“सौ बातों की एक बात ये मुन्ना कि केवल बेटा
पैदा करने से बेटे का बाप नहीं बना जाता। बेटे का बाप बनना केवल अवस्था तो है नहीं
बचवा, हुनर भी है। जिसे मांजना पड़ता है, घिस-घिस कर, ताकि समय के साथ निखर जाए
और वक्त आने पर पूरा काम दे, समझे कि नाही।“ मिसिर
जी के ये बोल केवल बोल नहीं थे, सार था उनके जीवन का। जिस ठसक से वो अपने पांचों
नाटे, लंबे, सांवले, तोंदियल, नमूने बेटों को लेकर शहर-बाज़ार निकलते थे कलेजे पर सांप
लोटते थे लोगों के। हर शादी की डील उन्होंने जिस सूक्ष्मता से क्रैक की थी और हर
शादी के बाद जैसे अपने मकान में एक मंज़िल और बढ़ा ली थी, लिबरलाईज़ेशन के दौर के
बाद की बात होती तो यूं पर्दे के पीछे नहीं रह जाता उनका हुनर। 'डाउरी मैनेजमेंट' पर एक सेशन के लिए सादर हॉर्वर्ड बुला लिए जाते मुंबई के डिब्बा
वालों के संग।
डील के लिए ऐसे बैठते
महाशय कि सामने बैठकर ‘गॉडफादर’ के ‘अल पचीनो’ और ‘प्रिटी वुमन’ के ‘रिचर्ड गियर’ का कॉन्फिडेंस भी हिल जाए। एक बार उनके परम मित्र उनको साथ
लेकर गए अपने बेटे के लिए लड़की दिखाने। बिटवा उनका एक तो प्राइवेट में था और
दूसरे बायां पैर दबा कर चलता था थोड़ा, लड़की भी मुटल्ली थी लेकिन पार्टी माल वाली
थी, सो पूरे ठसक में सामने बैठी।
“बताइए क्या डिमांड है आपकी?” लड़की के मामा ने तौलने
वाली आवाज़ में पूछा।
“आप बताइए क्या दे सकते हैं, मित्र का हाथ रोकते
हुए मिसिर जी ने मोर्चा संभाला, मांगने को हम बेटे के लिए ताजमहल और लाल-किला नहीं
मांग रहे सो ही कम है क्या।“
पहले स्ट्रोक में
मैच जीतने की कला थी जी उनमें। अपने बेटों के लिए लड़की देखने जाते तो लड़की के
चेहरे को देखते भी नहीं, उड़ती नज़र हाथ पैर पर डालते बस, पैर छूती तो आर्शीवादी
ज़रूर रखते हाथ पर और सीधे मुद्दे पर आ जाते। रस्सी कब ढीली छोड़नी है कब झटके से
खींच लेना है उन्हें पक्का पता रहता। कौन ढीलम-ढाल वाली पार्टी है, कौन वचन का
पक्का है ये भी परख लेते थे सेकेंड भर में। बोल-भरोस पर बिल्कुल नहीं जाते, गिनवा
कर पहले अंटी में रख लेते तब जाता बेटा दर्जी के पास सूट आ कुर्ता का नाप देने।
शादी वाले दिन फिर
वो टेंशन फ्री रहते थे, जनवासे में आराम से सोते, ठाठ से बारात लगवाते और खाना
खाते वक्त पीछे से समधियाने की औरतों के गालियों और तानों वाले गीतों का
मुस्कुराते हुए आनंद लेते। और तो और विदा होती बहू के साथ अपनी आखें भिगा भी लेते।
बहू घर के अंदर और ये दालान पर बैठ पाव भर चाय का गिलास पकड़े अगली शादी की
प्लानिंग में जुट जाते।
बहुओं को ना नाम से
पहचानते ना शक्ल से। कई बार तो ये भी भूल जाते कि कौन किस नंबर के बेटे की जोरू है। लेकिन उनके गांव का नाम लो, आधी
नींद में भी समधी की ज़ायदाद, आमदनी के अन्य स्रोत समेत शादी के खाने में कौन सी
सब्ज़ी में नमक कम पड़ा था और विदाई में मिली धोती की क्वालिटी कैसी थी सब बता
देते। अपने पांचो तो छोड़िए आठ-दस भतीजों और भानजों की शादी की डील उन्होंने ऐसी
ही कराई थी। कहते हैं जो उनकी शरण में गया कभी बेटे की शादी पे हाथ मलने की नौबत
नहीं आई, उम्मीद से ज़्यादा ही घर भरा। उनकी निगरानी में हकले, काने, लूले,
दुहेजू, किसी की बहुरिया का खाली हाथ गृहप्रवेश नहीं हुआ।
लेकिन भाई साहब वो
ज़माना भी और था। अबके वाले क्या खाकर बेटा जनेंगे और काहे के बनेंगे बेटे के बाप।
मुंहचोर, पिलपिले से बेटे इनके और वैसे ही ढुल्ल-मुल्ल, डरपोक बाप। अब मोहन मिश्र
को ही ले लीजिए, प्राइवेट से इंजीनियरिंग कर बेटा मल्टीनेशनल में लगा दिल्ली में, 25-30
हज़ार की तनखा पर। पहली बार आया तो बाप के लिए घड़ी ले आया महंगी वाली और मां को दी
सिल्क की साड़ी। दूसरी बार में आकर एलान कर दिया कि प्यार हो गया है दिल्ली वाली
से और शादी करेगा, लड़की के पिता को फोन कर लें। तब जाके जागे मोहन बाबू और भागे
मिसिर जी की शरण में। मिसिर जी को सदमा लगते-लगते बचा। ऐसा कलयुग? छह लाख की तो केवल फीस भरी
थी बेटवा को पढ़ाने में, कम्प्यूटर अलग से खरीद के दिया। तिसपर नए फैशन के कपड़े,
जूते, मोबाइल का खर्चा अलग। और अभी लड़की वालों ने दरवाजा अगोरना शुरु किया नहीं
कि बिटवा प्रेम-विवाह को तैयार।
सांठ-गांठ कर लड़की
वालों को फोन पर ऐसी दवाई पिलाई कि लड़की और उसका बाप दोनों छितर गए। बेटे को
क्या-कैसे समझाना है उसकी प्लानिंग अलग थी। लेकिन भाई साहब कलयुग को घोर- कलयुग
मोबाइल फोन ने ही बनाया है। इधर फोन काटा उधर बेटे के मोबाइल पर सारा वार्तालाप
पहुंच गया। तीन दिन कमरे में ऐसा बंद हुआ बेटवा कि रो-रोकर आंखें सुजा लीं और बिना
बताए निकल लिया दिल्ली। इधर बिटवा की माई ने भी घर में असहयोग आंदोलन शुरू कर
दिया। मोहन बाबू ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके अपने ही घर में इतने
विभीषण बैठे हैं। छह महीने तक खींचा किसी तरह लेकिन बेटे का विद्रोह बिरादरी में
जंगल की आग जैसा फैल चुका था। जैसे एक कुली को सामान के पास खड़ा देख स्टेशन के
बाकी सारे कुली उस पैसेंजर से दूरी बना लेते हैं उसी तरह जब मोहन बाबू के दरवाज़े
पर कुत्ते ने भी पूंछ फटकारना बंद कर दिया तो टूटी नाक पर पलस्तर लगाए बीवी समेत
भागे बिटवा के पास दिल्ली।
अब यों कहो तो तीन-चार लाख खर्च कर बेटी को मैनेजमेंट पढ़ाने वाला बाप भी घाघ हो ही जाता है। दो चार
बार फोन पर मिसिर जी से सलाह मशविरा किया ज़रूर लेकिन ट्यूटोरियल ट्रेनिंग से
फायदा हुआ नहीं। ज्यादा फदफदा कर वैसे भी क्या करते मोहन बाबू, बिटवा ही अपना ना
रहा जब। जब सिर मुंड गया तो खाली मूंछों पर कब तक ताव देते। गनीमत समझो कि समधियाने
के खर्चे पर जात-बिरादर वालों को दिल्ली की बारात के मज़े मिल गए और धोती-कुर्ते
में ही सही दो-चार उत्साही भाई लोग ‘बोलो ता रा रा रा’ पर कूल्हे भी मटका लिए। घर भले ही फूटी कौड़ी
नहीं आई उनकी लेकिन जेब भी ढीली ना करनी पड़ी। सामान-वामान भी समधी ने सीधे बेटी दामाद के
किराए वाले घर में पहुंचा दिया। नाक कटी सो कटी, गर्दन बची रह गई, वो एक लाख।
और मिसिर जी? ज्यादा सदमा उन्हें ही
पहुंचा। सबसे बड़े पोते की शादी नहीं होती तो वो बारात में जाते भी नहीं। लेकिन
बड़का बेटा मोहन मिश्र को माफ नहीं कर पाए वो। बेटा तैयार करने का सूद तो डूबा मूल
भी नहीं निकाल पाया नालायक। अपनी नाक कटाई सो कटाई खानदान का चलन खराब किया वो
अलग। समय पर बिटवा को बेटे का बाप बनने की कला नहीं सिखा पाए इसका भी मलाल रहा।
वो ऐसा है कि बेटे का
बाप बनने का पराक्रम पूत के पालने में रहते ही शुरु करना होता है बचवा। होनहार
बच्चे परीक्षा की तैयारी पहले दिन से ही शुरू कर देते हैं। अंत समय पर जागने वाले
को कुंजी से पढ़ना होता है। और कुंजी पढ़कर परीक्षा बस पास होते हैं बचवा, टॉप
नहीं करते, हां नहीं तो।
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