Friday, October 2, 2015

यातनाशिविर की पाश्विक क्रूरताओं के साक्ष्य

टूरिस्ट बनकर किसी देश में जाना किसी के घर जाकर ड्राईंग रूम में बैठने जैसा है। घर का सबसे साफ-सुथरा, सजा-संवरा कोना जहां बैठने वाले को ना बाथरुम में टपक रहे नलके की चिंता ना किचन की आलमारियों के टूट रहे कब्जों की, ना बाल्कनी की कुर्सियों पर धूल की परतों की खबर ना स्टोर में लटक रहे डेढ़ हाथ के जालों की। अलग-अलग इमारतों, चौराहों और बाज़ारों के सामने जब आप रंग-बिरंगी मुस्कान ओढ़ फोटो खिंचवाते हैं तो एंबुलेंस या सायरन की आवाज़ भी चौंका देती है। अच्छा! अस्पताल भी हैं यहां, ज़रुरत इनकी भी होती है रोशनी और खिलखिलाहटों से भरे इस शहर को!
लेकिन बर्लिन के थोड़ा हटकर ओरानियनबर्ग की यात्रा बिल्कुल वैसी रही जैसे आपने किसी के घर का सबसे वर्जित कोना देख लिया हो.....उस बंद दरवाज़े के पीछे झांकने की हिमाकत कर ली हो जिसने घर के इतिहास के सारे काले पन्नो को अपने अँधरे में क़ैद कर रखा है।

ओरानियनबर्ग स्थित “सैक्सनहाउसन” दूसरे विश्वयुद्ध के समय नात्सी फौजों का वो कॉन्सन्ट्रेशन कैंप है जहां ना केवल 1936-45 के बीच 2 लाख युद्धबंदियों और यहूदी क़ैदियों को रखा गया बल्कि योरोप में ऐसे दूसरे कैंपों के अधिकारियों को प्रशिक्षित भी किया गया।

Arbeit macht frei (Work Makes You Free), 100 एकड़ में फैले इस त्रिकोणिय यातनाशिविर के गेट पर लिखे वो तीन शब्द हैं जो हिटलर के सबसे बड़े फरेब और धोखे के साक्षी हैं, जिसका उद्देश्य क़ैदियों से इस उम्मीद में कठिन से कठिन परिश्रम कराना था कि एक दिन उन्हें यहां से मुक्ति मिल जाएगी..जीते जी।
यूं हिटलर को उसका देश कुछ इस तरह रिजेक्ट कर चुका है कि बर्लिन की सड़कों पर उसका नाम ज़ोर से लेकर आप किसी भी स्थानीय व्यक्ति की घूरती निगाहों के पात्र बन सकते हैं। फिर भी जर्मन, हिटलर की आतातायी विरासत को सुरक्षित रखना चाहते हैं। ताकि, दुनिया भर की आने वाली पीढ़ियां इससे सबक ले सकें। इस यातनागृह की खामोशियों में उन नौ सालों की पाश्विक क्रूरता और रोंगटे खड़े कर देने वाली मौंतों की कहानियों को बड़े जतन से सहेज कर रखा गया है। उनके सोने के कमरे जहां एक-दूसरे से बिल्कुल सटे तीन मालों के बिस्तर मुश्किल से सांस लेने की जगह देते होंगे, बिना दरवाज़े के शौचालय और पशुओं के लायक बने बड़े हौदे सत्तर साल बाद भी दिल दहला देने के लिए काफी थे।

क़ैदियों के अस्पताल में, जहां उनके इलाज के नाम पर उनके शरीर पर अमानवीय प्रयोग किए जाते थे, फर्श टूट गए हैं इसलिए उन्हें बचाने के लिए उनके उपर शीशे के पारदर्शी फर्श बना दिए हैं। इस अस्पताल की दीवारों पर चंद उन भाग्यशाली क़ैदियों की कहानियां पढ़ पाना भी सुखद आश्चर्य से भर देता है जो यहां से जीवित निकले और सफल ज़िंदगी जीने में कामयाब हुए। 
इन कहानियों को पूरी दुनिया से साझा करने की हिम्मत रखने के लिए जर्मनी की दाद देनी पड़ेगी वर्ना दुनिया में आज भी ना ऐसा जुल्म कर रहे ताकतवर देशों की कमी है ना उसे बेबसी में झेल रही सभ्यतायों की। बस उनकी सच्चाई सात तालों में क़ैद है।

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