कल पार्क में शर्मा
आंटी मिली थीं।
कौन सी शर्मा आंटी?
अरे वही जो हर बात
में, ‘तुम्हारे अंकल ये, तुम्हारे अंकल वो’ करती रहती हैं।
हां जी वही जो
सोसायटी की मीटिंगों में सबसे तेज़ बोलती हैं, हर बार नई शिकायत के साथ।
अब कहानी बिना टोके
खत्म करेंगे।
हां तो शर्मा आंटी
पार्क की बेंच पर बैठी एक दूसरी आंटी से बतिया रही थीं, सामने बच्चों का बैडमिंटन गेम चल रहा था, एक तरफ दो लड़कियां सामने
एक लड़के से हार रही थीं।
“जज करके शॉर्ट तो खेल ही नहीं रहीं, कैसे बेमन से मार रही हैं
ये।“
“हां बस ऐसे ही।“
“खेलिए ना फिर इनके साथ”
दो-एक बार और ज़ोर
देने का रिस्क उठाना पड़ा, फिर क्या था, पचपन साल की आंटी ने पन्द्रह साल के उन लड़के लड़कियों को
कोर्ट में यहां से वहां ऐसा दौड़ाया, पूछिए मत।
बच्चे हैरान, “आंटी आप तो एकदम प्रो निकलीं”,
वो नवोढ़ा की तरह
लजा गईं, “कॉलेज में खेला करते थे बस थोड़ा-बहुत”।
“ना आंटी, थोड़ा-बहुत वाला खेल नहीं लगता आपका।“
बेंच पर वापस बैठ अपनी
फूलती सासों को संयत करती वो अचानक संजीदा हो गईं, “कॉलेज के पहले दो साल यूनिवर्सिटी चैंपियन बनी।
कोच ने घर आकर मेरे पापा से कहा, स्टेट चैंपियन हो सकती है ये थोड़ी और प्रैक्टिस से। नेशनल टीम
तक नहीं भी गई तो भी सरकारी नौकरी तो पक्की।“
‘फिर’?
“फिर क्या? मेरे पापा को तुम्हारे अंकल मिल गए फिर बस।
मेरे भाई को कोच सर वैसे ही लफंगे जैसे लगे थे, मीठी बातों से भले घर की लड़कियों को बहकाने
वाले, इंजीनियर लड़का मिलने से बेहतर बहाना और क्या होता उस समय, खेलकर क्लर्की मिलने से
बेहतर इंजीनियर साहब की मिसेज बनना नहीं था क्या?”
‘उसके बाद?’
“उसके बाद तो ज़िंदगी बैडमिंटन का मैच और मैं
उसकी शटल”, एक मिनट में दार्शनिक बन गईं आंटी। दूसरी ने सहमति में ऐसे सिर हिलाया जैसे
साझा दर्द खुरच गया दोनों आंटियों को।
वैसे शर्मा अंकल भी
हमारे चेस खेला करते थे नौकरी के दिनों में। अपने डिपार्टमेंट के चैंपियन रहे थे
कई साल। उनके घर जाओ तो शील्ड ऐसे करीने से चमकते रहते हैं जैसे वॉर मेडल्स हों।
और आंटी के शील्ड्स? सर्टीफिकेट्स?
कौन जाने? ससुराल तक तो क्रोशिया और
एम्ब्रॉयडरी के ढेरो मेजपोश ही आए थे ये कहकर कि मैंने बनाए हैं सब (बनाए चाची, बुआ ने थे वैसे), सर्टिफिकेट कौन देखता यहां? जब तक पापा थे, उनकी आलमारी में बंद रहे
होंगे शायद, अब तो भाई भी नए घर में है, वैसे पूछना ही किसे याद है।
ढूंढने पर कैसे
मिलेंगी भला? वो कौन सा शर्मा आंटी के नाम पर होंगी? ‘कुमारी सविता पांडे’ के नाम से थीं ना।
हाय राम, कैसा अनचीन्हा सा नाम है, मिला तो ले कोई इसे अपनी
पहचानी सी शर्मा आंटी से।
छोड़ो भी अब, क्या
रखा है इसमें।
और शर्मा आंटी का
पता जानकर क्या करेंगे आप भला? पड़ोस का दरवाज़ा खटखटाइए ना खन्ना, माथुर, वर्मा, मिश्रा कोई
ना कोई आंटी मिल ही जाएंगी। ऊपर से तो सब एक सी दिखती हैं, बहू-बेटियों वाली,
नाती-पोतों वाली, थकी, शक्की, चिड़चिड़ी....कुछ पन्ने पलटने की दरकार है इनके भीतर
के।
किसी का गला इतना
सुरीला है, कोई धोबी के हिसाब वाली डायरी में छुप-छुपकर ग़ज़लें लिखती हैं, किसी
का मैथ्स इतना अच्छा था कि अच्छे-अच्छे लड़के पानी भरें उसके आगे, कोई रेस में
अपने साथ के लड़कों को धूल चटाती थीं। उम्र की किताब से अरमानों की धूल उड़ातीं, बहुओं
की पोटली भर शिकायतें बतियाती, ज़माने के चलन पर सौ लानतें भेजतीं, सास-बहू के सीरियलों में
ज़िंदगी के फलसफे ढूंढने वाली आंटियों के अंदर कितनी चाहतें, कितने हौसले दफन पड़े हैं, अभी भी ज़रा से खाद पानी
से देखिए तो कितनी जल्दी लहलहा उठती हैं, ज़रा सी हवा से कैसे लहक उठती हैं।
वैसे अपनी मां से भी
एक बार पूछने में कोई हर्ज नहीं, “18-20 साल की उम्र में अगर
नाना ने जूते-चप्पल घिसकर पापा को नहीं ढूंढ लिया होता तो आप आज क्या होतीं मां?”
मेरी मां ने शायद
किताबें लिखी होतीं, बच्चों की कहानियों की। वो कहानियां जो मिनटों में बनती
हैं, जिसे मौखिक सुन मेरे और बहनों के बच्चों की उनींदी आखें कौतूहल से एकदम गोल
हो जाया करती हैं और एकटक सुनते-सुनते उनकी प्लेट का खाना कब खत्म हो जाता है पता
ही नहीं चलता, वो कहानियां जिसमें बच्चे नहीं डरते, डरकर बल्कि जादूगर को भागना
पड़ता है, वो कहानियां जिनमें भालू भैया नदी से बाल्टी भर-भर के पानी लाता है खीर
और पूड़ियां बनाने के लिए।
और आपकी मां?
A story that our generation added new chapters to so that our next generation could change the story altogether.......
ReplyDeleteAs we watch,,,,anxious but amused! 😊