‘आपकी रेफरेंस लिस्ट बहुत छोटी है मैडम’, बेरसराय की उस दुकान में
जब अपनी पीएचडी की थीसिस प्रिंट कराने गई तो कम्प्यूटर ऑपरेटर ने छूटते ही कहा।
‘जानती हूं, जिस विषय पर मैंने काम किया है उसपर
कम ही किताबें आई हैं,’ मैंने उसे अभ्यस्त सा जवाब
दिया।
‘अरे मुश्किल होगा आपको मैडम, लंबा करो ना इसे,
वैसे भी पढ़कर कौन मिलानेवाला है इसको, यहां जो भी आता है अंदर चाहे जो भर हो कम
से कम 10-12 पन्ने की रेफरेंस लिस्ट ज़रूर होती है’, उसने देश में सबसे आसानी से मिलने वाली चीज़,
मुफ्त की सलाह दी।
अगले दस मिनट में
उसने मुझे रेफरेंस लिस्ट लंबी करने के ऐसे-ऐसे नुस्खे बताए कि मन किया छपवाना छोड़
धन्यवाद ज्ञापन वाले पन्ने में पहले इसका नाम भी जोड़ दूं। लेकिन थीसिस को छपवाने
के स्तर तक ले आने के लिए जितने पापड़ बेले थे उसे याद कर चुप रही।
जितने घंटे उसके पास
रही हर दस मिनट पर सरकारी, प्राइवेट कॉलेजों, यूनिवर्सिटी के बच्चों का आना लगा
रहा। पांच-पांच सौ रुपए में मनोविज्ञान से लेकर मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग जैसे
तमाम विषयों पर बनी-बनाई रिपोर्ट खरीदने के लिए, वो रिपोर्ट जिन्हें तैयार करने के
लिए इन छात्रों को कई जगहों पर दो-तीन महीने की छुट्टी भी दी जाती है। इन रिपोर्टों
पर उसका ज्ञान भंडार इतना बृहत था कि एकाध यूनिवर्सिटी तो वो वन मैन आर्मी की तरह
चला सकता था।
“एमआईएस पर तो कोई रिपोर्ट तैयार नहीं है, लेकिन
ऑर्गनाइज़ेशनल बिहेवियर का उठा लीजिए कोई, मिलते-जुलते पेपर ही तो हैं ये दोनों” जितने आत्मविश्वास से वो
ये सारे नाम ले रहा था मुझे ठेले पर सेकेंड्स के कपड़े बेचते उस लड़के की याद हो
आई जो इसी अधिकार से टॉमी हिलफिगर,
गुची और ऐरो पुकारता ग्राहक जुटाता है। “पीएचडी थीसिस छोड़कर सब मिल जाता है मैडम, वहां
थोड़ा कॉपीराइट का मामला हो जाता है इसलिए प्रिंट करके हम डिलीट कर देते हैं”, उसने मेरी ओर देखकर कहा
और मैंने उसकी बात पर विश्वास कर लेने के लहज़े से सिर हिला दिया।
हां, जिस काम के लिए
मैं उसके पास गई थी उसमें यानि अपनी थीसिस की कॉपियों की बाइंडिंग और प्रिटिंग में
कई गलतियां ज़रूर मिलीं मुझे जिन्हें हम ह्यूमन एरर कहकर ख़ारिज कर देते हैं आमतौर
पर।
दरअसल, हम अपने काम
को छोड़कर कम से कम दस और चीज़ों की जानकारी रखने वाली प्रजाति हैं। दिल्ली के किसी
भी रेलवे स्टेशन पर चले जाइए आपको ट्रेन की टाइम-टेबल से लेकर कौन से प्लेटफॉर्म
पर आएगी, कौन सी बोगी किधर लगेगी तक की किसी जानकारी के लिए इन्क्वायरी काउन्टर पर
जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। किसी कुली को पूछ लीजिए ‘टिप ऑफ टंग’ पर होगा सब। लेकिन उनसे
वाजिब दाम पर सामान उठवाकर यात्रा पूरी करने वाला कोई भारत माता का सपूत मुझे आजतक
नहीं मिला।
ये वो देश है जहां
सरकारी कॉलेज में समाजशास्त्र का मास्टर मंगलयान के प्रक्षेपण और समोसे बेचने वाला
स्कवेयर ड्राइव मारने पर सबसे सटीक राय दे सकता है, भले ही मास्टर साहब अपने
विद्यार्थियों के लिए ईद का चांद बने हुए हों और समोसे वाले चौधरी ने हफ्ते भर से
कड़ाही का तेल नहीं बदला हो।
चौराहे पर अड्डा
जमाने वाले हर बेरोज़गार के पास नेहरू की संपत्ति का लेखा-जोखा होता है। खुद की
नौकरी की क्या कहिए, मिली तो बजा आएंगे, ना मिली तो लानत-मलामत के लिए देश
ज़िंदाबाद अपना।
'ज़रमैट,' स्विज़रलैंड
के दक्षिणी भाग का छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत गांव है। हमें वहां से जेनिवा के लिए
निकलना था। ढाई घंटे का रास्ता है ये जानते हुए भी आदतन मैंने होटल की रिसेप्शनिस्ट से पूछ लिया, समय कितना लगेगा।
‘पता नहीं, मैं गई नहीं कभी, तुम्हारे ट्रेन
टाइम-टेबल में होगा’, उसने प्रोफेशनल मिठास से जवाब दिया।
लो कर लो बात, पता
रखने के लिए हो आना ज़रूरी थोड़े ही है। तभी इतना बोरिंग है ये देश, यहां पटना में हमारे कॉलेज के सामने चाट
वाले ने 1998 में अपने ठेले का नाम रखा था, ‘मोनिका लेवेन्सकी चाट कॉर्नर।’ अब वो कौन सा बिल क्लिंटन का
शाही मेहमान रहा था या चाट वालों के कॉन्फ्रेंस में वॉशिंगटन हो आया था। बस जागरुक
नागरिक था देश का।
यूं ही नहीं हम
संभावनाओं का देश कहलाते हैं। यहां का हर बाशिंदा मानता है कि उसका काम उसकी काबलियत के लायक नहीं है।
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