Saturday, December 5, 2015

गुड़िया और कहानियां



चार बहनों वाले घर में ज़्यादा खिलौनों की ज़रूरत नहीं होती। हमारे समय में ज़्यादातर हैसियत भी नहीं होती थी। फिर भी, पता नहीं क्यों, पापा एक बार्बी डॉल लेकर आए थे, पचास रुपए की। छोटे कस्बों के महंगे स्कूलों की एक महीने की फीस होती थी तब इतनी। भूरे बालों और भूरे कपड़ों वाली वो बार्बी हमारे घर में लेकिन उपेक्षित सी पड़ी रही, शो रैक पर। गुड़ियों के खेल के लिए हमें बड़े परिवार की दरकार होती थी। दादा-दादी, चाचा-चाची, भैया-दीदी वाला परिवार, जो ज़रूरत पुरानी सफेद कपड़ों की हाथ से बनी गुड़िया ही पूरी कर सकती थी। इन गुड़ियों का आशियाना बनता पुराने कार्टन में, जिसमें माचिस के खाली डब्बों के सोफे होते और माचिस के डब्बों का ही टीवी भी होता। बाकी काम तरह-तरह के बर्तन सेट पूरे करते जिनकी हमारे पास भरमार थी। इलीट सी बार्बी उसमें आउट ऑफ प्लेस ही रह गई।
यूं हमारी पीढ़ी तक छोटे शहरों और कस्बों में बार्बी स्टेट्स सिंबल बनी भी नहीं थी ना ही उसे लेकर अपनी पसंद और नापसंद के बारे में हमने अपने बेफिक्र बचपन में कभी इतने ग़ौर से सोचा था। अमेरिका में एक बार एक भारतीय सहकर्मी के घर गई तो उनकी चार-पांच साल की बेटी के लिए एक बार्बी ख़रीद ली। अगले दिन दफ्तर में यूं ही बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि अपनी बिटिया को वो कभी बार्बी नहीं देते, क्योंकि बार्बी खिलौना नहीं दरअसल लड़कियों में कुंठा के अंकुर की शुरुआत है। बार्बी को साठ के दशक में यूं भी पहले व्यस्कों के लिए शो-पीस के तौर पर ही बनाया गया था। मेरी बिटिया उस समय कुछ महीनों की ही रही होगी। पता नहीं क्यों ये बात दिल को छू गई।

जब इस तरह के खिलौनों की उम्र आई तो मैंने तय किया उसके लिए खुद से कभी बार्बी नहीं ख़रीदूंगी, कभी खरीदा भी नहीं। अगर उसे कहीं से तोहफे में मिलता और वो उसे लेना चाहती तो मैं मना नहीं करती। लेकिन उसे खुद भी कभी इन गुड़ियों से खास लगाव नहीं रहा। खिलौनों से खेलने के लिए जैसी बेफिक्री की चाहत होती है बार्बी वो कभी नहीं दे पाती। शगुन को इसलिए अपने स्टफ्ड टॉयज़ ज़्यादा पसंद आए। इस बार दिवाली में देखा कि अपने कमरे की सफाई के क्रम में उसने अपनी सारी बार्बी डॉल्स निकाल दीं। यूं भी कई सालों से वो वैसी ही पड़ी थीं। हां बार्बी और दूसरी एनिमेशन फिल्में ज़रूर चाव से देखती रही, लेकिन उसकी प्रिय कहानियों में सिन्ड्रेला या स्नो-व्हाईट नहीं, फ्रोज़न है, दो बहनों के आपसी प्यार, त्याग और साहस की कहानी। यूं टीवी पर बच्चों के कार्टून्स की पात्रों में मुझे डोरा द एक्सप्लोरर सबसे ज्यादा पसंद है, जो एक बैक पैक और एक नक्शा लिए अपनी यात्राएं खुद तय करती है। भारतीय कार्टूनों में छोटा भीम की बेबाक और निर्भीक चुटकी मेरी पसंदीदा है।

कुछ समय पहले इंटरनेट पर ढूंढा तो पता चला कि फैशन डॉल्स के बाज़ार में दुनिया भर में तहलका मचाने वाली बार्बी को दरअसल भारतीय बाज़ारों में निराश ही रहना पड़ा। कई प्रकार की भारतीय बार्बी बनाने के बावजूद इस गुड़िया की बिक्री भारत में अनुमान से काफी कम रही। क्योंकि बाज़ार की समझ के साथ वो भारतीय संस्कृति से तारतम्य स्थापित नहीं कर पाई।

अपने मित्र से सालों पहले की गई बातचीत फिर याद आ गई, बच्चों की परवरिश में उन कहानियों का बड़ा योगदान होता है जो हम उन्हें सुनाते हैं। इस लिहाज़ से पश्चिमी लड़कियों के मुकाबले हिन्दुस्तान में लड़कियों की परवरिश ज्यादा रिएलिस्टिक तरीके से होती है। हमारी कहानियों में स्त्रियों के कर्तव्यों और अधिकारों की बात होती है, संघर्ष और प्रतिकारों की बात होती है। गरीब, दुखियारी और उपेक्षिता सुंदरी को कहानी के अंत में ना कोई सपनों का राजकुमार अपने सफेद घोड़े पर बिठा कर ले जाता है और ना ही एक झटके में उसकी सारी समस्याओं का कोई अंत होता है। कोई हैप्पिली एवर आफ्टर नहीं। हमारी कहानियों में संघर्ष भी स्त्रियों के अपने होते हैं और उनका निवारण भी। एक और बात, ऐश्वर्य सारी समस्याओं का समाधान भी नहीं देता। राजकुमारियों और रानियों को बल्कि ऐश्वर्य की कीमत अलग-अलग तरीकों से चुकानी पड़ी है। ऐसा नहीं है कि मध्ययुग के पश्चिमी राजघरानों की स्त्रियों की हालत इससे कुछ अलग रही हो लेकिन फिर भी उनकी लोक कहानियां एक दौलतमंद राजकुमार के मिलते ही हमेशा के लिए सुखांत पर खत्म हो जाती हैं।

इस पीढ़ी की लड़कियों की चुनौतियां भी अलग, उनके संघर्ष भी अलग, दुख की बात ये है कि इस बारे में बात करने के लिए कहानियां ना इस ओर हैं ना उस ओर। 



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