Sunday, December 27, 2015

ये दिन वो साल



फोन से पुरानी तस्वीरों का बोझ कुछ कम करने बैठी तो नज़रें उस आई-कार्ड के फोटो पर ठिठक गईं। कहीं घूमने जाओ तो टैक्सी या उसके ड्राइवर की फोटो खींच लेने की पुरानी आदत है पतिदेव की। उसका चेहरा और साथ गुज़ारे दो दिन एकदम से आखों के सामने घूम गए। ठीक एक बरस पहले उसी के भरोसे अब तक की सबसे दुरूह सड़क यात्रा की थी। गंगटोक होटल में जब उसे बोलेरो में हमारा सामान डालते देखा तो डर सी गई। इतना छोटा लड़का, ये ले जाएगा उन रास्तों पर जहां जा सकने के लिए खास परमिट लेनी होती है राज्य सरकार से, जिन रास्तों पर ना हर ड्राइवर जा सकता है ना हर गाड़ी।
कल ही लौटा हूं वहां से, डरो मत, लेप्चा हूं मैं, 23 साल का हूं, सीज़न में हर तीसरे दिन जाता हूं, उसने स्टीयरिंग व्हील पर बैठते हुए पूरे प्रोफेशनल रुखाई से जवाब दिया। ये लो, एक तो रास्ता दुरूह उसपर रूखे स्वभाव का सारथी, हो गया काम।


मंज़िल से ज्यादा ख़ूबसूरत रास्ते की मिसाल देने वाले के जेहन में ज़रूर पहाड़ों की यात्रा ही रही होगी। गाड़ी में बैठते ही हर घुमावदार मोड़ पर जैसे नैसर्गिक सौंदर्य की मंज़िल साथ चलने लगती है। गंगटोक से उत्तरी सिक्किम के लाचुंग और युम्थांग घाटी की यात्रा लेकिन सौंदर्य और भय का अद्भुत कॉकटेल रही। दिसम्बर के आखिरी हफ्ते में हम वहां शर्तिया बर्फ देखने के आश्वासन के साथ गए थे। पहले दिन नाथूला दर्रे और चंगु लेक तक के दो घंटे के सफर में ख़राब रास्ते पर घबराहट जताई तो ड्राइवर ने बताया कि युम्थांग तक के रास्ते के सामने तो ये सड़कें नेशनल हाईवे हैं। हर किसी ड्राईवर के पास परिमट भी नहीं है वहां जाने का। तब से एक तो दिल वैसे ही धड़क रहा था उसपर ये बच्चा सा ड्राइवर और वो भी ऐसा, भगवान ही मालिक।

यूं वो बोल कम रहा था, लेकिन स्टीयरिंग पर हाथ उसके बिल्कुल सधे थे। फिर भी बेहद ख़राब, टूटा-फूटा रास्ता हर तीसरे मोड़ पर धड़कनें बढ़ा डालता। तीन साल पहले बाढ़ में सब टूट गया, तब से बना ही नहीं, पहले इतना बुरा हाल नहीं था, उसने बताया। कुछ घंटे लगे उसे हमसे सहज होकर खुलने में। कुल 130 किलोमीटर का सफर था लेकिन लगना पूरा दिन था। चुमथांग में शाम की चाय पीने रुके तो अंधेरा गहरा चुका था। उसके बाद के रास्ते में मैंने अपने परिवार को अपने घर के मंदिर में मौजूद तमाम देवी-देवताओं के हवाले कर दिया। गाड़ी की हेडलाइट में सामने की दो फुट सड़क भर नज़र आ रही थी, मोड़ का कुछ पता नहीं। लग रहा था जैसे एंडराइड फोन पर टेंपल रन खेल रहे हों, एकदम रीयल लाइफ, लाइव। ब्लाइंड टर्न पर जान हथेली पर लेकर दौड़ते रहने का खेल। वो लेकिन मेरे डर को धुंए में उड़ाता मज़े में चल रहा था।

रात हमें लाचुंग के होटल में गुज़ारनी थी। युम्थांग घाटी तक की यात्रा अगली सुबह होनी थी। होटल से घाटी तक की एक घंटे की यात्रा में अब घुमावदार मोड़ नहीं थे, थी तो बस श्वेताभ सुंदरता, शब्दों से परे, बस आंखों से पी जाने लायक। हर ओर इतना अछूता सौंदर्य मौजूद था कि काफी समय तक तो हम कैमरा निकालना ही भूल गए। लेकन हिम आच्छादित युम्थांग घाटी की अप्रतिम सुंदरता से बेपरवाह उसने हमें गाड़ी से उतारा और वहां के अपने दुकानदार दोस्तों के साथ बातों में मशगूल हो गया।

अब तक वो हमसे काफी खुल चुका था। कई कहानियां थीं उसके पास हमें सुनाने के लिए, पिता की, सौतेली मां की, उसके बच्चों की और अपनी इकलौती सगी बहन की। और थोड़े से सपने भी, बहन को  पढ़ाकर टीचर बनाने का, अपनी खुद की गाड़ी खरीदने का और किसी दिन खुद भी दसवीं पास करने का। उसने नौंवी के बाद स्कूल छोड़ दिया था। "बहन अब नौवीं में पढ़ रही है, लेकिन मुझसे ज्यादा जानती है, एक दिन वही मुझे पढ़ाकर दसवीं पास करवा देगी" उसने गर्व से गर्दन टेढ़ी करके मुझे बताया।
ये तो बहुत अच्छी बात है लेकिन तुम प्लीज़ सामने देखकर चलाओ, मैंने आदतन फिर उससे कहा।
आप डरता बहुत है मैडमजी, उसने एक बार फिर मेरा मज़क बनाया।
पीछे से किसी गाड़ी ने हॉर्न दिया, पता चला उसका एक और दोस्त है। अगले ही पल, वो गाड़ी में हम चार लोगों का होना भूल ही गया। दोस्त से हंसी ठठे के अलावा उसी संकरी सड़क पर गाड़ियों की रेस भी लगने लगी।
टर्न लेते वक्त कई बार उस दस हज़ार फुटी घाटी की तलहटी तक नज़र आई हमें। एकाध बार टोकने पर वो थोड़ा रुकता फिर वही सरपट रफ्तार और हंसी ठठा। अरे आप बैठो आराम से, कुछ नहीं होगा, फिर वही बेपरवाही उसकी।
सारे देवी-देवताओं को याद करने के बाद मुझे लगने लगा आख़िरी ख्वाहिश भी मांग ही लेनी चाहिए अपनी इष्ट देव से, स्वर्ग का शॉर्ट कट शायद यहीं कहीं से जाता हो। मेरे चेहरे का उड़ा रंग देख आगे बैठे पतिदेव ने इस बार उसे थोड़ा सख्त होकर टोका। वो धीमा तो हुआ लेकिन पूरी तरह चेहरा लटकाकर। कुछेक मिनटों में गाड़ी के अंदर का खुशनुमा माहौल सख्त सन्नाटे में बदल गया। मौके के नज़ाकत भांप बच्चे अपनी सीटों पर दुबक कर सो लिए। थोड़े समय बाद मैंने वापस उसकी बहन का ज़िक्र कर बातचीत के सिरे को थामने की कोशिश भी की, लेकिन सर्पिणी सी सड़कों पर प्रिय संगी के साथ रेस लगाने का रोमांच छिनने का क्षोभ उसे छोड़ नहीं रहा था। अपनी नाराज़गी का बदला उसने रास्ते भर सीडी प्लेयर पर ऊलजुलूल गाने सुनाकर लिया हमसे। इस बात पर उसे टोकने का कोई मतलब नहीं था सो हम अपने फोन के ईयर प्लग्स ढूंढने लग गए।
गंगटोक से थोड़ा पहले उसने चाय के लिए फिर गाड़ी रोकी। यहां से एक घंटा और लगेगा, इतने समय में उसने पहली बार हमसे बात की, होटल कौन सा है आपका, वही कल वाला?”
ना, आज की बुकिंग मेफेयर में है, हमने उसे बताया।
अब चिंता की लकीरें उसके चेहरे पर थीं। ये होटल शहर के दूसरे छोर पर था। मतलब, वहां तक पहुंचने के लिए पूरा शहर पार करो। उन दुरूह रास्तों पर नट की सी कुशलता से गाड़ी भगाने वाले को शहरी रास्ते डराते थे। वो लाइटें, चकाचौंध, लोग, बाज़ार, दुकानें, ट्रैफिक के नियम कुछ भी उसके लिए नहीं था शायद। तभी बाकी पहाड़ी ड्राइवरों की तरह उसने एक बार भी हमसे दिल्ली और वहां की ज़िंदगी के बारे में कोई सवाल नहीं किया था अब तक।
हमारी सांसो की रफ्तार संयत हुई तो उसकी धड़कनें बढ़ गईं। इतने समय के अबोले के बाद हमसे कुछ कहने में भी संकोच हो रहा था उसे। आखिर उसने एक दोस्त को फोन मिलाया, रास्ते से उसे गाड़ी में बिठाया और तब जाकर पूरा शहर पार कर हमारे होटल तक पहुंचने की हिम्मत उसमें आई।
होटल पहुंचकर उसने दोगुनी रफ्तार से हमारा सामान उतारा, पैसे लिए और औपचारिक नमस्ते के बाद ये जा और वो जा। अपने बाकी के ड्राइवर दोस्तों के जैसे एक रस्मी तस्वीर खिंचवाने का मौका भी नहीं दिया उसने हमें। अफसोस बस ये कि थोड़ा नाराज़ ही चला गया हमसे वो, शायद इसलिए भी जब कभी युम्थांग घाटी का ज़िक्र आता है एक बार उसे ज़रूर याद कर लेते हैं हम।


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