बिल्लियों
के झगड़ने की आवाज़ से नींद खुली तो मनोज को कुछ मिनट लगे ये समझने कि अभी सुबह ठीक से हुई भी नहीं है। चौकी से नीचे उतरने की कोशिश की तो ध्यान आया
कि वो तो छत पर गद्दा बिछा कर सोया है। रात उमस इतनी बढ़ गई थी कि कमरे में दो
घड़ी भी बिता पाना मुश्किल हो गया था। वरना कुल डेढ़ महीने पुरानी बीवी को अकेला
छोड़ने की गलती कोई सरफिरा ही कर सकता था। सविता का ख्याल आते ही वो बिजली की
तेज़ी से उठा। साढ़े पांच से ज्यादा नहीं बजे होंगे, मुकेश सात बजे के पहले ड्यूटी
से वापस नहीं आएगा। उसे भी तैयार होकर ड्यूटी पर जाने में घंटे से ज्यादा नहीं
लगेगा। जबसे सविता आई है, खाना बनाने का घंटा तो वैसे ही बच जाता है, और गर्मियों
की छुट्टी का इतना फायदा तो है कि साहब के बच्चों को स्कूल पहुंचाने के लिए सुबह
आठ बजे ड्यूटी पर नहीं पहुंचना पड़ता। अभी अगर नीचे चला गया तो घंटे डेढ़ घंटे तो.....पत्नी
का ख्याल आते ही उसके शरीर में झुरझुरी सी हो आई, या शायद सुबह के पहले ठंडे झोंके
की वजह से हुआ हो...
दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था, चौखट और पल्ले के
बीच की दरार से उसे पीली साड़ी की झलक दिखाई दी तो समझ गया, सविता आज फिर पांच
बजते ही नहा धोकर बैठ गई होगी। मां ने दिल्ली आते वक्त चार ही साड़ियां दी थीं
उसे, दो रोज की और दो कहीं बाहर जाने की। कल उसने बैंगनी वाली पहनी थी तो आज पीली
का नंबर...
‘तुम क्या
रात भर ऐसे ही बैठी रही?’ सावधानी से चिटखनी चढ़ाते हुए उसने बात शुरु
करने की कोशिश की।
‘नहीं
नहाकर बस अभी-अभी’....आदतन सविता ने अपनी
लाइन अधूरी की छोड़ दी और दाएं हाथ से बाएं हाथ की चूड़ियां गिनने लगी।
आठ... गिनती पूरी होने के पहले ही मनोज ने मन
में सोचा...अगर आज नहाते समय और नहीं टूटी हों तो।
इत्ते दिन हो गए लेकिन पत्नी की इस चुप्पी का
अर्थ नहीं लगा पाया मनोज। यहां तो दूर-दूर तक उसका कोई रिश्तेदार भी नहीं था बल्कि
सविता की ही मौसेरी बहन रहती थी पास में। मुकेश भी बस नहाने खाने को ही कमरे पर
आता था। कहीं किसी ने उसे ये तो नहीं बताया दिया कि उसे जो बालियां शादी में चढ़ाई
गई थी वो दरअसल चांदी पर सोने का पानी....इस बात पर दिन भर चली चख-चख के बाद मां
ने उसे भरोसा तो दिलाया था कि मुकेश के तिलक का पैसा आते ही वो सोने की वैसी ही
बनवा देगी और सविता को पता भी नहीं चलेगा...पर कहीं भाभी ने तो भीड़-भाड़ के बीच
चुपके से बात सविता के कान में नहीं डाल दी थी? पता नहीं...सविता ने तो कभी भी इस बारे में कोई
जिक्र नहीं किया था। उसके खुद के मन में चोर था तभी तो दिन रात खटका होता रहता था।
नहीं ये बात नहीं थी, शायद इसलिए कि उसने मुंह
बजाउन की रस्म के लिए कुछ भी तोहफा नहीं दिया था। कोशिश तो बहुत की थी
उसने...मेमसाहब के साथ जाकर लाजपत नगर के बाजार से पूरे सात सौ की साड़ी भी खरीदी
थी, लाल और पीले रंग की, जरी के काम वाला। सोचा था अपने हाथों से देगा सविता
को...पर ऐन वक्त पर घर में ढ़ूंढ़ने से भी नहीं मिली वो साड़ी। हद तो तब हो गई जब
कमरे में पहुंचने पर उसने देखा कि सविता वही साड़ी पहने घूंघट किए बैठी है। अपनी
मां पर इतना गुस्सा उसे कभी नहीं आया था। सात साल से कमा-कमाकर इन्हें पैसे भेज
रहा है, पचपन हजार रुपए का तिलक भी मिला है उसे, फिर भी उसकी पत्नी को वो उन पैसों
से कुछ नहीं दे सकते थे...ज़रूरी है हर वक्त उसकी अटैची में जासूसी करती रहे मां।
अब सविता को कैसे पता चलेगा कि ये तोहफा वो खास अपनी पसंद से लाया था उसके लिए।
जो भी हो तब तोहफा नहीं ही दिया तो फिर पत्नी से
खुलकर बातें करने की उम्मीद कैसे कर सकता है वो...अपने इस तर्क पर उसे खुद ही हंसी
आ गई। सविता ने चौंक कर सिर उठाया और उसे यूं हंसता देखकर हल्के से मुस्कुरा दी।
सुबह की पहली किरणें कमरे की खिड़की पर हौले-हौले दस्तक दे रही थीं, ये समय ना तर्क
का था और ना ही कुछ फालतू सोचने का।
लेकिन तैयार होकर काम पर पहुंचने तक एक ही बात
चलती रही दिमाग में....कुछ ना कुछ तोहफा तो उसे जरूर देना चाहिए सविता को। फ्लैट
की घंटी बजाते ही सुबह का सारा सुरूर हवा हो गया। ‘मेमसाहब
ने कहा है जल्दी से गाड़ी निकालो, वो कब से तैयार बैठी हैं,’ उसे गाड़ी की चाभी देते हुए कामवाली सीता ने
बताया। गले की सीटी को थूक के साथ निगलता वो लगभग भागते हुए बेसमेंट में पहुंचा।
धत् तेरे
की.....सचमुच साढ़े दस बज गए थे..मेमसाहब ने दस बजे आने को कहा था। वैसे भी
इनलोगों का भरोसा तो है नहीं..कभी सुबह सात बजे आकर बारह-बारह बजे तक झक मारना
पड़ता था और कभी... पहले ये सब नहीं खलता था उसे, दिन भर भी गाड़ी ना निकालनी
पड़े तो वो ड्राईवरों वाले कमरे में पसरा रहता था, लेकिन जब से सविता आई है यहां
दस मिनट भी फालतू बैठना खलने लगा है....इतना ही वक्त तो लगता है उसे यहां से अपने
कमरे तक जाने में।
डी ब्लॉक के पोर्च में गाड़ी खड़ी करते ही देखा
कि आज मेमसाहब के साथ साहब भी इंतजार कर रहे हैं। वो पूरा दिन एक मॉल से दूसरे मॉल
और एक शोरूम से दूसरे शो रूम तक जाने में बीता। हर दुकान से खाली हाथ ही आते थे
वो। पता नहीं क्या खरीदना था इनको....पहले पता होता तो सविता को बता देता कि आज
खाना खाने घर नहीं आ पाएगा।
‘मनोज’...घर लौटते वक्त मेमसाहब ने पहली बार उससे बात
की....वैसे जब से शादी हुई मेमसाहब कुछ ज्यादा की दिलचस्पी दिखाने लगी हैं उसमें,
खोद-खोद कर उसके और परिवार वालों के बारे में पूछेंगी। एक बार तो सविता को घर लाने
को भी कहा था उन्होंने।
‘जी...मैडमजी’ ...साहब साथ में
हों तो वो हां ना से ज्यादा जवाब नहीं देता उन्हें।
‘नया
फ्रिज लेने की सोच रहे हैं...अपना पुराना फ्रिज निकालना है हमें...तुम अपने आदमी
हो इसलिए पहले तुम्हें ही पूछ रहे हैं..लेना हो तो बताना नहीं तो...’
वो कुछ जवाब देता इससे पहले साहब ने अंग्रेजी
में टोका मेमसाहब को...फिर तो घर पहुंचने तक दोनों की अंग्रेजी में चख-चख चलती
रही।
आजतक समझ में नहीं आया मनोज को कि ये लोग
अंग्रेजी में क्यों लड़ते हैं उसके सामने...मतलब नहीं समझ में आता तो क्या हुआ
इतना तो समझ ही जाता है कि लड़ाई हो रही है।
वैसे ध्यान लगाकर सुने तो ऐसा नहीं है कि मनोज
के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता।
जैसे आज की लड़ाई का मुद्दा ये था कि साहब को
यूं हर चीज़ मुफ्त में उठाकर नौकरों में बांटने से एतराज़ था।
तो मुफ्त में
कौन लेगा...पैसे से दे दें...हर महीने की तनख्वाह से कटवा लेगा वो...नहीं तो
ओवरटाईम नहीं लेगा कुछ महीने।
मनोज को
लगा मन की मुराद पूरी होना शायद इसी को कहते हैं। फ्रिज खरीदकर देगा वो अपनी नई
नवेली को। मई के महीने में इससे अच्छा और क्या हो सकता है। खुद अपने हाथों से
सविता उसमें बर्फ जमाएगी...शाम को उसे ठंढ़ा पानी निकाल कर देगी...रात का बचा खाना
भी उसीमें रख देगी जिससे सुबह-सुबह कम मेहनत लगे..और तो और अगल-बगल के कमरों में
उसकी साख बढ़ेगी सो अलग।
कुछ भी करके मेमसाहब को पटाना ही होगा इसके लिए।
बस तब तक किसी को खबर नहीं लगनी चाहिए इसकी। सविता के लिए तो खैर सरप्राईज ही होगा
ये....मुकेश को अगर भनक लग गई तो फ्रिज तो बाद में आएगा लेकिन गोड्डा ज़िले के
बसरा गांव में उसकी आग पहले पहुंच जाएगी।
अगले पांच दिनों तक वो मेमसाहब के बताए समय से
आधा घंटा पहले पहुंचता रहा, शाम को ड्यूटी पूरी होने पर भी वो तब तक चाभी वापस
देने नहीं गया जबतक मेमसाहब ने इंटरकॉम पर उसे जाने को नहीं कहा। फिर भी जब
मेमसाहब ने फ्रिज का नाम नहीं लिया तो शुक्रवार को उसने हिम्मत कर के पूछ ही लिया।
‘साहब आउट
ऑफ कंट्री गए हैं मनोज’...मेमसाहब ने कंट्री पर जरूरत
से ज्यादा जोर देते हुए कहा, ‘बुधवार
तक आएंगे उसके बाद ही कुछ हो पाएगा’।
साहब को लाने ले जाने कंपनी की सफेद टोयोटा आती
थी, इसलिए मनोज को उनके प्रोग्राम का कभी पता नहीं रहता था। घर की दोनों गाड़ियां
अदल-बदल तक मेमसाहब और बच्चे ही इस्तेमाल करते थे।
मैडमजी,...शब्दों को चबा-चबा कर उसने कहना शुरु
किया....’सोच रहे थे वो फ्रिज हमहीं
ले लेते...आप दाम बता दीजिएगा हम थोड़ा-थोड़ा करके कटवा लेंगे वेतन में से’...
पैसों का जिक्र करते ही मनोज खुद ही डर
गया..कहीं मेमसाहब ये ना भांप लें कि उस दिन गाड़ी में हुई बकझक उसके पल्ले पड़ गई
थी।
उसने जल्दी-जल्दी बोलना शुरु किया...’असल में सविता को खाना बनाने का चाव है ना बहुत
और गर्मी भी इतनी है अबकी’
उसकी शादी और पत्नी का जिक्र आते ही मेमसाहब नरम
पड़ने लगती हैं इतना तो समझ ही गया है वो।
‘हां भई
नई गृहस्थी में ही तो खाना बनाने और चीजें जोड़ने का चाव होता है, बाद में तो सब’...मेमसाहब
ने दार्शनिक बनते हुए कहा।
साहब को आए भी हफ्ता बीत गया पर फ्रिज का मामला आगे
बढ़ ही नहीं रहा था....आधा जून भी निकलने को था...और मनोज का धीरज जवाब दे रहा था।
दिमाग पर फ्रिज ऐसा छाया था कि सालों से गला तर कर रहा घड़े का पानी अब उसके गले से
नहीं उतरता था। ऐसे ही एक अधीर क्षण में सविता के सामने फ्रिज का नाम निकल ही गया
उसके मुंह से....
सविता की आंखों में चमक से विभोर होकर उसने ये
भी कह डाला, ‘तुम्हारे लिए तोहफा नहीं
लाए थे ना हम...इसलिए सोचा ये खरीद लें।‘
इधर एक और अफसोस हो रहा था उसे, कहीं पैसों की
बात खुद से उठाकर गलती तो नहीं की ना उसने..क्या पता मेमसाहब यूं ही दे देती उसे,
अब पता नहीं कित्ता पैसा मांगें...घर आती लक्ष्मी को कौन हाथ से जाने देगा बेमतलब।
कोई बात नहीं उसने खुद को समझाया...बहुत होगा तो
दो हजार लेंगी..पांच-पांच सौ करके चार महीने में कटवा लेगा, किसी को पता भी नहीं
चलेगा।
आखिरकार इतवार की सुबह-सुबह साहब का फोन आया
था...’आज किसी वक्त आकर फ्रिज उठा
ले जाओ मनोज हमें जगह खाली करानी है....’
आधे घंटे के भीतर वो पहुंच गया था। उसके बाद
पूरा घंटा लगा था सीता को फ्रिज खाली करने में...
चार हज़ार...साहब ने कहा तो झटका लगा उसे....’पांच हजार का डिस्काउंट तो नए फ्रिज पर वो शोरूम
वाला दे रहा था इसके बदले....वो तो मेमसाहब ने तुम्हें जबान दे दी थी इसलिए...’
उसकी आँखें मेमसाहब को ढूढने लग गईँ...उनसे बात
करना हमेशा ही आसान रहता है मनोज के लिए...साहब के सामने तो....
‘जी ये तो
ज्यादा हैं हमारे लिए...वैसे जैसा आप ठीक समझें...हम छह-आठ महीने में पांच पांच सौ
करके....’
‘भई ये
महीनों का हिसाब हमारी समझ में नहीं आता है....साल दो साल से ज्यादा तुम लोग वैसे
भी एक जगह पर नहीं टिकते हो...लेना हो तो दो महीने में दो-दो हजार कटवा कर ले लो।
डब्बल डोर का फ्रिज है, दो सौ दस लीटर का और नया ही है समझो।‘
पीछे हटने का सवाल ही नहीं था...अब तो सविता को
भी पता थी बात। गार्ड और प्लम्बर की मदद से उसने फ्रिज को रिक्शे पर रखाया और
दोनों हाथों से उसके दरवाजे थाम कर बैठ गया। निकलते वक्त फ्रिज की चाभी ही नहीं
मिली मेमसाहब को।
घर पहुंचने तक उसके हाथ की मांसपेशियां कस गईं
थीं।
अपने दो दोस्तों के साथ मुकेश नीचे ही उसका
इंतजार कर रहा था...सविता ने बता ही दिया उसे। सबने बड़ी सावधानी से उसे तीसरे
माले के सबसे कोने वाले कमरे तक पहुंचाया। सविता दरवाजा पकड़ कर खड़ी थी, उसकी ढाई
इंच की मुस्कान देखकर उसे अपनी मांसपेशियों का कसाव कम होता लगा। कमरे में फ्रिज
की जगह बनाने में कम मशक्कत नहीं करनी पड़ी....दोनों बक्सों को चौकी के नीचे
घुसाया...खाना बनाने वाले कोने के आधे बर्तन भी चौकी के नीचे आए तब भी फ्रिज ने
आधी खिड़की को घेर लिया। फ्रीजर वाले दरवाजे पर कंकुम से स्वास्तिक बनाने के बाद
सविता ने सबसे पहले आईस ट्रे में पानी भरकर अंदर रखा।
‘कब तक
बरफ बनेगा?’
‘दो-तीन
घंटा से ज्यादा क्या लगेगा’..दोनों
हाथों को खींचकर सिर के पीछे ले जाते हुए उसने मुस्कराते हुए जवाब दिया। नीचे के दरवाजे को खोल कर
सविता हर हिस्से की सफाई करने बैठ गई। झांक कर उसने देखा पानी की कई सारी पुरानी
बोतलें भी डाल दी थी अंदर मेमसाहब ने। सब्जी वाली ट्रे में दो चार बैंगन भी पड़े
थे...शायद सीता जल्दबाजी में निकालना भूल गई हो।
‘अब हर दस
मिनट पर दरवाजा खोलोगी तो अंदर गर्मी नहीं जाएगी?’...बड़ी
देर तक देखते रहने के बाद उसने पत्नी को टोका।
‘हां पर
आप तो दो-तीन घंटा कहे थे’...दस
बजे के डाले चार बज गया है और बरफ बना ही नहीं।
उसने खुद से खोल कर देखा...छह घंटे में बस उपर
की परत जमी थी...जरा जोर से उंगली दबाओ तो नीचे बस ठंड़ा पानी।
‘आप एक
बार पूछ क्यों नहीं लेते….कहीं हमसे चलाने में तो....’ दो महीने के बराबर आज ही बोलेगी आज ये भी।
रात के आठ बजे थक कर उसने मेमसाहब को फोन
मिलाया...
‘जी मैडमजी
कनेक्शन तो आपके कहे के जैसे कर दिए थे....लेकिन ठंड़ा नहीं हो रहा ठीक से…’
‘बिजली का
प्वाईंट तो देख लिया था ना?’
‘जी-जी वो
भाई है ना हमारा उसका दोस्त इलेक्ट्रीशियन का काम करता है, वही किया था सब।‘
‘फिर
बिजली नहीं होगी दिनभर...’
‘आज तो
लाईन था दिन भर...बस दो घंटा बीच में गया था...’
‘अब मैं
क्या बताऊं...कल तक तो ठीक ही था अब इतने दिनों से हम तो यूज कर ही रहे थे...’
‘मनोज’
इस बार दूसरी तरफ साहब की आवाज थी...
‘नहीं
लेना हो तो वापस पहुंचा जाओ, रिक्शे का किराया हम दे देंगे तुम्हे। तुम लोगों की
मदद करो तो हमारे ही गले की हड्डी बनती है।‘
‘जी..जी
साहबजी..वैसी तो..तो कोई बात नहीं है..’
उधर से फोन कट गया।
सुबह ड्यूटी पर जाते हुए उसने शिवम
इलेक्ट्रॉनिक्स वाले से बात की...
‘पुरानी
है ना भाई जी, गैस लीक कर गई होगी...आठ सौ हज़ार लगेंगे गैस डलवा लो फिर चकाचक
चलेगी।‘
‘अभी रहने
दो फिर देखते हैं....’ उसने अनमनेपन से कहा।
शाम को गाड़ी का चाभी वापस करने पहुंचा तो सीता
ने उसे अंदर आने का इशारा किया।
‘मेमसाहब
ने बोला है चाभी ले लो पुराने फ्रिज की....एक दो डब्बे और ढकने भी रह गए थे कल
देने को’
वो बैठक और डायनिंग रूम से होकर किचन के दरवाजे
पर पहुंच कर खड़ा हो गया। उसके वाले फ्रिज की जगह कथ्थई रंग का जगमगाता नया फ्रिज
खड़ा था सुनहरे रंग के बड़े फूलों
के डिजाईन वाला। बड़े गोदरेज के जितना और दरवाजे भी वैसे ही अगल-बगल खुलने वाले।
उसे अपना गला सूखता सा लगा।
’पानी
मिलेगा...एक ग्लास?’
पानी के लिए फ्रिज खोलने की जरूरत भी नहीं पड़ी।
जहाज़ जैसे उस फ्रिज के दाएं दरवाजे के बाहर ही एक टूंटी लगी थी। सीता ने ग्लास
हाथ में लेकर उसको अंदर की ओर दबाया और दस सेकेंड में ग्लास भर गया।
ग्लास उसे पकड़ा कर सीता अंडे के दो रैक और
प्लास्टिक के दो तीन डब्बे एक थैली में डालने लग गई।
ठंडे पानी का घूंट भरते ही हलक और सूखता जान
पड़ा।
हारे हुए खिलाड़ी की तरह थके कदमों से घर में
घुसा तो सविता ने इतराते हुए बताया,
‘रात जो
ट्रे भरे थे वो अब्भी जाकर जमी है, पानी ले आएं आपके लिए?’
‘नहीं
रहने दो...अभी सोने का मन है।‘
चौकी पर लेट कर उसने अपना दायां हाथ आंखों पर
डाल लिया। सर झनझना रहा था जैसे बर्फ की सिल्ली पर किसी ने लोहे का बड़ा सा बट्टा पटक डाला हो।
nice story!
ReplyDeleteshahri zindagi k ek kone se uthai gayi behtreen kahani. achha likha h badhai shilpi. ye kahani sarmaya hind k september ank me jayegi. agr chaho to mukhtasar profile, photo aur contact no. mujhe sarmayahind@gmail.com par mail kar den.
ReplyDeletetasleem