एम्सटरडम घूमने के लिए बस
एक दिन था हमारे पास और वो भी बूंदा-बांदी और तेज़ हवाओं वाला बेहद ठंढा दिन। मई
के आखिर में तपती दिल्ली का अभ्यस्त हमारा शरीर सूती जैकेटों में रह-रहकर कंपकंपा
उठता था। दिन का पूरा उपयोग करने के लिए हमने होटल सुबह ही छोड़ा, सामान एम्स्टरडम
सेन्ट्रल स्टेशन पर रखा और सिटी टूर बस में बैठ गए। इस तरह, यात्रा के बाकी दिनों
की तुलना में उस दिन सबसे कम चलना हुआ (हालांकि दोपहर बाद ये कसर एम्सटरडम के
मशहूर आर्टिस चिड़ियाघर में तीन घंटे चलकर पूरी हो गई)। बस का ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि
सड़क पर कम चलने के बावजूद उस एक दिन में मैंने ट्रैफिक के इतने नियम तोड़े जितने
शायद पूरी ज़िंदगी में नहीं।
वजह, शहर के सुव्यवस्थित और
सुचालित साइकिल ट्रैक्स। काम या सैर के लिए साइकिल का इस्तेमाल करने वालों के लिए
ये शहर वाकई जन्नत है। अपनी लेन में ये साइकिल सवार बेधड़क चलते हैं, पूरी स्पीड
में। कईयों ने आगे या पीछे बास्केट में अपने बच्चों को बिठा रखा था तो कई के साथ
ऑफिस का बैग या क़िताबें नज़र आईं। अपने ट्रैक में ये नि:शंक होते हैं,
कार सवारों से कहीं ज़्यादा। लेकिन मेरी मुसीबत ये कि शहर भर में ये ट्रैक, पैदल
रास्तों से सटे बने हैं। बेख़बरी में बार-बार मैं अपने रास्ते से उतरकर साइकिल
ट्रैक पर चलने लगती। जब तक ध्यान आता कोई तेज़ रफ्तार साइकिल सवार घंटी बजाता
बिल्कुल पास पहुंच चुका होता। मैंने कईयों से माफी मांगी, कुछ की गुर्राती आंखें
झेलीं और बार-बार पतिदेव की डांट सुनी। एक महिला तो बकायदा साइकिल से उतरकर मेरे पास
आ गई। मैंने हड़बड़ाहट में अपने टूरिस्ट होने की सफाई दी।
‘हां, लेकिन अगर एक्सीडेंट के बाद ये पता चला तो कोई फायदा
नहीं होगा’, उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। इसके पहले मैं समझ पाती कि उसके कहने में
व्यंग्य था या सच में सहानुभूति, वो पैडल मारती दूर जा चुकी थी।
शुक्र है लंच के
बाद हम शहर के पौने दो सौ साल पुराने आर्टिस चिड़ियाघर में पहुंचे और वहां बच्चों
का मन ऐसा रमा कि निकलते निकलते समय और उत्साह दोनों हाथ से निकल चुका था।
चिड़ियाघर की वो यात्रा
वहां बने ख़ास बटरफ्लाई पैवेलियन के लिए हमेशा याद रहेगी। रंग-बिरंगी तितलियों का
भरा-पूरा संसार, जहां घुसने के बाद फोटो खींचना तो दूर आवाज़ निकालने का मन भी नहीं
करता। तितलियों की कोई आवाज़ भी होती है आजतक पता नहीं था, क्योंकि इतने सालों में
उनका उड़ना तो देखा था लेकिन उनका खिलखिलाना इंसानों के शोर में दब सा जाता था। वो
आवाज़ यहां सुनी क्योंकि ये उनका संसार था और हम थे उनके मेहमान। यहां ना उनके
उड़ने में कोई सकपकाहट थी ना बैठने में कोई डर। कुछ दृश्यों को हमेशा याद रखने के
लिए फोटो की ज़रूरत नहीं होती, वो यूं ही क़ैद रहते हैं आखों में, ताउम्र।
डूबती हुई वो शाम हमें एक और बड़ी सीख दे
गई। हमारा अगला पड़ाव बर्लिन था, जिसके लिए ट्रेन से रात भर का सफर तय करना था।
एम्सटरडम से निकलकर पहले हम ओबरहाउसन पहुंचे। ओबरहाउसन उत्तर
पश्चिम जर्मनी में स्थित एक छोटा सा शहर है। गिन-गिनकर केवल नामचीन शहर नापने वाले
हम जैसे टूरिस्टों को उसका नाम तक पता नहीं होता अगर बर्लिन के लिए ओवरनाइट ट्रेन
हमें वहां नहीं बदलनी होती। वो शनिवार की शाम थी। वीकएंड की खुमारी चारों ओर थी।
उस दिन शायद कोई कलर रेस भी हुई थी। रास्ते भर रंगे हुए बच्चे-बड़े हमें गाते, गुनगुनाते,
मुस्कुराते नज़र आए। स्टेशन पर इंतज़ार करते हुए हमने देखा कि नई उम्र का एक लड़का
अपनी आस्तीन समेटे हुए बार-बार चार खानों के बने एक कचरे के डब्बे में हाथ डाल रहा
है। कुछ निकालने की कोशिश कर रहा था जो शायद उसके हाथ नहीं आ रहा था। हमें बड़ा
अटपटा सा लगा।
‘रैगपिकर तो नहीं लगता....इज़ ही ड्रंक?’ बिटिया ने पूछ भी
लिया।
देखते रहने का बाद पता चला कि
ग़लती से उसने पानी की ख़ाली बोतल डस्टबिन के उस खाने में डाल दी थी जो किसी और
प्रकार के कचरे के लिए बनी थी। उसने ग़लत खाने से अपनी बोतल निकाली और प्लास्टिक
वेस्ट वाले खाने में डाली तब जाकर वहां से हिला। हम स्तब्ध थे, क्योंकि उस समय
हमारे अलावा उसे वहां देखने वाला कोई और नहीं था।
सोचा था इन सब बातों
का इस सफ़रकथा में क्या काम। लेकिन अपना देश हर जगह अपने साथ चलता जाता है। स्वच्छ भारत
के अलावा उन दिनों प्रदूषण नियंत्रण के लिए साइकिल का इस्तेमाल को प्रोत्साहन देने
की भी चर्चाएं ज़ोरों पर थीं और विरोध में सड़कों को साइकिल सवारी के लायक बनाने
की बात भी उठी थी। नियम बस बनने, बनाने से नहीं चलते, चलते तब हैं जब उन्हें
निभाने की चाह हो और तोड़ने पर शर्मिंदगी का एहसास हो, एक को नहीं, सभी को।
No comments:
Post a Comment