता होता, धीमी आंच की सब्ज़ी भी धोबी के कपड़े गिनते वक्त तेज़ हो सब्ज़ी जला जाती। दफ्तर से लौट पति जबतक जूते खोल रहा होता ये खबरें उसतक पहुंच भी जातीं। उसने ये भी देखा कि दिन भर खाट पर सुस्ताती सास बेटे की परोसी थाली टेबल तक ले जाने में सबसे तत्पर रहतीं, तीन हफ्ते में एक बार रसोई में घुसतीं बस बेटे की पसंद को कोई चीज़ बनाने। बेटे को बहू की कहानियां सुनाते वक्त क्षमा का भाव रहता उनके मुंह पर, उसकी नादानियों पर पर्दा डालने वाली सास की शहादत का भाव। रात को सब काम निबटा कर जब बहू अपने कमरे में जा रही होती तभी सास के घुटनों में असह्य पीड़ा शुरु हो जाती, फिर तेल की कटोरी ले वह उनके पैरों में बैठ जाती और उनकी जवानी के दिनों की दुखभरी कहानियां सुनती सुनती अपनी जवानी की एक और रात जाया करती।
ये सहज समझ में आने वाली बातें तो थी नहीं, कई साल गंवा कर आंखें खुलीं। सास ने सचमुच अपनी जवानी ठोकरों में बिताकर प्रबल जिजीविषा पायी थी। ऐसा इंसान ज़िंदगी की किरचों को भी सहेज कर उनका मोल निकालना और वसूलना सीख जाता है। उसकी ओर देख नम हो जाने वाली आंखें बस बेटे की ही रहीं ये वो जानती थी। चौथेपन में जो सुख और प्रभुत्व का प्याला उसने पाया उसे हर प्रकार से कसकर थामे रखना चाहती थी वो, इसलिए बेटे के चारों ओर दुख, आंसू, ममता के वास्तों का एक ऐसा अभेद घेरा बना बैठी थी जिसे तोड़ पाना उसके जीते जी बहू के लिए संभव नहीं था।
बहू जिस क्षण ये बात समझ गई, सास और पति की लतरानियां सुनते वक्त आंखें घुमाकर देख लेती कि उसका खुद का लाल सब देख-सुन तो रहा है ना।
उसके बेटे की बहु की सास का निर्माण शुरू हो गया था। इंसान के निर्माण की प्रक्रिया की तरह सास के बनने की प्रक्रिया भी चिंरतर इसी प्रकार चलती आ रही है।

अथ सास-कथा संपूर्ण।

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