Wednesday, January 13, 2016

अल्पविराम का प्रतीक्षालय


लाउन्ज में मंहगी वाली रिक्लाइनर कुर्सियां लगी हुई हैं, उस ओर दीवार की जगह छत से फर्श तक शीशे ही हैं, जिनके पार बागीचा, सड़क और सड़क के उस पार की ऊंची इमारतें दिख रही हैं। धुंध भरे आसमान के बीच कभी-कभार झांक लिया करता चांद भी है, सड़क की नियोन लाइटें भीं और सरपट दौड़ती गाड़ियों की हेडलाइट भी। अंदर कमरे की मद्धिम बत्तियों के बीच बाहर की रोशनी भली मालूम होती है। इस फाइव स्टार अस्पताल में ये कमरा आईसीयू के मरीज़ों के परिवारजनों के लिए है।

अब तक कुर्सियों की पीठ सतर है, गोद में एक-एक कंबल पड़ा है और पैरों के पास बैग पड़े हैं। रात दस बजे के बाद हलचल लौटनी शुरू होती है, यहां की हलचल में भी लेकिन एक थर्राता सा सन्नाटा है। लौटने वाले चेहरे कुम्हलाए से हैं और पैर थके हुए, दिन भर आईसीयू के बाहर एक अच्छी खबर के इंतज़ार में चहलक़दमी की थकान है ये। हालांकि अस्पताल वालों ने बता दिया है आप आराम से बाहर इंतज़ार करिए, कुछ अपडेट होगा तो हम फोन कर लेंगे। इनके लिए जो अपडेट है वो किसी के लिए सांसों की डोर। यूं शुक्रगुज़ार हैं सब इनके फिर भी आस-पास रहना आश्वस्ति देता है, सुकून भी, तब जब पता नहीं कि अंदर वाला घर वापस जा भी पाएगा या नहीं। कौन है अंदर, पति, बेटा, पिता, मां, भाई? दुख का अनुपात जाने के लिए रिश्ते का पता होना पता नहीं क्यों ज़रूरी लगता है सामाजिक संबंधों में, लेकिन उतना ही भ्रामक भी होता है ये मापदंड। 

अपनी-अपनी कुर्सी पर सबने पैर फैला लिए हैं। 'दस दिन से यहीं हूं, इस कुर्सी की ऐसी आदत पड़ गई है कि लगता है घर के बिस्तर पर ही नींद नहीं आएगी अब', मेरी बगल की कुर्सी पर लेटी महिला ने कहा। पीछे छूटा घर याद आ गया शायद उन्हें और सजल हो उठीं आंखें।

किसी की सिसकियां तेज़ रूदन में बदल गई हैं। पति हैं उनके यहां, चौबीस घंटे हो गए ऑपरेशन को, अभी तक होश नहीं आया, डॉक्टरों ने बारह घंटे कहा था, कोई कुछ बता ही नहीं रहा, अब और कितना सब्र रखें। एक पल में वो दिलासा देते चेहरों से घिर गई।
'लो पानी पियो, सब ठीक हो जाएगा।'
'ये हमारे गुरुजी की किताब है, ये तीन पन्ने बस पढ़ लीजिए सब भला होगा',
'हमारी कुलदेवी के पूजा के फूल हैं ये, दुपट्टे से बांध लो बेटाजी, सुबह तक देखना चंगी खबर आएगी।'
कोई किसी को नहीं जानता यहां, एक मरीज़ का क्योंकि एक रिश्तेदार ही अंदर जगह पा सकता है। दुख भी किसी का एक सा नहीं है यहां, बस परिस्थितियों का बंधन है जिसने सबको एक आत्मीय डोर से बांध दिया है।  दिल का ऑपरेशन हुआ है, एक्सीडेंट हुआ था, गले में नली डाल कर महीने भर से खाना खिला रहे हैं, रीढ़ की हड्डी टूटी है, कैंसर है, किडनी फेल कर गयी है, डोनर की तलाश है, जितने चेहरे उतनी कहानी।
आधी रात को ख्याल आ रहा है, सुबह से कुछ नहीं खाया। किसी के बैग से ब्रेड और जैम निकल रहा है, किसी ने सेब काटा, कोई बिस्टिक का पैकेट फाड़ रही है, एक-दूसरे को जबरन खिलाना जारी है।
अभेद सन्नाटे में फोन की घंटी सबको हिला डालती है, आईसीयू वालों का भी हो सकता है ये फोन, उठाने वाली पहले स्क्रीन की ओर देख अपनी सांसे संयत कर लेना चाहती है, नहीं आईसीयू से नहीं, विदेश में बैठा कोई परिजन समाचार जानना चाहता है। लेकिन बताए क्या, तीन हफ्ते हो गए, आज भी कुछ बदलाव नहीं।

एक खर्राटे की आवाज़ सबको चौंका रही है, बाप रे, औरत की नाक भी इतनी तेज़ बज सकती है क्या। रहा नहीं गया तो, पड़ोसी ने हिलाकर जगा दिया उसको, सबकी नींद खोल दी आपने तो, उठकर दूसरी करवट सो जाओ।
हाय राम, इतनी आवाज़!! पति कैसे सोते हैं आपके एक ही कमरे में, किसी और ने ठिठोली की। पचासेक साल की वो प्रौढ़ा नवोढ़ा की भांति लजा गईं। रात के ढाई बजे कई मीठी मधुर हंसी कमरे को गुंजा गई, पल भर में माहौल हल्का हो गया, मानो शादी ब्याह के लिए इकठ्ठे हुए आत्मीय हैं सब।
शीशे के पार से लालिमा नज़र आ रही है, सुबह होते ही अच्छी खबर की प्रतीक्षा फिर शुरु होने को है, तैयार होने की जल्दी है सबको, शीशे के इस पार से झलक भर देख लेने की तैयारी, फिर जाने कितने घंटों, दिनों का इंतज़ार और, इसके बाद भी जाने क्या फैसला हो वक्त का।
और मैंमैं भी तो यहां हूं अपने के लिए, लेकिन इन सबके सामने बहुत छोटा है दर्द और आज ही घर वापस भी जाना है मुझे। प्रतीक्षारत आंखों को मैंने अपने हिस्से के फूल बांट दिए हैं । बस एक दुआ सबके लिए, वापसी उस अपने के साथ ही हो सबकी। आमीन

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