Thursday, August 27, 2015

परवरिश हमारी

अपने अमेरिकी और यूरोपीय दोस्तों से मैने कई बार बच्चों की परवरिश के भारतीय तौर-तरीकों की आलोचना सुनी है, हालांकि उतनी ही बार मैं अपने संस्कार और अपने पारिवारिक मूल्यों का हवाला देते हुए उनसे उलझी भी हूं। फिर भी एक अमेरिकी दोस्त की ये टिप्पणी मेरे अंदर गहरे पैठ गई है कहीं,
“You don’t actually bring up your kids, you turn them into a bundle of emotional fools”
जज़्बाती होकर विदेशियों से इस मुद्दे पर मैं अभी भी लड़ने तो तैयार हूं क्योंकि तर्क-वितर्क करना मेरे व्यक्तित्व में है लेकिन एक अपने भीतर झांकने पर इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर सकने का दोमुंहापन मेरे अंदर नहीं है। 
तुम्हें बड़ा करने में हमनें अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी।
हमने हमेशा तुम्हारी सुविधाओं के आगे अपनी ज़रूरतों को अनदेखा किया।
क्या मां-बाप होने के नाते हमारा तुमपर इतना भी अधिकार नहीं? क्या तुम हमारी इतनी सी बात नहीं मान सकते?
ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जिन्हे हमारी पूरी पीढ़ी ने अपनी परवरिश के दौरान ज़रूर सुना होगा, सुनकर कसमसाए भी होंगे, फिर भी हम अपने बच्चों सामने इन्हीं शब्दों को तकिया-कलाम की तरह दोहरा देते हैं। हमारे माता-पिता ने शायद इतना सब नहीं सुना हो क्योंकि उनकी पीढ़ी के लिए वैसे भी मां-बाप का कहा पत्थर की लकीर थी। जैसा मेरी मां बताती है कि कैसे रिश्ते के एक मामा ने जब महज 20 साल की उम्र में अपने से काफी मोटी लड़की से अपनी शादी का विरोध किया था तो शादी के बस एक दिन पहले उनके पिता ने चप्पलों से उनकी पिटाई की थी।

लेकिन हम अपने बच्चों को कैसे पालना चाहते हैं? क्योंकि हम उन्हें जैसे बड़ा करेंगे वो वैसे ही अभिभावक भी बनेंगे अपनी अगली पीढ़ी के लिए। आम मध्यवर्गीय परिवार में अपने कामकाजी जीवन का एक बड़ा भाग हम अपने बच्चों को पालने-पोसने में बिता देते हैं। लेकिन मातृत्व या पितृत्व से जुड़े समर्पण और निष्ठाओं के पीछे केवल प्यार ही नहीं होता, अधिकार का भाव भी होता है। एक जीती जागती एंटिटी है जिसे हमें गढ़ना है, उसे ऐसा बनाना है कि दुनिया हमें दाद दे, हमसे रश्क करे...ऐसा सोचते-सोचते कई बार हम बच्चों को अपनी बाकी एचीवमेंट्स की तरह एक तमगे के तौर पर देखने लगते हैं।
 हम क्या चाहते हैं अपने बच्चों से?  हम चाहते हैं कि वे वो सबकुछ बनें जो हम हैं और हम ये भी चाहते हैं कि वे वो सब भी बन जाएं तो हम होना चाहते थे लेकिन बन ना पाए। हम उन्हें हर चीज़ देना चाहते हैं, हर बात सिखाना चाहते हैं और  ये सब करने में इतने डूब जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि सींचते रहने की भी एक सीमा होती है और एक समय के बाद सारा पानी सतह पर ही बर्बाद हो जाता है। फिर भी पेड़ों को पानी देने की आदत जाती नहीं हमारी। ज़रा सोचिए, अगर बीस साल का बच्चा अपनी क्षमता और पसंद का विषय नहीं चुन सकता, अपने लिए सही दोस्त या जीवनसाथी नहीं चुन सकता तो उसकी इस अनिश्चिचता या अक्षमता की ज़िम्मेदारी किसकी है? इतने सालों तक सही चुनाव करना नहीं सिखाने या फिर अपने चुनाव के नतीजे को स्वीकार करने ही हिम्मत रखने की सीख नहीं देने वाले अभिभावकों की ही तो?
आईआईएमसी के शुरुआती दिनों में एक बार डेवलपमेंट जर्नलिज्म के छात्रों के साथ हमारी बातचीत का आयोजन किया गया। ये विकासशील देशों से आए कामकाजी पत्रकारों का ग्रुप था जो भारतीय संस्कृति से परिचित होने के लिए बनाए गए एक शॉर्ट टर्म कोर्स के तहत आईआईएमसी आते थे। ज़ाहिर है उनके सवाल ज्यादातर भारतीय संस्कृति और तौर-तरीकों के बारे में थे। एक अफ्रीकी लड़की (देश का नाम मुझे याद नहीं) का सवाल था,
“I’ve come to know that in India parents choose who their son or daughter should marry…how big is this crime?”

इस बात को 16 साल हो गए, तब बस बेटी थी, आज मां भी हूं, लेकिन ये सवाल आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। क्या अपने फैसले खुद लेने के मामले में हमारे बच्चों की हैसियत इतनी गई गुजरी है? हम ना केवल उनकी पढ़ाई, उनके जीवनसाथी जैसे चुनाव अपने हाथ में रखना चाहते बल्कि ये तक खुद ही तय करना चाहते हैं कि उनके बच्चे कब पैदा हों, लड़का हो या लड़की हो और उनके नाम क्या रखे जाएँ । गरीबी, भ्रष्टाचार और सुरक्षा की तरह अगर दुनिया के देशों में फैसले लेने की क्षमता का कोई रिसर्च इंडेक्स आए तो शायद तमाम दूसरे इंडेक्सों की तरह हम भारतीय उसमें भी नीचे ही नज़र आएंगे।
स्वछंद प्रवृति के अमेरिकी व्यस्क अपने बच्चों को लेकर बेहद लापरवाह हैं जैसे ब्लैंकेट स्टेटमेंट देना बिल्कुल वैसा ही है जैसे अमेरिकी कहें कि भारत में देखने लायक केवल ताजमहल और हाथी हैं। एक मध्यवर्गीय शिक्षित अमेरिकी परिवार भी अपने बच्चों को बड़ा करने में रात-दिन एक कर देता है। एक-एक पैसा जोड़ उनकी महंगी पढ़ाई का बंदोबस्त किया जाता है। सपोर्ट सिस्टम के बिना मां-बाप मिलकर उन्हें बड़ा करते हैं। बच्चे अच्छा ना करें तो निराशा वहां भी होती है मां-बाप को। बावजूद इसके मैंने शायद ही किसी अमेरिकी माता-पिता को बच्चों की ये शिकायत करते सुना है कि अब वो स्वतंत्र हो गए है और अपने फैसले खुद लेने लगे हैं।
वैसे हमारी ये भारतीयता कभी भी, कहीं भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती। 35 सालों से अमेरिका में बसे मेरे पिता के एक मित्र ने इस बार उन्हें इस बात की बधाई दी कि उनकी सभी बेटियों ने अपनी जाति के लड़कों से शादी की। अमेरिका में ही जन्मी, पली-बढ़ी उनकी बेटियां हालांकि अपने करियर में काफी अच्छा कर रही हैं, शादी भी भारतीय मूल के लड़कों से ही की है लेकिन दुर्भाग्य से वे उनकी जाति के नहीं हैं और इसका थोड़ा सा मलाल तो उन्हें ज़रूर है। एक अन्य पारिवारिक मित्र चाहते हैं कि पिछले 15 साल से अमेरिका में रह रही, एक आईवी लीग यूनिवर्सिटी में पढ़ रही उनकी बेटी के लिए हम उनकी जाति का लड़का ढ़ूंढने में मदद करें।
मैं जब अपने गृह नगर जाती हूं तो वहां दो तरह के मां-बाप मिलते हैं। एक तो वे जिनके बच्चों ने अपने करियर में ऊंची उड़ान भरी, मां-बाप का सर गर्व से ऊंच कर दिया और अपने सपनों को पूरा करने की चाह में बड़े शहरों या दूसरे देशों में बस गए और दूसरे वो जिनके बच्चे इस दौड़ में थोड़ा पीछे रह गए और उतनी सफलता नहीं हासिल कर पाए। इसलिए अपने शहर में, अपने मां-बाप के साथ रहकर ही काम कर रहे हैं। दोनों तरह के मां-बाप दुखी हैं, अपने बच्चों से अलग-अलग तरह की लापरवाहियों की शिकायतों को लेकर।
तो क्या हम अच्छे मां-बाप नहीं है? या हमारे मां-बाप अच्छे पेरेंट्स नहीं थे ? दोनों की प्रश्नों की स्वीकारोक्ति हमारे लिए मुश्किल है। और इसे एकदम से स्वीकार करना भी ग़लत है। अमेरिका में मेरी प्रेग्नेंसी के दौरान एक अमेरिकी नर्स से अच्छी दोस्ती हो गई थी। विज़िट्स के दौरान हम लंबी बातें करते थे, उसने बताया कि उसका पहला पति भारतीय था।
“Unfortunately I loved everything about India and its culture except my husband, who turned out to be a complete jerk”
खैर अपने दूसरे पति के साथ वो बेहद खुश थी।
“You are going to be a very young Mom, एक बार उसने मुझसे कहा था, Please, have a plan B for your life after they have grown up. I always wonder why you such wonderful people don’t have one, maybe that’s why you never learn to let go of them.”
मैं कतई नहीं मानती कि परवरिश के पश्चिमी तौर तरीकों में खामियां नहीं है या हमारी परवरिश की हर बात ग़लत है। लेकिन लेट गो वाले मोड़ पर आकर जाने क्यों हम लड़खड़ा जाते हैं। मातृत्व के पिछले नौ सालों में कई बार खुद से ये सवाल किया है, मेरा प्लान बी क्या है? कई जवाब गढ़े हैं, तोड़े हैं और आज भी गढ़ने की कोशिश कर रही हूं। खुद को तैयार कर रही हूं उस मोड़ के लिए।

वैसे अपने बच्चों को जाने देने के फैसले के लिए ये भी ज़रूरी है कि हम अपने मां-बाप से भी ये उम्मीद करना बंद कर दें कि वो हमारी हर छोटी आवाज़ पर दौड़े आ जाएं हमारे लिए। ग़ैरज़रूरी बंधन की कड़ियां दोनों से हिलाई जाएं तो ज्यादा जल्दी खुलती हैं। और जाने देना भी प्यार की ज़रूरत है। 

2 comments:

  1. बहुत बढ़़िया। कोशिश यही करनी चाहिए कि प्लान बी तो होना ही चाहिए.. हर स्थिति के लिए....

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