Sunday, October 29, 2017

विचारधारा का उपहास या उपहास की विचारधारा?



बचपन में हमारे एक रिश्तेदार अक्सर घर आते रहते. हम सब पर बहुत स्नेह रहा उनका. पढ़ाई-करियर के बारे में बहुत अच्छी बातें बतातें. कहानियां भी खूब रोचक होती उनकी. आध्यात्म पर तो उनकी बातें हम चमत्कृत होकर सुना करते. नास्तिकता के समर्थन में उनके तर्कों से लाजवाब होते. फिर एक दिन उन्होंने जोश में ईश्वर को चुनौती देते हुए मां के मंदिर के सामने जूते पहने अपना पैर लहराकर एलान किया, ये हैं ना आपके भगवान, मैं तो कुछ नहीं मानता इन्हें.”

मेहमाननवाज़ी का तकाज़ा था, मां ने एक शब्द नहीं कहा. लेकिन मेरे मन में उस रोज़ वो सम्मान के कई पायदान एक साथ उतर गए. उनसे बाद में भी उतना ही स्नेह मिला, लेकिन अपने उपर उनकी बातों का प्रभाव कम होता गया. ज्ञान का ऐसा भी क्या दंभ कि सामान्य सा शिष्टाचार भी निभाने ना दे. किसी की आस्था और मनोबल के केन्द्रबिंदु का यूं अपमान करने वाला शब्दों का चाहे कितना बड़ा सौदागर क्यों ना हो सम्मान के शीर्ष पर पहुंचने लायक कभी नहीं बन सकता.

हम विचारों और विचारधारा के मैगी नूडल युग में जी रहे हैं. हर रोज़ नई किस्म की सामाजिक क्रांति करने को आतुर. फिर निर्धारित शब्द-सीमा में चार लाइनें लिखने को उस क्रांति के यज्ञ में अपनी ओर से पूर्णाहूति मान लेते हैं और उम्मीद करते हैं कि हर कोई उसके समर्थन में जयघोष करे. ना करे तो हिकारत से देखे जाने का भागी बने. ऐसा करने वाले अक्सर भूल जाते हैं कि वो किसी और का भला करने की आड़ में अपनी श्रेष्ठता साबित करने की उनकी बचकानी ज़िद बहुत कोशिश के बाद भी बुरी तरह एक्सपोज़ हे जा रही है.

विचारधारा हमारे घर की पिछली गली में बहने वाली पतली धार तो है नहीं. इसके अंदर भी कई-कई अंतर्धाराएं निहित होती हैं. फिर कोई ये उम्मीद भी कैसे कर सकता है कि दूसरे उसमें से बिल्कुल उसके बराबर ही अंजुलि भर लें और उसके जितना ही रसास्वादन करें? चूंकि क्रांति की कड़ाही में सबसे तेज़ी से उबाल लाने वाला द्रव्य आजकल फेमिनिज़्म है इसलिए सबसे ज़्यादा आंच भी उसी के नीचे धधकायी जाती है. राजनीति और धर्म का नंबर उसके बाद लेकिन स्त्रीवाद पर विवाद सदाबहार. साड़ी-स्कर्ट से छूटा तो बिंदी-बिछुए पर अटका, कहीं रसोई और दफ्तर का रगड़ा तो कहीं व्रत और त्यौहारों का झगड़ा. कुछ नहीं तो पति के सरनेम का ही टंटा उठा लिया. मैंने हमेशा ही इसे मेरा वाला पिंक छाप फेमिनिज्म कहा है. हर मामले में टांग घुसाकर सबको अपने कंफर्ट ज़ोन में ले चलने का बचपना.

जर्मन चांसलर एंजेला मर्कल तलाक और दूसरी शादी के बाद भी अपने पहले पति का सरनेम इस्तेमाल करती हैं, पेप्सी की चेयरपर्सन इंद्रा कृष्णमूर्ति ने राज नूई से शादी के बाद अपना सरनेम बदला. इधर पत्नी के उठने-बैठने पर भी पैनी नज़र रखने वाले हमारे एक वरिष्ठ ने शादी के बाद पत्नी को नाम ना बदलने का आदेश दिया क्योंकि उनको दकियानूसी कहलाया जाना मंज़ूर नहीं था.

साड़ी और गजरे पहनने वाली इसरो में वैज्ञानिक बन मंगलयान लॉंच कर सकती है और टैंक टॉप वाली को असहज होने पर भी अपना सीना ढकने की इजाज़त नहीं. लेकिन ये कहना भी साधारणीकरण की अति कि साड़ी पहनने वाली हर औरत शिक्षित और स्वतंत्र है या कम कपड़े औरतों की अपनी च्वाइस नहीं हो सकते. वैसे मेरे विचार में तो समाज और परिवार में रहकर किसी के लिए भी एब्सल्यूट फ्रीडम या पूर्ण स्वतंत्रता की बात करने से ज़्यादा भ्रामक और अनरियलिस्टिक और कुछ भी नहीं. फिर भी अगर आज़ादी को ही परिभाषित करना है तो उसका एक ही मानक होता है, अपने फैसले खुद लेने की आज़ादी और उनका निर्वाह कर सकने लायक कूवत.

आपको क्या लगता है कि सैकड़ों-हज़ारों साल पहले औरतों के श्रृंगार के सामान उनको रूढ़ियों में कैद करने की पूर्व-निर्धारित योजना के साथ इजाद किए गए होंगे? या धर्म और राजनीतिक विचारधाराओं के साथ ऐसा हुआ होगा? हर नई परंपरा किसी ना किसी पुराने रुढ़िवाद को खत्म करने के लिए शुरु की गई लेकिन समय के साथ हर परंपरा का ग़लत इस्तेमाल किया गया. हर नया धर्म पहले से चली आ रही धार्मिक मान्यताओं की जड़ता और बर्बरता के विरोध में आया और कालांतर में मौकापरस्तों के हाथों खुद भी जड़ और बर्बर बनता गया. लेकिन हम रुढ़ियों के इतने पक्के कि पुरानी खाल के फटे ढोल को ही पीटते जाने में अपनी शान समझते हैं.

इंसानी मान्यताएं और समस्याएं बहुत ही जटिल तंतुओं से बनी है. ज़िंदगी एकल मानक वाले समीकरण नहीं है जिसके सवाल एक तरह से हल कर लिए जाएं. यहां हर कोई अपने स्तर पर अलग किस्म की लड़ाई लड़ रहा है. हरेक के लिए उसकी ज़िंदगी भी एक और उसकी लड़ाई भी सबसे अहम. जो सच में क्रांति लाना चाहते हैं वो हरेक की लड़ाई का सम्मान करते हुए धैर्य से उनमें बृहत बदलाव के लिए काम करते हैं, यू हवा में धधकते गोले नहीं छोड़ते.


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