कुछ यादें अंतर्मन की तलहटी में जाकर बैठ जाती
हैं और हमेशा के लिए जम जाती हैं वहां। जब भी मन ने हिलोरें लीं उछल कर आ गईं
नज़रों के सामने। पता नहीं कितने साल बीत गए...शायद बीस बाईस या उससे भी ज्यादा।
बारहवीं की परीक्षा देकर मैं रिजल्ट निकलने का इंतजार कर रही थीं। नानी कई हफ्तों
से हमारे घर में ही थीं। ज़िंदगी के आखिरी कुछ दिन अपनी सबसे लाडली संतान, मां, के
साथ बिताने के लिए अपने बेटे बहुओं की नाराज़गी झेल कर भी आ गईं थी पापा के एक
आग्रह पर। और तब से मां की सारी दुनिया नानी के बिस्तर, उनकी दवाईयों और उनकी पसंद
की एक-एक चीज़ बनाने के इर्द गिर्द सिमट गई थी। मेरी परीक्षा कब शुरु हुई कब खत्म
हो गई उन्हें शायद पता भी नहीं चला। परीक्षा खत्म होते ही मेरा भी सारा वक्त उन
दोनों के साथ गुज़रने लगा था। मां तो वैसे भी मेरे लिए चुंबक जैसी थीं, मेरे
अस्तित्व का केन्द्र। उनकी आवाज़ के बगैर मेरी सुबह नहीं होती, उन्हें बगल में
बिठाए बिना मेरे हलक से कौर नहीं उतरता। मां ने कभी कान भी खींचे या थप्पड़ भी
मारा तो भी मां-मां करके ही रोती। तुम दोनों मां-बेटी पिछले जन्म में या तो कंगारू
या फिर बंदरिया रहे होगे...पापा का फेवरेट डायलॉग था ये। और वही मां अब बंट रही थी मुझसे...अपनी
मां के लिए। रिज़ल्ट और कॉलेज एडमिशन की चिंता नहीं होतीं तो कई बार ठुनक भी चुकी
होती मैं मां के सामने इस बात की शिकायत लेकर।
उस दिन मैं नानी के लिए हॉर्लिक्स बना कर ला रही
थी, देखा मां नंगे फर्श पर नानी के पैरों के पास उनके दोनों हाथों को पकड़कर बैठी
हुई है। नानी धीरे-धीरे कुछ बोल रही थी..आखिरी कुछ शब्द ही मेरे कानों तक आए। ‘जाने का मन नहीं करता अब भी....मरने के नाम से बहुत डर लगता है
मन्नू’
डबडबाई आंखों से नानी को देखते हुए मां अपनी
रुलाई रोकने की कोशिश कर रही थी। अचानक लगा मेरी धड़कनें ठिठक गईं, हाथ पैर जम गए।
मां की मां हैं वो, दिल के वैसे ही करीब, वैसी
ही बंधी हुई उनसे, जैसी मेरी मां है मुझसे, और वो जा रही हैं... अपनी लाडली बेटी को हमेशा ले लिए छोड़कर, फिर
कभी वापस नहीं आने के लिए। सत्तर साल की हैं तो क्या, दिल और दमे की मरीज़ हैं तो
भी क्या, हैं तो मां की मां ही ना। कभी मेरे साथ भी ऐसा ही होगा, मेरी मां भी
बूढ़ी और बीमार होकर मुझसे ऐसे ही दूर चली जाएगी। हमेशा-हमेशा के लिए। और मेरी
दुनिया में कुछ नहीं बचेगा..कुछ भी नहीं, ना मां ही हंसी, ना मां के देह की गंध,
ना उनके चूड़ियों से खनकते हाथों का स्पर्श।
किसी तरह संभलते-संभलते मैंने साईड टेबल पर
ग्लास रखा और अपने कमरे में आकर बिस्तर पर गिर गई। अजीब सी दहशत हो रही थी। नानी
के अंतिम दिनों को इस नज़रिए से तो कभी देखा ही नहीं था। खुद को समझाने की बहुत
कोशिश की उसने, बयालीस साल की हैं मां, आधी से ज्यादा ज़िंदगी पड़ी है उनके साथ
गुज़ारने के लिए, अभी से क्यों फिक्र करना। फिर दिल का दूसरा कोना दूसरी दलील
देता..समय के गुजरने का पता कहां चलता है... मां भी तो कहती है कि मेरा जन्म, मेरा
पहली बार उन्हें मां कहना ये सब उन्हें कल की ही बात लगती है और मैं यहां १८ साल
की होने वाली हूं। और धड़कनें मेरी फिर से जमने लग जातीं। महीने भर तक ठीक से खा
भी नहीं पाई थी। घर में सबको लगा कि
रिज़ल्ट की टेंशन है। लेकिन मां से हमेशा के लिए बिछड़ने के डर ने हफ्तों तक मेरे
चेहरे की मुस्कान छीन ली थी।
उसके बाद तो जैसे ये डर कुंडली मार कर बैठ गया मेरे
भीतर। मां को सर दर्द हुआ या पैरों में मोच आई अंतर्मन में वही तस्वीर कौंध जाती।
नंगे फर्श पर मां के पैरों के पास बैठी वो उनके दोनों हाथों को थाम कर आंसू रोकने
की भरसक कोशिश कर रही है और मां कह रहीं हैं,
“मरने के
नाम से बहुत लगता है नेहू।“
जाने कितनी बार सर झटक कर, ग्लास भर ठंड़ा पानी
गटक कर उस ख्याल को..उस तस्वीर को अपने आप से अलग करने की कोशिश की है। जाने कितनी
बार, कितने भगवानों से प्रार्थना की है..काश मेरे साथ ऐसा कभी ना हो..काश मां और
मैं, नानी और मां की तरह एक दूसरे से वो शब्द कभी ना कहें। काश!!!!
हां उस बार नानी खुशी-खुशी विदा हुई थीं हमारे घर से। मेरा रिजल्ट
निकलने के बाद पापा, मां और मैं खुद उन्हें पहुंचा कर आए थे बड़े मामा के घर।
“मन्नू के
साथ रह आती हैं तो अम्मा के चेहरे की रंगत ही बदल जाती है..” हाथ पकड़कर नानी को गाड़ी से उतारते हुए बड़ी
मामी ने लाड़ से कहा था। दो दिन सबके साथ रहकर पापा और मां के साथ मैं दिल्ली आ गई
थी..कॉलेज में एडमिशन के लिए। दोनों भैया पहले ही किराए का फ्लैट लेकर वहां रह रहे
थे, मेरे एडमिशन के बाद तो मां का भी आधा से ज्यादा वक्त वहीं बीता। और नानी शायद
तीन-चार साल और रहीं थीं उसके बाद। हां, मैं मुंबई में थी, एमबीए सेकेंड सेमेस्टर
में, जब पापा का फोन आया था..और मैं फूट-फूटकर रोई थी, नानी के लिए नहीं मां के
लिए। और वो दिन..वो तस्वीर फिर कई दिनों तक छाए रहे दिमाग में और एक बार भी खाना
नहीं खाया गया था ठीक से मुझसे।
……xxxxx……
साईड टेबल पर कुछ रखने की आवाज़ से आंखें
खुलीं...मनीष थे उसकी ओर पीठ किए हुए, कागज़ के बंडल में नज़रे गड़ाए, दूसरे हाथ
में कॉफी का मग था।
“तुम कब
आए”, उसने हौले से पूछा
“अरे,
सॉरी तुम्हारी नींद खराब कर दी मैंने। मैं बस ये मेडिकल बिल्स निकाल रहा था” तु.....तुम्हारे कहते-कहते रुक गए मनीष। फिर
हड़बड़ाकर उठने लगे, “एचआर मैनेजर को बोला था
ऑफिस जाते वक्त लेता जाए..गेट पर इंतज़ार कर रहा है।“
लौट कर फिर आओगे मेरे पास? वो पूछना चाहती थी, पर आवाज़ अटक गई जैसे हलक
में।
कमरे में अभी भी नाईट लाईट जल रही थी। हालांकि
एसी के बगल के वेंटिलेटर से धूप भर-भर कर आ रही थी। पता नहीं कितने बजे हैं, नौ या
दस, पता नहीं कौन सा दिन है सोमवार या शुक्रवार। उठकर बैठना चाहती थी स्नेहा,
तकिया बिस्तर के हेड बोर्ड से टिकाकर उपर की ओर भी किया फिर तकिए के दूसरे छोर से
सिर टिकाकर सो रही।
किसी ने हाथ सहलाया
“दे आए
पेपर्स”..उसने पूछना चाहा बंद
आंखों से।
लेकिन चूड़ियों की आवाज़ ने बरबस आँखें खोल दीं।
मां थी....नाश्ते की ट्रे लिए
“थोड़ा
जूस ले लो नेहू”...मां अब भी उसका हाथ सहला
रही थी....
ऊपर उठते हुए उसने मां के हाथ देखे...नेलपॉलिश
सामने से उखड़ रही थी और बाकी तीन तरफ नाखूनों से बाहर निकल रही थी। खूब सारा
प्यार गले में बलगम जैसा बनकर अटक गया। नेलपॉलिश लगाना कभी नहीं आया मां को। नाखून
हैं भी छोटे-छोटे गोल से...उसपर हमेशा कपड़े लत्ते पहनकर पूरी तरह तैयार होने के
बाद याद आती है नेलपॉलिश की..फिर जल्दी-जल्दी में नाखून और उसके चारों ओर नेलपेंट
पोत लेती है मां।
“क्या हुआ
बेटु...बदन दर्द हो रहा है?” मां की
हाथ उसके बाजुओँ तक बढ़ आए और उनके हाथों की हरी-नीली चूड़ियां खिसककर उनके बाजुओं
तक चली गईं।
“तुम खाना
नहीं खाती क्या मां”...कितनी दुबली हो गई हो..
मां के होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट आई। उदास
आंखें और मुस्कुराते होंठ....मां अब हमेशा बस ऐसे ही रहती है स्नेहा के सामने।
“तुम
जल्दी ठीक हो जाओगी तभी तो मुझे खिला-पिलाकर मुटाओगी मेरी गौरैया” ..मां ने चिबुक उठाते हुए लाड़ से कहा। स्नेहा
को लगा अब नहीं रोका जाएगा उससे।
एकदम अस्त-व्यस्त होकर कहने लगी.
“पर्दा
थोड़ा हटा दोगी मां..धूप अंदर आ जाएगी। तब तक मैं जूस पी लूंगी खुद से।“
मां एकदम से आज्ञाकारी बच्चे की तरह मुड़ कर उठ
गई तो स्नेहा ने बाल पीछे करने के बहाने खुद को भी समेट लिया। पर्दा हटाने के बाद
भी उसने मां को अपने पास बैठने नहीं दिया।
“मनीष लौट
आए क्या गेट से?”
“कब का
बेटा..स्टडी में काम कर रहे हैं..इधर पूरे हफ्ते ऑफिस कहां गए..घर से ही”, मां जल्दी-जल्दी बोलती जा रही थी..जाने कुछ बता
रही थी खुद या समझा रही थी।
“नेहू..”
“हां..”
“क्या हआ
बेटू..जूस तो खत्म करो”
“हां..तुम
जाओ मैं पी लूंगी पक्का..और दलिया भी खा लूंगी।“
मां हंस पड़ी..बस होठों की हंसी जो आँखों तक कभी
नहीं पहुंचती।
“आज टोस्ट
हैं..ट्रे तो देख लो। मैं बैठ कर खिला दूं..आज अपने हाथ से”, मां ने याचना भरे स्वर में कहा।
“एक कप चाय मिलेगी मां? अदरक वाली..तुम्हारे हाथ की?”
“लाती
हूं..मनीष को नाश्ता दे दूं फिर”....मां
एकदम से निकल गई कमरे से।
अब बहुत देर तक नहीं आएगी मां उसके सामने..जानती
थी स्नेहा। नाश्ते की ट्रे भी सविता ले जाएगी।
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“ट्यूमर....कोलोरेक्टल
और यूटरीन दोनों है..दो परसेंट चांस हैं बेनाईन हो..बट गोईंग बाई माई
अंडरस्टैंडिंग आई डाउट। लेट्स कीप आवर फिंगर्स क्रॉस्ड फॉर बोयोप्सी रिपोर्ट एंड
प्रे टू गॉड कि क्योरेबल हो अभी भी। पढ़े-लिखे हो आपलोग..हाउ कुड यू इग्नोर इट फॉर
दिस लॉंग आई फेल टू अंडरस्टैंड।“
डॉ भल्ला उत्तेजना में इतनी ज़ोर से बोल गए कि
शायद उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि हरे पर्दे के पीछे मैं अभी भी लेटी हूं हरी
धारियों वाली सफेद चादर पर। एकदम सुन्न.. जैसे ये किसी और की बात हो..जैसे ये किसी
और का भयावह सपना हो..जैसे ये शरीर भी किसी और का हो..मैं भी मैं नहीं कोई और होऊं। मैं कैसे हूं यहां पर? क्यों हूं? जबकि इस
वक्त तो मुझे बाली के लिए अपनी फ्लाईट में होना चाहिए था.....दो महीने से जिस कन्वेंशन
की तैयारी में दिन रात एक कर दिया था उसने उसे पूरी तरह सक्सेसफुल करने के लिए। कंपनी
की गेस्ट लिस्ट के पुलिंदे को बार-बार पढ़ते हुए। अलग-अलग सेशन्स में कौन किस टेबल
पर होगा ये सुनिश्चित करते हुए।
लेकिन प्रेप मीटिंग के दौरान ही एकदम से हेवी
ब्लीडिंग....याद भी नहीं कि यहां तक लेकर कौन आया, वॉश रूम से कॉन्फ्रेंस रुम तक oखुद आई या वहीं पड़ी मिली किसी को।
उन दोनों की बातें धीमी होते होते कमरे के बाहर
चली गई और मुझे वापस वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। मनीष से पूरी बात पूछ पाने का वक्त
फिर कभी नहीं आया। दो दिन बाद मां और पापा आ गए और उसके अगले दिन मम्मी और पापाजी।
फिर सारे सवाल उसके अधर में ही लटके रह गए। लेकिन नसों से निचुड़ती खून की हर एक
बूंद, हर टेस्ट रिपोर्ट, शरीर की हर ऐंठन, मिलने आने वाला हर नया चेहरा, उसी अधर
से रिस-रिसकर, हर सवाल का जवाब देता गया..मनीष के बिना बताए ही।
उसे देखते हुए मनीष का चेहरा हफ्तों तक निर्वेग,
निस्पंद रहता और अपराधबोध से भर जाती स्नेहा। क्या गलती मनीष की...उसी ने कहां कभी
शिकायत की मनीष से और खुद उसे ही कहां पता था कि बयालीस की उम्र और हर मोर्चे पर
ज़िंदगी से जंग के बीच मामूली सी लगने वाली ये परेशानियां इतनी बड़ी साज़िश बुन
रही हैं उसके खिलाफ।
पहली बार जब हेवी ब्लीडिंग हुई उस वक्त सब
पापाजी के प्रोस्टेट ऑपरेशन की भागमभाग में थे। फिर तुरंत ही चार महीने के लिए
मुंबई जाना पड़ा मनीष को नए ब्रांच ऑफिस के सेटअप के लिए। फिर स्निग्धा के बोर्ड्स
के साथ सौम्य का फ्रैक्चर। ठीक उसी समय रोज़ फ्रेश होने में भी तकलीफ सी लगने लगी
उसे। लगा खाने में लापरवाही की वजह से कॉन्सटीपेशन हो रहा होगा शायद गर्म दूध
फायदा करे रात को। और लापरवाही कहां थी...सोचा तो था बाली से आकर सीधे मिलेगी
डॉक्टर सेत्या से।
तभी से हफ्ते और महीने फिसलते गए हाथों
से....बिना गिनती के। स्निग्धा का ट्वेल्थ बोर्ड भी हो गया बिना उसकी मां के
रात-रात भर जगे उसके साथ। इस साल सौम्य भी टेंथ में है..कई-कई दिन मिल नहीं पाती
उससे। बुआ के घर ही रहता है ज्यादातर....पढ़ाई, ट्यूशन सब वहीं से। स्निग्धा नॉर्थ
कैंपस में ही शिफ्ट हो गई है, कॉलेज हॉस्टल में। हर इतवार आती है घर......थोड़ी
देर पर एकटक देखती रहती है उसे, “कुछ
चाहिए आपको ममा..ला दूं?”
“नहीं
बेटा तुम जाकर आराम करो।“ फिर
अगली सुबह अक्सर उसके उठने के पहले ही निकल चुकी होती है कॉलेज के लिए।
बस एक मां है हमेशा....परछाई की तरह उसके पीछे।
उसके बाल बनाती, उसके कपड़े बदलती, मनुहार कर उसे खिलाती, उसके लिए पल्स ऑक्सीमीटर
और ब्लड प्रेशर की मशीनों से जूझती।
मम्मी यानि सास कम ही आतीं.....अपनी बहू को ऐसी
हालत में देख पाना उन्हें बर्दाश्त कैसे होता।
ये सोचकर तकलीफ होती है स्नेहा को, गुस्सा भी
बहुत आता है। अगर खुद की बेटी होती उनकी तो कह पातीं इतना सब इतनी आसानी से?
लेकिन उनकी खुद की बेटी से नाराज़ नहीं रह पाती
स्नेहा।
पहली बार उसके एडमिट होने के दो महीने के अंदर
मनीष की दीदी फोर्थ फ्लोर वाले अपने फ्लैट में शिफ्ट हो गई थीं गवर्नमेंट क्वार्टर
छोड़ कर। तब से मां और मनीष के हाथों में ना सकने वाली सभी छोटी बड़ी सभी ज़िम्मेदारियां
चुपचाप चुनती, समेटतीं, पूरा कर रहीं हैं दीदी..बिना एहसान जताए।
होम्योपैथी वाले उन बुज़ुर्ग डॉक्टर को भी वहीं
लेती आई थीं..जीजाजी के किसी दोस्त के रेफरेंस पर।
हर दूसरी हफ्ते आकर खुद के बनाए कई कॉम्बीनेशन
दे जाते हैं बनाकर।
“काश मैं
आपको ठीक कर पाता पूरी तरह बेटा..लेकिन आपकी तकलीफ कम करने की कोशिश कर रहा हूं
जितना मेरे बस में है।“ मितभाषी वो डॉक्टर हर बार
उसकी नब्ज़ टटोलते हुए ये ही कह जाते।
पता नहीं उन्हीं दवाईयों का असर था या
क्या.....बाल अभी भी लटक रहे थे गुच्छों में गर्दन तक। दीदी को जब कभी वक्त मिलता
ढेर सारे पिन्स लगाकर बन बना देती जो लेटते ही चुभने लगते थे उसे और जिन्हें दीदी
के जाते ही एक-एक कर निकालना पड़ता था मां को।
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यूं अकेले में धड़कनें अपना रोल कॉल खुद से करने
जैसी लगती हैं। एक, दो, तीन, चार...मां, मनीष, स्निग्धा, सौम्य। पता नहीं कौन सी आखिरी
हो....पता नहीं उनपर किनका नाम हो..पता नहीं कौन हो साथ में उन्हें गिनने। कितना
वक्त हो गया..मनीष की धड़कनें गिने, उनका हाथ पकड़कर यूं ही बैठे हुए..बिना कोई
सवाल किए, बिना कोई जवाब दिए। नज़रें घुमाकर देखा उसने..कोई नहीं अगल-बगल। रात को
पता नहीं कौन सोता है साथ...मां या मनीष। सुबह हमेशा तकिया खाली ही रहता बगल वाला।
स्निग्धा को गए कितना वक्त हो गया..क्या नहीं आई थी पिछले रविवार, कितना वक्त बचा
है आने वाले वीकएंड में। सौम्य को भी पता नहीं कब से नहीं देखा। बच्चे जब भी सामने
होते हैं उनके चेहरों में जाने क्या ढूंढने की कोशिश करती है स्नेहा। समय से पहले
आ गई चिंता की लकीरों को या पीछे छूट गए उनके बचपन की निश्छलता को।
कभी-कभी मन करता है सबको साथ ले चले साथ, अपना
कुछ भी, किसी को भी पीछे ना छोड़े। कोई ना बचे उसे याद करने वाला पीछे ना रोने
वाला उसके लिए....सब हाथ पकड़ कर लांघें मरणपार के देश की दहलीज़। उसे अपनी
धड़कनें फिर से जमती सी लगीं। सर उठाकर बैठना चाहती है...हर पोर में जैसे असह्य
पीड़ा हो रही है।
मां..मां..मनीष अपनी पूरी ताकत से चिल्लाना
चाहती है वो पता नहीं बंद दरवाज़े के पार कितनी आवाज़ गई.....हाथ लगने से स्टील का
ग्लास गिरा फर्श पर और झटके से मनीष घुसे कमरे में।
“क्या हो
गया नेह..मां बाथरूम में है और मैं कॉल में था। क्या हो गया..दर्द हो रहा है ज्यादा..डॉक्टर
गुप्ता को फोन करूं....”
जाने कितने समय बाद मनीष की गर्माहट को इतने
करीब से महसूस किया है उसने। अब तक बंद पड़े सारे सवाल बरसाती मेघों से फूट पड़ना
चाहते हैं।
“बताओ
मनीष नाराज़ हो क्या मेरे इस तरह तुम्हें मंझधार में छोड़ कर जाने से? क्यों नहीं बताते क्या है मेरी लेटेस्ट रिपोर्ट्स
में? कितने दिन, कितने घंटे? मैं नहीं रहूंगी तो कैसे सहेजोगे मेरी गृहस्थी,
मेरी याद के सहारे या किसी और का दामन थाम? मेरे
बच्चे कैसे याद रखेंगे अपनी मां को, और मेरी मां? उन्हें
कैसे संभालोगे या कि भूल जाओगे उन्हें मेरे बाद....बताओ..बोलो
ना मनीष।“
लेकिन कुछ नहीं निकला। बस एक सवाल सुना सबने...
“कोई नहीं
था यहां मुझे कुछ हो जाता तो अकेले में…”
“यहीं थे
हम सब नेह....और कुछ नहीं होगा तुम्हें……ऐसे
अकेले में”…...फिर धीरे-धीरे से जोड़ा
मनीष नें।
निढाल होकर तकिए पर सिर टिका लिया है उसने। मनीष
हौले-हौले सिर सहला रहे हैं...और मां एकटक देख रही है उसे चौखट पर खड़ी।
मुस्कुराहट इस बार होठों से भी गायब है उनके।
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हैरान सी उस नींद ने फिर पत्थर मारा यादों के
ठहरे पानी में।
बड़े भैया की शादी है शायद। हमारे घर की पहली
शादी। सैकड़ों बधाईयों और हज़ारों कामों से जूझती मां, भैया की ससुराल से आई शगुन
की थाली समेटे पूजाघर में आई, हल्दी और चंदन के लेप से उन्हें पहला टीका करने।
“काश दीदी
भी देख पाती ये सब तो कितनी खुश होती”....नानी
की छोटी बहन थी शायद ये।
भैया के माथे तक पहुंचे मां के हाथ रुके हैं एक
क्षण को या केवल मुझे ही लगा ऐसा....फिर हौले से टीका लगा थाली मामी को बढाते हुए
बोली
“सो तो है
मौसी लेकिन कोई भी सबकुछ कहां देख पाता है....ये तो देखो मां ने अपने सारे काम
पूरे किए कैसे हुलस से...कितनी भरी-पूरी गृहस्थी छोड़ गई अपने पीछे.....तुम भी तो
नानी हो इसकी, चलो अब जल्दी टीका लगा दो.....मेहमानों को खाना भी खिलाना है।“
नींद में मनीष का हाथ पकड़ लिया है उसने। पलकों पर मां का चेहरा तिर आया है, उसे जैसे पोंछते हुए, बंद
आखों की वर्जना को अनदेखा कर आंसू ढुलक पड़े हैं दोनों ओर।
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