एक-एक बढ़ता
सेकेंड अब मुझपर भारी पड़ रहा था...लेकिन दरवाज़ा पकड़े वो अपनी सशक्त उम्मीदवारी
का सारा परिचय जैसे अभी के अभी दे देना चाहती थी। मैं अपने इस घिसे-पिटे इंटरव्यू
को जल्द से जल्द निपटा लेना चाहती थी ताकि 10 मिनट बाद कम से कम आज बिना ताने सुने अपनी कॉल शुरु कर
सकूं। लेकिन पहली मुलाकात में ही अपनी झल्लाहट दिखाकर
उसे अपना असली परिचय भी नहीं देना चाहती थी। घर में पोंछा लगे तीन दिन हो गए थे और
आज की कॉल में मुझे क्लाईंट से दूसरी बार प्रपोज़ल बनाने की डेडलाइन बढ़ाने की रिक्वेस्ट
करनी थी। कामवाली और क्लाईंट में से किसी एक को चुनना था मुझे इस वक्त। ये उन असंख्य
चुनावों में एक था जो हम औरतों को हर रोज़, हर क़दम पर करने पड़ते हैं, छोटे या
बड़े। करियर और बच्चों के बीच, प्यार और ज़िम्मेदारी के बीच, मन और मकसद के बीच।
छह महीने में ये
तीसरी बार था जब कामवाली बिना बताए काम छोड़कर चली गई। जब से पीछे नए बने 20
मंज़िला अल्ट्रा-लक्जरी अपार्टमेंट्स में लोग रहने आने शुरु हुए थे हमारी सोसायटी
की पुरानी लॉयल बाईयों के भाव आसमान छूने लगे थे।
“पिच्छे
की कोठी में बस झाड़ू-पोछा का हजार का रेट है दीदी। डस्टिंग का भी इत्ता ही।“
तीन करोड़की गठरी
लिए इन अल्ट्रा लग्जरी अपार्टमेंट वालों को कभी पता नहीं चलेगा कि उनके चक्कर में
इन तीन बाईयों के साथ मैंने अपने दो रिटर्निंग क्लाइंट्स भी खोए हैं।
“देखो
भाभी, भोर में साढ़े सात से आठ के पहिले तो नहीं हो पाएगा, सुबह घर में खाना
बनाने का डूटी मेरा है।“
“और
शाम को?” मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पाई
“ऊ
बनाता है, हम्मर आदमी। भोर में हम खाना बना कs, साफ-सफाई कर
क आती हूं आ ऊ बच्चा सब के तैयार कर इस्कूल पहुंचा देता है फिर काम पर जाता है। दिन
में हम जाकs कपड़ा धोती हूं और सांझ क उ पहिले आता है अउर
खाना बनाता है।“ उसने अपना डे प्लान मेरे सामने रखा।
“आप
तो घरे में रहते हो ना भाभी.....गार्ड भैया बताया हमको.....थोड़ा
देर-सवेर भी होगा तो क्या?”
"हां मैं घर में
ही रहकर काम करती हूं”...मैंने चिल्लाकर कहना चाहा...”तभी दूधवाले को हक है कि वो मेरी कॉल के बीच हिसाब करने आ जाए...तभी बैंक
के काम, कुरियर करना, हफ्ते की बीच बच्चों के स्कूल के छोटे बड़े सारे फंक्शन्स
अटेंड करना, रिश्तेदारों को डॉक्टर से दिखाना, उनकी शॉपिंग कराना सब मेरी ज़िम्मेदारी
है। और तो और नामुराद प्लंबर भी टपकते नलकों की टूंटी ठीक करने उसी वक्त डोरबेल
बजाता है जब मैं सबसे जटिल प्रोग्रामिंग की गुत्थियां सुलझा रही होती हूं।"
“क्या
मतलब घर पर रहती हूं....उसे डपट दिया मैंने, घर में ही ऑफिस है मेरा, वर्क फ्रॉम
होम करती हूं....समझी तुम”, उसे
हड़काने के लिए मैंने जार्गन का सहारा लिया इस बार।
“तो
क्या हुआ”…..वो हथियार डालने वालों में थोड़े ही थी, “आप अपना काम करना हम अपना करेंगे। एक्के दिन में
काम समझा देना बस।“
“ठीक
है”...मैंने ही हथियार डाल दिए, “अभी
जाओ मुझे एक ज़रूरी फोन करना है। कल से आ जाना काम पर।“
“अभिए
से करने दो ना, एतना गंदा है घर, आप अपना फोन करो, हम बर्तन कर देंगे धीरे-धीरे।“
मेरे पीछे बातें
करती वो किचन में घुसी,
“आपको
दिक्कत थोड़े ना होने देंगे भाभी...गार्ड भैया कह रहा था आप हम्मरे तरफ के हो। कौन
जिल्ला भाभी?”
मैंने उसे किचन
में छोड़ झल्लाकर खुद को स्टडी में बंद कर लिया।
15 साल हो गए दिल्ली
आए, जाने क्यों अभी भी, ‘अपने तरफ
के हो’ सुनना मुझे ‘बिहारी हो क्या’ सुनने जैसी चिढ़ से भर देता है।
कॉल पांच मिनट
की देरी से शुरु हुई, लेकिन सॉरी मैंने नहीं क्लाईंट ने कहा।
“फॉर
इन्वेस्टमेंट रीज़न्स वी हैव टू पुट द प्रोजेक्ट ऑन होल्ड फॉर नाऊ, सो द वेबसाइट
विल हैव टू वेट एज़ वेल, माई अपोलोजीज़”
कामवाली मिल गई
और क्लाईंट निकल गया हाथ से, मुझे पता नहीं मैं हँसूं या रोऊं।
मैं चाहती थी कि
मैं रोऊं तो कोई कुछ नहीं पूछे, मैं चाहती थी कि मैं रोऊं तो सब समझ जाएँ। मुझे
सचमुच नहीं पता कि मैं क्या चाहती हूं खुद से या कि इतने सालों में जो चाहना की थी
उनका कोई मतलब भी था क्या। मैं वो सारी गांठें खोल देना चाहती थी जो सब कुछ कर
सकने की कोशिश में मैंने अपने चारों ओर बांध ली थीं। मैं भाग जाना चाहती थी सब से
दूर, मैं लौट आना चाहती थी खुद के पास। पता नहीं किसकी ज़िंदगी जी रही थी मैं। हर
किसी को खुश करने की कोशिश में पता नहीं अपने आप को क्यों खर्च रही थी मैं हर रोज़।
मेरी मां को
दर्द था कि जिस बेटी की कोचिंग से लेकर प्राइवेट कॉलेज में इंजीनियरिंग तक के लिए
वो पूरे परिवार से टकरा गई वो आज मल्टीनेशनल की नौकरी छोड़ पता नहीं कौन सी
छोटी-मोटी कंपनियों की वेबसाइट डिज़ाइन किया करती है। सास की शिकायत थी कि जब
नौकरी नहीं है तो दिन-भर लैपटॉप में घुसे रहने के बहाने क्यों ढूँढा करती है, खुद का
काम है..कभी भी कर लो। जब घर पर ध्यान ही नहीं देना तो नौकरी ही भली थी। पतिदेव
याद कराते रहते हैं कि ये मेरी अपनी च्वाइस थी, मुझ पर कभी भी किसी तरह का दबाव
नहीं था, सो मुझे बिना शिकायत खुश रहना चाहिए। और मैं? मैं बार-बार खुद को याद कराना चाहती हूं कि तुम कुछ इनोवेट
करना चाहती थी अपने बल पर, अपनी शर्तों पर, इसलिए छोड़ी थी नौकरी। लेकिन तुममे
इनोवेशन की स्पीरिट है ही नहीं, घर हो या नौकरी तुम बस कोल्हू के बैल की तरह
इन्सट्रक्शन्स पूरे करना जानती हो, इसलिए इनोवेशन का आई तक नहीं ढ़ूंढ़ पाई, जो
हाथ लग जाता है कर देती हो बस।
मेरी ये लड़ाई हर किसी से थी या कि खुद से ये ही तय
नहीं कर पाई थी मैं अभी तक, तो लड़ती क्या।
ये मैं भी क्या
बेसिर-पैर का लेकर बैठ गई। एक क्लाईंट ही तो गया है, दो प्रोजेक्ट्स की डेडलाइन की
तलवार अभी भी नाच तो रही है मेरे सिर पर। अब तो एक कामवाली का हाथ भी था मेरे उपर।
हे भगवान! उसे
तो मैं किचन ही.....पता नहीं क्या कर रही होगी। मैं भी ना एकदम से किसी पर
भी विश्वास कर लेती हूं।
किचन के सारे
ड्रॉअर्स एकसाथ खोलकर वो बर्तन पोंछ-पोंछकर लगा रही थी।
“कोन
चीज कहाँ रखते हो पता नहीं था ना भाभी...जेही से सब खोल लिए एक्के साथ।“
मुझे देखकर उसने अपने कत्थे और चूने से काले दांत निपोर दिए।
“फोन
हो गया तो चल्लो झाड़ू बता दो और मशीन में कपड़ा लगाना भी दिखा दो एक बार।“
पूरी प्रोफेशनल थी
ये तो.....सरसरी नज़र से एक बार बर्तनों का मुआयना करती मैं किचन से बाहर हो ली। वैसे
उसने काम ठीक से नहीं भी किया होता तो भी आज टोकने का दिन नहीं था। इस देश में आप सरकार,
फिल्मकार किसी को भी रोज़ गालियां दे सकते हैं लेकिन कामवालियों को ज़रा सा टोकना पैरों
पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
दो दिनों में
उसके सुघड़ हाथों ने मेरी गृहस्थी वापस पटरी पर ला दी। दादी कहती थी चौबीस घंटों
में एक क्षण ऐसा आता है जब भगवान तुम्हारे मन की बात पूरी कर देता है। उस दिन, उस
एक क्षण में मैंने शायद कामवाली के लिए ही आंसू बहाए होंगे।
मुझे काम करता
देख अपने मन से चाय बना लाती कई बार और स्टडी के दरवाज़े पर अपना कप हाथ में लिए
बैठ जाती। बीच-बीच में ये जताना नहीं भूलती कि मेरे घर आकर ही चाय बनाने का मौका
मिलता है उसे, घर में तो जब तक उसका आदमी सुबह की चाय हाथ में नहीं पकड़ाए उसकी
आँख नहीं खुलती। उसकी चपड़-चपड़ के बावजूद शुरुआती दोपहर की वो चाय मुझे बहुत
सुकून दिया करती। अकेले में तलब तो लगती थी लेकिन सोचते-सोचते लंच का
समय हो जाया करता। जो काम सब के लिए करने होते हैं उसके लिए जाने क्यों हम औरतों
के पास समय निकल ही आता है लेकिन बस खुद के लिए सब कम पड़ जाता है, समय भी और चाहत
भी।
‘तुम्हारा
आदमी सब काम बांट लेता है?’ ये पूछते वक्त जाने कैसी हीन
भावना भर गई मेरे अंदर।
“हां
तो...कमाएंगे दुन्नू गोटे भाभी तो घर एक्के गो कईसे देख लेगा अकेले? उसको तो रिक्सा चलाना है उ तो पांच मिलट लेटो निकल जाएगा ना भाभी...हमारा
तो डूटी का टाइम है। फेन रात को यहां से जाकर हम दो घर में लड़का लोगों का खाना
बनाती हूँ, घर आते आते दस बज जाता है। इसी से भोर में हमारा आँखे नही खुलता है
भाभी।“
पता नहीं क्या
था उसके कहने में कि मेरे आत्मविश्वास की चूलें हिल गईं। सारी पढ़ाई-लिखाई,
डिग्रियां सब जैसे माखौल उड़ाते सा लगते।
इसने जैसे मुझे हर मुद्दे पर इन्फीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स देने की ठान ली थी। कई बार लगता कहीं मुझे
इशारों में कुछ समझाने की कोशिश तो नहीं कर रही ये। जब सुबह काम करते हुए ये मुझे
पति का गीला तौलिया और बेतरतीबी से बिखरे कपड़े समेटती देखती होगी, जल्दी-जल्दी
उनका लंच पैक करती देखती होगी क्या इसे मुझ पर तरस आता होगा? जैसे-जैसे घर व्यवस्थित हो रहा था मेरे मन की गांठ जाने क्यों
बड़ी हो रही थी। उस दिन सबको परोस कर खाना खाने बैठी तो विवेक ने टोका, ‘ग्लास लगाना भूल ही गई तुम।‘
मैं झल्ला गई, ‘सारे काम करती हूं कम से कम पानी तो लगा दो तुम में से कोई।‘
‘क्यों
नहीं, कल से खाना भी खुद ही परोस लिया करेंगे और कहो तो परसों से बना भी लें
अपना-अपना।‘
दस और आठ साल के
बच्चे मुंह छिपा कर हँसने लगे।
विवेक ने फिर
याद दिलाया मुझे, ’जो काम खुद से नहीं कर सकती उसके
लिए कामवाली रखो। नहीं तो अपने आईडियल्स का बोझ हमारे उपर मत डालो। घर में 24 घंटे
की मेड नहीं रखना तुम्हारा फैसला था, मेरा नहीं।‘
मैं हर दिन उस
क्षण को कोसती हूं जब माँ की वो बात मानी थी कि हर काम के लिए नौकर लगा लोगी तो घर
कभी घर नहीं बना पाएगा, होटल बन कर रह जाएगा। सो घर अब मेरी ज़िम्मेदारी और
बाकियों का होटल बना रह रहा था।
ऐसी कामवालियों
को आजकल काले धन की तरह ज़माने से छुपा कर रखा जाता है। फिर भी उस ‘डे आउट’ वाले दिन उसका ज़िक्र निकल ही
गया मुँह से। भावना के नए सॉलिटियर और मिसेज अग्रवाल की ऑडी क्यू थ्री के चर्चों
के बीच तीसरी पास ऐसे पति का ज़िक्र छिड़ा जो हफ्ते भर बीवी को 'चारपाई टी' पिलाता
था, बच्चों को स्कूल लाने-छोड़ने का काम करता था, घर के कपड़े धोता था और एक शाम
का खाना भी बनाता था। और तो और उसके काम के हिसाब से फ्लेक्सी टाइमिंग पर काम करने
को तैयार भी था।
पता नहीं मुझे
ही ऐसा लगा या सचमुच दो पल का सन्नाटा छा गया टेबल पर।
“हाँ भई जब पर्सनल लाईफ इतनी सॉर्टेड आउड होगी किसी की तो वर्क फ्रंट पर परफॉर्मेंस तो
अच्छी होनी ही है", भावना ने हँसते हुए कहा और सबने मेन्यू कॉर्ड में अपना मुंह
छिपा लिया।
‘अरे
तू भी भोली है एकदम, इनकी कहानियाँ सुन लेती है’, सौम्या कई
मिनट बाद बोली, ‘इनलोगों की जात ही ऐसी है, एक दिन पति
महारानी बना देगा, दूसरे दिन जूतों से आरती भी उतार देता है।‘
सबने इधर-उधर
देखते हुए हामी भरी और तंबोला की पर्चियाँ उठा लीं। और मुझे लगता था बस मेरी ही
सारी इच्छाएँ, सारे अरमानों के केन्द्र बराबरी के इस संबंध पर आ टिके थे।
चार महीने जैसे
मक्खन पर फिसलती उँगलियों से निकल गए। और फिर एक दिन वो नहीं आई। फिर उसके अगले
दिन और उसके भी अगले दिन नहीं। फोन भी बंद रहा उसका। गृहस्थी में वापस जैसे चक्रवात
आ गया। पाँचवे दिन हताशा में झाड़ू उठाया ही था कि दूर से लंगड़ाती नज़र आई।
‘शुरु हो गए तुम्हारे नाटक भी, एक
फोन नहीं कर सकती थी तुम,’ मैंने जैसे-तैसे अपने शब्दों को
काबू में किया, पता चला पिच्छे की कोठी के दर्शन इसे भी हो गए और हिसाब करने आई
है। उसकी आँखों में लेकिन आँसू थे।
“लड़ाई हो गया घर में, आदमी
मारपीट किया भाभी, चौठा रोज़, कुगर लग गया चलले नहीं हो रहा था, फोन भी टूट गया
इसी में।“ निढाल सी वो दरवाज़े पर ही बैठ गई।
चेहरा वैसा
ही सख्त बना रहा मेरा लेकिन एक आग जो पता नहीं कब से धधक रही थी मेरे अंदर अचानक
लगा जैसे शांत हो गई। इनफैक्ट, जब शांत हो गई तब एहसास हुआ कि कुछ धधक रहा था अंदर।
मैंने उसे पुराने ब्रेड के साथ चाय दी और चोट पर मलने के लिए थोड़ी सी अर्निका। वो धीरे-धीरे, लंगड़ा-लंगड़ाकर चुपचाप
अपना काम करती रही और लैपटॉप के स्क्रीन पर जमी मेरी
आँखें जाने क्या सोच-सोचकर शून्य में निहारती रही। मैं भी ना एकदम ही बेवकूफ हूं,
हर किसी के आगे ख़ुद को बौना बनाने की धुन में रहती हूं, सौम्या ने बिल्कुल ठीक ही
तो कहा था, ये कामवालियाँ और इनके किस्से।
शाम तक वो
पुराने रंग में लौटने लगी। काम खत्म करके धीरे से स्टडी के दरवाज़े पर आई।
‘भाsभी,’ बड़ी देर तक मेरे पैर से सटकर ज़मीन पर बैठे
रहने के बाद उसने कहा।
मैं उससे नाराज़
होने का नाटक कर रही थी। लेकिन भीतर ही भीतर मेरे अंदर संतोष था, खुशी भी। और खेलो
बराबरी का खेल, आ गई ना औकात पर।
‘बोलो’
‘ऊ
वाला दवाई मिलेगा क्या थोड़ा और?’
‘कौन
सी?’ मैंने फिर लैपटॉप में व्यस्त होने का नाटक किया।
‘ऊही
जो भोरे मलहम लगाने दिए थे चोट पर, बहुत आराम मिला। तीन दिन से नीम तेल से जितना
फायदा नहीं हुआ उतना एक बार में ही कर दिया ये दवाई।‘
‘हाँ चलो लगा लो दूसरे कमरे में।‘
‘नहीं
भाभी कागज में बांधकर दो। घर ले जाउँगी।‘
‘यहीं
लगा लो ना’ आजिज आते हुए मैंने कहा, ‘आधी
तो कागज़ में ही बर्बाद हो जाएगी।‘
‘अपना
ला नई भाभी, अपना आदमी ला चाहिए।‘ उसने नवोढ़ा की तरह
नज़रें झुकाते हुए कहा।
‘अब
उसे क्या हुआ, मारते-मारते दर्द हो गया क्या’, मैंने तंज कसा
‘परसु
खुना जब खटिया पर वो हमरा बाल पकड़ा रहा ना भाभी, तब गिरने से पहले हम भी एक लात
जमा दिए थे उसके पेरू में। गिरा हड़िया के ऊपर..पीछे पूरा चोटा गया है। फिर मारने
दौड़ा तो तीन-चार लप्पड़ के बाद एक हाथ पीछे घुमा कर कस कर मरोड़ दिया हम भी। भागा
फिर बाप-बाप करके। तभई से रिक्सा भी एके हाथ से चला रहा है और सीट पर बईठने में भी
दिक्कत हो रहा है’ बोलते-बोलते शरमा तक ऐसे हँस पड़ी मालती जैसे
बेडरूम के अंतरंग किस्से सुना रही हो मुझे। सांवले गालों का रंग और गहरा गया उसके
लाज भरे चेहरे पर।
मेरे हाथ से
अर्निका की पूरी ट्यूब लेकर वो चलती बनी और पाँच दिन में पहली बार मुझे हँसी आई, ढेर सारी।
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