Saturday, September 26, 2015

घर और शहर

घर वो अपना जहां आपने अपना बचपन बिताया, जिसकी दीवारों पर अपने बढ़ते क़द की निशानियां छोड़ीं, जिसकी चाहरदीवारी को फांद गीली गेंद उठाई, कच्ची अमिया चुनी, जामुन चुराए, आंगन में गढ्ढे खोद अपने खज़ाने छुपाए, मां ने नाराज़गी में कान उमेठे तो मां का नाम लेकर ही रोए, जहां सुबह भाई-बहनों के साथ झगड़कर संपत्ति और सीमा का बंटवारा किया और शाम तक फिर सब मिला लिया। जहां आंगन में आम के पेड़ पर चढ़ उत्सुक हाथों से तोते के अंडे गिने और हाथ लग उनके गिर जाने पर फूट-फूट कर रोए। जहां कैंपकॉट पर सूख रहे धुले गेहूं की रखवाली की, रात के अँधेरे में छत पर लेट तारों और हवाई जहाज़ में अंतर करना सीखा। घर वो जहां नाम नहीं रिश्ते जिए।

और शहर वो अपना जिसकी दहलीज़ पर खड़े होकर हमने खुद को और सपनों को जवान होता महसूस किया। जिसकी गलियों की ख़ाक छानी, किराए के लिए सबसे कमरे की तलाश में। जहां लंच के पैसे बचाकर सिनेमा की टिकटों के पैसे जोड़े। जहां फोटो कॉपी वाले और फोन बूथ वाले से दोस्ती बनाई, उधार के लिए।  शहर वो जिसने हमारे सपनों को जिया, हमारी छोटी-छोटी सफलताओ में हौले से मुस्कुराया, नाकामी की स्याह रातों में हमारे साथ फूट-फूट कर रोया, हमारे गिरने को अपने अजनबीयत के कोहरे से ढक लिया जिससे कोई और मज़ाक उड़ाती नज़र हमें तौल ना सके। शहर वो जिसने एक बदहवास शाम हमारा हाथ पकड़कर कहा बस बहुत हो गया, अब ठहर जाओ..कुछ नहीं है इसके पार, बस अब और मत भागो। 

हम जैसों के लिए अक्सर हमारा अपना घर, हमारे अपने शहर में पनाह नहीं ले पाता। वो जो अपना घर होता है वहां से बाहर निकलते ही शहर पराया लगने लगता है और अपने शहर में जो घरौंदा बनाया होता है वो कभी घर का सा सुकून नहीं दे पाता है। घर के बाहर का शहर हमें हर पल तोलता है, हमसे हमारे ही होने का सबूत मांगता है और शहर के अंदर का घर हमारी मौजूदगी में भी जैसे सोता है। हमारे होने ना होने से बेखबर हम तक पहुंचने ही नहीं देता गंध अपनेपन की। घर के बाहर भी घुटन और शहर के अंदर भी। इस कदर हमने हर उस जश्न में अपने घर को बेतरह याद किया है जो हमें हमारे शहर की कामयाबी ने दी, हर उस नेमत को अपने घर के आंचल में छुपाना चाहा है जो हमें हमारे शहर ने बख्शी, कि, हम बंट गए दो हिस्सों में...शायद कभी एक नहीं हो पाने के लिए।

इस बात को वो लोग कभी नहीं समझेंगे जिनके लिए उनका घर उनके शहर में ही है...चूंकि वो घर के छूटने का दर्द नहीं जानते अपने ही शहर से कभी टूटकर गले भी नहीं लग पाते। वो अक्सर अपने झिलमिलाते शहर के उस स्याह दर्द को भी नहीं देख पाते जो उसने बस हमसे साझा किए। वो शहर रोशनी में डूबा रहकर भी अपने जैसा ही अकेला लगा, इतना कि कई बार हमने उसे अपने घर के मंदिर के दिये से चंद पलों की रोशनी देने की कोशिश भी की। इस तरह अपने शहर से हमारा दर्द का एक रिश्ता बन गया है, बिल्कुल अछूता, बिल्कुल अनूठा, जिस रिश्ते के बल पर हमने अपने घर छूटने के दर्द को भुलाना चाहा है। 


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