बरसाती पानी से
बजबजाती गलियां नालियों से एकाकार हो गई थीं। बाहर बादल अब अपना रहा सहा ज़ोर
निचोड़ रहे थे एक-एक टपकती बूंद के साथ और अंदर जून की उमस में चाय का ग्लास पकड़े
उनके कांपते हाथ पसीने से सराबोर हो रहे थे।
चाची....किशोर शायद
बड़ी देर से खड़ा था सामने या शायद अभी-अभी आया।
“संजू भैया का फोन आया था...दिल्ली पहुंच गए
हैं...दोपहर तक पटना भी आ जाएंगे.....पटना में गाड़ी का इंतज़ाम हो गया है। मुन्ना
कलकत्ता उतरेगा शाम तक, सुबह तक ही पहुंच पाएगा। आप एक बार घर हो आते तो....बबली
दी, जीजाजी पहुंचने वाले हैं घंटे भर में....मुज़फ्फरपुर से फोन आया था।“
इस बार आंखों से
टपकती बूंद को चाय के ग्लास तक पहुंचने से रोक नहीं पाई वे। तीसरा दिन है आज, ना
बच्चे अपने घरौंदों से यहां तक का दूरी तय कर पाए हैं ना वो ही शीशे से उस पार
बिस्तर तक दस क़दम का फासला तय कर पाई हैं। दिन, घंटे, मिनट सब जैसे एक वृत में
बंध शून्य में अटक गए हैं और आरबी मेमोरियल के आईसीयू के बाहर सहमे खड़े हैं उनके
साथ। ना दिमाग काम कर रहा है ना शरीर। किशोर एक टांग पर खड़ा सब संभाल रहा है।
“लकवा बता रहे हैं डॉक्टर साहब और साथ में हार्ट
अटैक भी है.....एक बार भी होश आ जाता तो…”
कहां अलग थी वो शाम
ठहरी हुई बाकी शामों से। तीन दिन से रुक-रुक कर बारिश हो रही थी। उस दिन साथ में
हवा भी चलने लगी तो मौसम एकाएक बहुत ठंढा हो गया था। मना करती रह गई पर भी निकल गए
छतरी लेकर टहलने शाम को किशोर के पापा के साथ,
“अब इतनी बरसात भी नहीं हुई कि जनानी बन कर घर ही
बैठ जाएं”...उम्र के साथ-साथ बोली इतनी कड़वी होती जा रही है इनकी कि आगे कुछ बोलने का
मन ही नहीं हुआ।
बारिश तेज़ नहीं थी
लेकिन सड़क किनारे चलते-चलते तेज़ी से आती एक गाड़ी ने उछाल दिया ढेर सारा कीचड़
वाला पानी। दस ही मिनट में खिसियाए से घर लौटे और सीधे घुस गए बाथरुम में नहाने।
बिजली थी नहीं…..गैस पर भी पानी गर्म करने का मौका नहीं दिया। तब तक भी तो एकदम ठीक थे...रात
खाना खाते जाने क्या हुआ हाथ से कौर छूटा और बैठे-बैठे ही लेट गए पीछे की ओर….मुंह
खुला का खुला। घबराहट में हाथ ना बिना बटन वाले काले मोबाइल तक पहुंचा ना लैंडलाईन
तक। बिना चप्पल, बिना छतरी भागी गईं किशोर के घर.......कुछ बोलने की ज़रूरत ही
नहीं पड़ी, उन्हें देखते ही खाना छोड़ दौड़े दोनों बाप-बेटा।
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अस्पताल क्या शहर है
पूरा...कुछ-कुछ उस होटल सा जहां लास वेगास में ठहराया था मुन्ना ने जब पहली बार
अमेरिका गए थे सात-आठ साल पहले। डर लगता है यहां भी खो जाने का जैसे वहां लगा था।
लिफ्ट वाली गली के सामने खड़ा कर बबली दवा लाने गई है। दोनों ओर तीस-तीस फुट ऊंची
नक्काशीदार जालियां बनी है पेड़ के आकार की, सफेद रंग की। अंदर रोशनी जल रही है,
बाहर जालियों पर मन्नतों की हज़ारों लाल डोरियां बंधी है...जाने किस-किस की सांसों
की छूटती डोर को थामने के लिए। इसके अलावा कोई मंदिर, कोई मूर्ति, कोई तस्वीर नहीं
है यहां किसी एक धर्म से जुड़ी.....बस आप्त दिलों को ठहराव देने के लिए सुखद सी
शांति। यहां चुपचाप खड़े रहना सुकून देता है बहुत। लेकिन हाथ बढ़ाकर एक डोरी
बांधने की हिम्मत नहीं होती। गुड़गांव आकर समय का वृत थोड़ा और बड़ा ज़रूर हो गया
है लेकिन अभी भी वैसे ही धूम रहा है निरर्थक सा उनके चारों ओर। चार दिन से आते-जाते
हर किसी के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है। बेटों के तनाव से खिंचे-खिंचे
चेहरे कुछ भनक नहीं लगने देते। बेटी की छलकती आंखें कलेजा मथती रहती हैं। तीनों बस बार-बार कंधे पकड़कर सहला जाते हैं उनके,
“सब ठीक हो जाएगा मम्मी….तुम बस हिम्मत रखो”
डॉक्टर पूरे परिवार
से बात करना चाहते हैं एक बार। मुन्ना चाहता है मां यहीं रह जाए...लेकिन वो बबली
का हाथ पकड़े हठी बच्चे की तरह सबके साथ चलती हैं। डॉक्टर धाराप्रवाह बोल रहे हैं.....ब्लड
प्रेशर और क्रॉनिक डायबिटीज के पुराने कॉम्प्लीकेशन्स, उस पर पेरेलिसिस, ब्लॉकेड 80% है, लेकिन ऑपरेशन करने का
सवाल ही नहीं, एन्जियोप्लास्टी में भी रिस्क और जाने क्या-क्या। अंतिम वाक्य यूं
भी सब बातों का निचोड़ है...जितना वक्त है उनके पास उसे खुशी-खुशी बिताईए आप
सब.....एवरीवन हैज़ टू लेट गो ऑफ देयर पेरेंट्स एट सम प्वाईंट। ही माईट बी कपल
वीक्स, ईवन मंथ्स....दैट्स ऑल। यू डिसाईड वेयर ही स्पेंड्स दिस टाईम। आई कैन
डिस्चार्ज हिम इन ए वीक।
पूरा परिवार इकठ्ठा
है उसके चारों ओर...मुन्ना के ब्याह के बाद पहली बार दोनों बहुएं एक साथ हैं उनके
सामने। इसके पहले जब भी आईं अलग-अलग, बारी-बारी से। खुद उनका मिलना-जुलना भले ही
हो जाता है अमेरिका में....साल दो साल में एक बार। विभा आ गई है सामने, कॉफी के मग
पकड़े। उसे बताती है छोटे मौसा आए हैं पापाजी से मिलने। उन्होनें एक नज़र देखा
बड़ी बहू को। लाल चुस्त सलवार और हरे कुर्ते के ऊपर दुपट्टा भी डाल रखा है गले
में। हाथों में एक-एक कड़ा भी है। विभा जानती है बहुओं का यूं नंगे हाथ रहना
उन्हें सख्त नापसंद है। शुरू-शुरु में यूं भी बड़े अनुशासन में रखा इसे...छोटी के
आने के साथ सब ढीला पड़ गया। मुन्ना भाभी के समय से ही इन सब नियमों के लिए लड़ता
था मां से। बीवी को तो उसने पहले ही दिन से बरज दिया था। बहुएं लेकिन इन बातों को
लेकर उनसे सीधे उलझने से बचती हैं इसलिए रिश्तेदारों के सामने उनके सारे नियम
चुपचाप ओढ़ लेती हैं अपने ऊपर। ये वक्त यूं भी इन बातों का नहीं है। बेटे
प्रत्यक्ष में, फोन पर, बारी-बारी से सारे रिश्तेदारों को फोन पर बता रहे हैं
डीटेल में। वे अपनी आँखें बंद कर लेती हैं..आंखों के सामने फिर से घर, अपना घर तैर
जाता है। कीचड़ वाली सड़क पर टहलने जाना क्या होश में आखिरी बार अपने घर से निकलना
हो जाएगा उनके लिए?
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सत्ताईसवें माले की
बाल्कनी से सबकुछ अंतहीन सा दिखता है। चारों ओर बन रहीं इमारतें हर रोज़ अपना क़द
बढ़ा रही हैं लेकिन इस बिल्डिंग के सामने अभी भी बौनी ही दिखती हैं। क्षितिज कहीं
नज़र ही नहीं आता। आसमान छूने की अकुलाहट इतनी ज्यादा है सबके अंदर कि आसमान भी डरता
है यहां शायद धरती के पास आने से। खाली-खाली कमरों से चार बेडरूम का घर और भी बड़ा
दिखता है। नए घर की गंध का सूनापन, अनमनापन उनके नथुनों को भर गया है। बिल्डिंगें
अभी लगभग खाली ही है, रोज़ ही बड़े ट्रक ज़रूर घुसते हैं अंदर किसी ना किसी का
सामान लिए। ऊपर वाले घर में काम चल रहा है......ठक-ठक, घिस-घिस का आवाज़ देर रात
तक चलती रहती है। मुन्ना और जूही इसी घर के पोज़ेशन के लिए आने वाले थे इस बार जब
पापा की ख़बर मिली उन्हें। अभी यहीं रहना फाइनल किया है सबने चूंकि मेदांता भी
यहां से दस मिनट की दूरी पर है। बाल्कनी से मुड़कर देखा उन्होनें....बबली जूही के
साथ ड्राईंग रुम के फर्श पर गद्दे लगा रही थी। विभा चाय की ट्रे लेकर खड़ी थी
सामने।
“चेयर यहीं ला दूं मम्मी?”
“नहीं अंदर ही चल लो। फोन आया संजू का?”
“हां सामान लोड हो गया है....लेकिन ट्रक नौ बजे
के बाद ही निकल पाएगा...आज भी रतजगा होने वाला है”, वो हौले से हंसती है।
द्वारका में
संजू-विभा का पुराना घर पांच साल से बंद पड़ा है, जब से न्यूयॉर्क शिफ्ट हुए हैं
ये लोग। वहां का फर्नीचर लाकर तब तक काम चलाने की बात है। रसोई का सामान पहले ही आ
गया है। पापा इनके परसों आ जाएंगे हॉस्पीटल से। उनके कमरे में वैसे भी मेडिकल बेड
आएगा किराए पर, इतने दिनों के लिए इतना महंगा सामान ख़रीदने का सेंस नहीं बनता।
वैसे भी जब बाद में उसका इस्तेमाल नहीं होना हो। मुन्ना, संजू दिन रात दौड़-भाग इन
कमरों को अस्थाई घर का आकार देने की कोशिश कर रहे हैं जब तक सबके यहां रहने की
ज़रूरत है। ये तब तक, कब तक एक ऐसा प्रश्न चिन्ह बनकर लटक गया है सबके ऊपर जिसकी
ओर ताकने में भी डर लगता है उनको। कितने दिन? कुछ हफ्ते या एकाध महीने। उस समय क्या? उसके बाद क्या?
छोटे के डैने सबसे
जल्दी मज़बूत हो गए थे, हमेशा ऊंची उड़ान भरने को आकुल। इंजीनियरिंग करने गया भी
तो त्रिचि। फिर एमबीए के लिए सीधे अमेरिका। संजू को ज़रूर पापा की ज़रूरत होती थी
हमेशा मुड़-मुड़ के देखने के लिए। कहता था ऐसी किसी जगह नहीं जाऊंगा जहां हर छह
महीने में मां-पापा से मिल ना सकूं। लेकिन वो भी चला गया....बदहवास भागते इस शहर में अपने
जड़ें मज़बूती से जमाने के लिए डॉलर की कमाई ज़रूरी हो गई कुछ सालों के लिए। सो
छोटे भाई के मज़बूत पंखों का सहारा लेकर वो भी उड़ गया।
संजू के दोस्त,
बहुओं के मायके वाले, बाकी रिश्तेदार, मिलने-जुलने वालों का आना लगातार जारी है।
संजू के घर का सोफा पापा के कमरे में लगा है। मुन्ना चाहता है एक बढ़िया सोफा ले
आए ड्राईंग रुम के लिए। जूही फुसफुसा कर बरज रही है पति को। सारे कमरों में एसी पहले
ही लगाए जा चुके हैं, अभी रजिस्ट्री में भी पैसे लगने वाले हैं, इतने से दिनों के
लिए इतनी लग्ज़री ज़रूरी है क्या? संजू आवाज़ लगा रहा
है दूसरे कमरे से। मुन्ना एक हाथ दबा कर बीवी को चुप करा देता है...और भाई से बात
करने चला जाता है।
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बगल के कमरे से
बच्चों के हंसने की आवाज़ पूरे घर को गुंजा रही है। महीने भर से साथ रहते-रहते सबका
बचपन लौट आया है फिर से। जूही क्या विभा तक को कई नई-नई कहानियां सुनने को मिल रही
हैं तीनों बहन-भाईयों के बचपन की। दरवाज़े पर खड़ी वो चुपचाप निहार रही हैं सबको।
मन किया सबको आकर यहीं पापा के कमरे में बैठने को कहें। फीज़ियोथेरेपिस्ट अभी-अभी
गया है एक्सरसाईज़ कराकर। पक्षाघात से एक ओर का चेहरा टेढ़ा हो गया है और हाथ-पैर
सब कांपने लगे बुरी तरह। वैसे अब सबको आराम से पहचानने लगे हैं...ध्यान से सुनने
की कोशिश करो तो लटपटाई सी आवाज़ में पूरा वाक्य भी बोल लेते हैं। लेकिन ज्यादातर
चुपचाप निहारते रहते हैं सबको। फिर बात-बात पर रोने भी लगते हैं..... असहज सन्नाटा
पसर जाता है सबकी बीच।
यूं बच्चे दिन भर आते-जाते
रहते हैं कमरे में। जूही पापाजी की दवाई का ध्यान रखती है, बबली और विभा दिन भर
कुछ ना कुछ बना कर खिलाने के यत्न में रहती है, बेटे मिलकर उन्हें फ्रेश करा देते
हैं....शाश्वत, जिया, प्रणय को भी बारी-बारी से मिलाने लाते हैं दादू से। बस
दामादजी चले गए कोच्चि वापस बच्चों को लेकर..उनके स्कूल जल्दी खुलते हैं। अमेरिका
वाले बच्चों की छुट्टियां तो सितम्बर तक चलेंगी।
कल किचेन से विभा
किसी को तो फोन से बता रही थी, “टाईमिंग सही ही रही वैसे तो...सबकी छुट्टियां हैं अभी...आ
भी गए सब के सब....सबको देख लिया एक बार साथ में पापाजी ने..अब आगे चाहे जित्ते
दिन..”
किसी ने घंटी बजाई, हर
किसी को बातों में व्यस्त देख वो ही पहुंची। सात-आठ साल की एक बच्ची थी..हिन्दी
अंग्रेजी मिला कर उनसे पूछ रही थी कि इस घर में कोई है उसके खेलने लायक। उन्होंने
जिया को आवाज़ दी।
“मॉम आई हैव ए प्ले डेट....कैन आई?”
मां की सहमति मिलते
ही बाहर भागी जिया। संजू ने टोका विभा को...कम से कम फ्लैट का नंबर तो पूछ आओ जहां
गई है। आगे बढ़कर वो खुद ही कोशिश करती हैं देखने की....लेकिन बच्चे लिफ्ट में घुस
गए हैं। दो मिनट बाद जिया का फोन आता है इंटरकॉम पर अपनी नई सहेली के घर का नंबर
बताने के लिए।
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घर में हलचल है आज
बहुत। मुन्ना फोटोग्राफर बुला लाया है। अभी सब साथ हैं फिर जाने किसी मौके पर
मिलना हो सबका। पूरे परिवार के हंसते-खेलते पोर्ट्रेट अच्छे लगेंगे बाद की यादों
के लिए। बबली कल चली जाएगी और अगले हफ्ते जूही और मुन्ना। संजू का टिकट दस दिन बाद
का है....विभा यहीं रहेगी बच्चों की छुट्टियां खत्म होने तक। फिर उसके जाने के पहले
जूही वापस लौट आएगी अकेली ही, नवम्बर तक के लिए। फिर दिसम्बर में मुन्ना। वो क्रम
याद रखने की कोशिश कर रही हैं। कोई ना कोई रहेगा यहां मम्मी के साथ जब तक ज़रूरत है।
बीच में कुछ हुआ तो बबली तो है ही...दिल्ली आने में ज्यादा वक्त थोड़े ही लगता है।
जिया सबसे ज्यादा
चहक रही है। दादू के कमरे में बलून लगा दिए गए हैं। दादू को चियर-अप करने के लिए
शाश्वत ने उन्हें शिकागो बुल्स की कैप भी पहना दी है फोटोग्राफी के पहले। सबके साथ
वाले कुछ फोटो इनके कमरे में, बाकी लिविंग रूम में, बाल्कनी में। सबकी पेयर फोटो,
बहन-भाईयों की साथ में, कज़न्स की, बेटी-बहुओं के साथ मां की। शाम तक चलता रहा
सब...फिर बबली को शॉपिंग जाना था भाभियों के साथ एंबिएंस मॉल। कमरे में लौटीं तो
ख्याल आया आज दोपहर बाद की दवा तो रह ही गई इनकी।
जाने से पहले मुन्ना
उनका पासपोर्ट मांग रहा है। रिनुअल ज़रूरी है, फिर लॉंग टर्म वीज़ा के ऑप्शन्स भी
देखने हैं...यहां का सब निबट जाए फिर मां को साथ लेकर जाना होगा। ये सब बातें अब
सहजता से की जाने लगी हैं। उस एक दिन के बाद की सारी तैयारियां मुकम्मल हो रही हैं
धीरे-धीरे। बस उस एक दिन की बात कोई नहीं करना चाहता। बस उस एक दिन का डर एक क्षण
भी नहीं जाता उनके दिल से।
सबके जाते ही विभा अनमनी हो गई है थोड़ी। मेहमानों का आना-जाना अब लगभग बंद
है। मरीज़ के लिए दिन भर का एक अटेंडेंट पहले ही लगा दिया था। दवाईयों का
टाईम-टेबल उन्होंने याद कर लिया है। विभा किचन और बच्चों में व्यस्त रहना चाहती है
दिन भर। बीच-बीच में बच्चों को लेकर बाहर निकल जाती है आउटिंग पर। फिर फोन,
लैपटॉप, चैटिंग। पिता के जाते ही शाश्वत चिड़-चिड़ करने लगा है ज्यादा। जिया की बस
सहेलियां कई बनती जा रही हैं दिन पर दिन।
जाने की तैयारियां
हफ्ते भर पहले से शुरु कर दी है विभा ने। जूही का फोन आया है उसे...अगल-बगल से बात
कर क्या एक नैनी मिल सकती है प्रणय के लिए। इतनी सारी रिस्पॉन्सबिलीटीज के बीच दो
साल के बच्चे को अकेले संभालने में उसे बड़ी प्रॉब्लम आएगी।
जाने के पहले जिया बड़ा सा ग्लोब रख गई थी दादी के लिए...शहरों के उपर सबकी
फोटे काट कर भी चिपका गई। दरभंगा में दादू की, न्यूयॉर्क में पापा की, सैन
फ्रैंसिस्को में चाचू की और कोच्चि में बुआ की। उंगलियों को एक के बाद एक रखकर दूरियां
नापने की कोशिश करती हैं वो। लेकिन अक्सर गिनती बीच में ही गड़बड़ा जाती है। जूही
प्रणय को लेकर डॉक्टर के पास गई है। बाल्कनी से शाम की उदासी के साथ कोहरे की
हल्की सी चादर भी अंदर चली आई है। वो कैलेंडर पर नज़रें जमा देती हैं...मुन्ना के
आने में अभी एक हफ्ता और है।
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नौ महीनों में इस घर में हर जगह से हर जगह के लिए क़दमों की गिनती रट गई है
उन्हें। सर्दी जाने क्यों देर से आई इस बार और जाने का नाम ही नहीं ले रही। नीरसता
की थकान तिर आई है उनके चेहरे की हर झुर्री पर जैसे। ना इस घर का अजनबीपन दूर होता
है ना इस शहर का। दिन, हफ्ते, महीने बस निकले जा रहे हैं उनकी इस हालत से बेपरवाह।
दरवाज़े पर घंटो खड़े रहकर भी बस चेहरों से पहचान हो पाई है। नामों के साथ उनको
जोड़ पाना अभी भी मुश्किल है, बाई, दूधवाले और अटेंडेंट के अलावा। इनका
चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा है दिन पर दिन। बीमारी से ज्यादा मिज़ाज संभालने में
टूटने लगी हैं वो। बस अपने घर जाने की ज़िद। किशोर के पापा को फोन लगाने को बोलते
हैं....फिर बात होते ही रोने लगते हैं। किशोर की मां आश्वासन देती हैं...अगले
महीने किशोर आएगा दिल्ली..तो उसके पापा को भेजने की कोशिश करेंगी, हो सका तो साथ
में ख़ुद भी आ जाएंगी। टिकट होने पर वो बता देंगी पक्की तारीख़..यहां से अगर कुछ
मंगाना हो तो।
मुन्ना जाने से पहले की ज़रूरी चीज़े निबटा रहा है जल्दी-जल्दी। सारे ज़रूरी
नंबर फिर से लिख कर पापा के दरवाज़े पर चिपका दिया है। फोन के फास्ट डायल पर भी
वही नंबर डाल कर उसे समझा रहा है, जो जूही वैसे भी अपने जाने के पहले कर गई थी। संजू
का फोन आया है..उसका प्रोजेक्ट ख़त्म होने में हफ्ता- दस दिन अभी और लगेंगे।
मुन्ना अगर उतने दिन अपना स्टे और बढ़ा पाता तो....मुन्ना झल्ला गया है थोड़ा।
उसने बैंगलोर की फ्लाईट बुक करा रखी है। हाउसिंग में वहां इन्वेस्टमेंट के बड़े
अच्छे ऑप्शन्स है...जाने से पहले एक बार एक्सप्लोर करना चाहता था। फिर वहीं से
वापसी का टिकट है। बहन को फोन मिलाकर पूछा उसने। फरवरी का आखिरी हफ्ता है..बच्चों
के फाइनल्स चल रहे हैं..जीजाजी अभी भी शिप पर ही हैं। अगर हफ्ता और रुक सकता
तो.....वो मां को सामने खड़ा है परेशान सा।
अब फैसला लेने की ज़िम्मेदारी उन्हें ही उठानी पड़ेगी। काम वाली माला से बात
हो गई है...तब तक रात को रुक जाया करेगी वो...तीन सौ रुपए रात फी पर। जाते-जाते
मुन्ना बड़ी देर तक हाथ पकड़ कर बैठा रहा..फिर लिपट गया मां से.....जाने कितने बरस
बाद।
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जाती हुई ठंढ भी जैसे छोटे बच्चे की तरह लिपट गई है आंचल से। बादल उमड़-उमड़
रहे हैं दिन भर। आंखे भी जाने क्यूं आज बरसने-बरसने को हो रही हैं। तीन दिन से ना
संजू का फोन आया है ना बबली का। मुन्ना ने फोन किया बस बंगलौर से...फ्लाईट बोर्ड
करने के पहले। रात की दवाई देकर अटेंडेंट चला गया। माला अभी आती ही
होगी.....बारहवें माले पर खाना बनाने के बाद।
फागुन की बारिश पहले कहां हड्डियों को ऐसे कंपाने वाली होती थी। शॉल कस कर
लपेट वो खिड़की दरवाज़े चेक करने गई। घर के एक चक्कर में पैर थकने लगे हैं अब।
बड़ी बाल्कनी का दरवाज़ा खुला रह गया है..बाहर तौलिया भी लटका रह गया है। उठाने के
क्रम में फोन गिर गया हाथ से। फिर दरवाज़ा ऐसे अटक गया बड़ी मेहनत से बंद हो पाया।
बेडरुम से अजीब सी आवाज़ आ रही है। अभी-अभी तो सो रहे थे...देखकर तो आई थीं।
वहां पहुंचने से पहले ही हाथ पसीने से तर हो गए। दोनों हाथों से छाती पकड़े
गों-गों सी आवाज़ निकाल रहे हैं। आंखें पथरा रही हैं धीरे-धीरे। उनके पास पहुंचकर ज़ोर-ज़ोर
से छाती सहलाती हैं...फिर लगभग चिल्ला पड़ती हैं...क्या ज़्यादा दर्द हो रहा है? बस एक मिनट रुक जाईए
मैं....फोन हाथ में उठाया.... धुंधली आंखों के सामने सारे नंबर गड्ड-मड्ड हो गए
हैं जैसे। अस्पताल के इमरजेंसी नंबर पर कॉल नहीं गई। इंटरकॉम की ओर भागीं...बारहवें
माले पर कौन सा नंबर बताया था माला ने?
बाहर शायद किसी के क़दमों की आहट सुनाई दे रही
है..फोन छोड़ वो बाहर दौड़ीं। आहटें शायद लिफ्ट में घुस कर बंद हो गई। उनके गले से
आवाज़ ही नहीं निकल रही। सामने वाले फ्लैट की ओर दौड़ी....नौकर ने दरवाज़ा
खोला...वो आश्चर्य से देख रहा है उनकी ओर...जापानी साहब रहते हैं यहां तो..आए नहीं
हैं वापस अभी तक।
माला आ गई है घर....उनका फोन हाथ में लिए बदहवास सी आवाज़ दे रही है। लेकिन
वापसी के क़दमों में जैसे ज़जीरें पड़ गई है। दरवाज़े के अंदर पैर नहीं बढ़ रहे।
अंदर कमरे से गों-गों की आवाज़ आनी भी बंद हो गई है। बस लॉबी की अभेद शांति
हाहाकार कर रही है उनके चारों ओर।
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ReplyDeletevery nice story!
ReplyDeleteअब इसपर क्या कमेंट करें!!
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