Sunday, November 5, 2017

कुछ रंग सीरियलों के....


देश में हिंदी टीवी सीरियलों के कंटेंट की जैसी हालत है और उनको लेकर चेतना सम्पन्न आबादी के जैसे विचार हैं, ये कहना कि आप किसी भी तरह से इन सीरियलों से संबंध रखते हैं आपके बुद्धिजीवी होने पर सवाल खड़ा कर सकते हैं. इस ख़तरे को अच्छी तरह समझते हुई भी ब्लॉग में आज पहली बार किसी टीवी सीरियल के बारे में लिखने का रिस्क ले रही हूं.  

कार्यक्रम है टीआरपी के मामले में थोड़े गरीब चैलन सोनी पर पिछले हफ्ते ख़त्म हुआ सीरियल कुछ रंग प्यार के ऐसे भी.” मुझे इसके चर्चित जोड़े शाहिर खान यानि देव और एरिका फर्नांडिस यानि सोनाक्षी की युवाओं में लोकप्रियता पर कुछ नहीं कहना, बात करनी है उसकी कहानी पर. मध्यवर्गीय परिवार की एक स्वाभिमानी न्यूट्रीश्निस्ट गरीबी और खुद्दारी में बड़े हुए बिज़नेस टायकून की मां की निजी डॉक्टर बनकर घर आई और उसके प्यार में पड़ गई. चूंकि सीरियलों वाली शादी थी तो बिना साज़िश, बहकावे और ग़लतफहमी के हो भी कैसे सकती थी सो उन अड़चनों में कुछ हफ्तों के एपिसोड गंवाने के बाद वह भी हो गई. जहां तक याद है शुरुआती कुछ हफ्तों तक देखने के बाद इसी दौरान ऊब कर मैंने इस सीरियल से नाता तोड़ लिया था. उसके बाद बीच-बीच में इंटरनेट पर कहानी के अपडेट पढ़ने का सिलसिला जारी रहा फिर जैसे ही पता चला कि अपने हीरो-हिरोइन के बीच गलतफहमी के चलते डिवोर्स हुआ और कहानी कुछ साल आगे खिसककर वहां पहुंची जहां मुख्य किरदार उर्फ सोनाक्षी एक सफल बिज़नेस वुमन और एक बच्ची की मां है जिसके पिता यानि हीरो देव इस बात से अनजान हैं, अपनी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फिर गया. उसके कुछ महीने बाद सोनी टीवी ने कौन बनेगा करोड़पति के लिए जगह बनाने के लिए हड़बड़ी में कहानी में सब कुछ ठीक कर उसे खत्म कर दिया गया.

लेकिन महीने भर बाद ही जनता की मांग पर कहानी नए समय पर दूसरे सीज़न के साथ वापस आई. इस बार सोनाक्षी दो बच्चों के साथ करियर और परिवार के बीच तालमेल बिठाती हुई मां है जिसे पति के सहयोग के बावजूद सबकुछ बिखरा सा लगता है. और यहीं आता है एक ऐसा मोड़ जो हिंदी सीरियलों के कथानक के अब तक के रिकॉर्ड से आशातीत है. करियर के लिए बीवी का समर्पण देख पति ने घर पर रहकर बच्चे संभालने की ज़िम्मेदारी ले ली है और एक छोटी सी दुर्घटना की बदौलत रोडियो जॉकी बन गया है. देव के रोडियो कार्यक्रम का नाम है सुपर डैड जो करियर और परिवार के बीच तालमेल बिठा रहे पिताओं और पतियों के बीच बेहद लोकप्रिय है. महज़ आठ हफ्ते चले दूसरे सीज़न में कहानी ने ब्लू व्हेल के ख़तरे जैसे मुद्दे को भी उठाया.

दिनों दिन पिछड़ेपन की ओर बढ़ते टीवी सीरियलों की कहानी के बीच इस तरह की बात रख पाना बेहद सकारात्मक है. इससे ज़्यादा उत्साहित करने वाली बात ये कि भले ही रेटिंग की दौड़ में ये सीरियल ससुराल सिमर का और ये रिश्ता.. जैसे थके कार्यक्रमों के आगे टिक नहीं पाई लेकिन यू ट्यूब पर इसके लगभग हर एपिसोड को दस लाख से ज़्यादा बार देखा गया है. इंटरनेट मूवी डेटाबेस यानि आईएमडीबी ने भी इसे 10 में से 9.3 की रेटिंग दी है. जबकि सिमर और साथिया जैसे थकाउ कार्यक्रमों को यहां 2 से भी कम की रेटिंग मिली है.

हमने काफी संभावनाओं से भरी कहानियों को टीआरपी की चौखट पर असमय दम तोड़ते देखा है. जो बच गईं उन्होंने बचे रहने के लिए टीवी सीरियलों के कुल जमा चार-पांच फॉर्मूला में से एक या ज़्यादा को आत्मसात कर लिया. ये बात कई बार कही जा चुकी है कि टीवी सीरियलों को सोप ओपरा इसलिए कहा जाने लगा क्योंकि उन्हें ज़्यादातर साबुन कंपनियों के विज्ञापन मिलते थे. लेकिन भारतीय परिवेश में ढलने के बाद ये सास-बहु सीरियलों के नाम से ज्यादा पहचाने गए. वजह, इनका किचन पॉलिटिक्स और कहानियों को खींचते जाने के चार-पांच आज़माए नुस्खों से कभी आगे नहीं बढ़ पाना. कई बार बदलाव की उम्मीद के साथ शुरु हुई कहानियां भी प्रतीकों और फॉर्मूला के जाल में फंसकर टीआरपी की बलि चढ़ गईं. फिर वो टीवी सीरियलों का इतिहास बदलने वाली  बालिका वधु हो या फिर बंधुआ मज़दूरी की समस्या पर बनी उड़ान, स्क्रीन पर अपनी उम्र लंबी करने के मोह में ऐसे फंसे कि मुद्दे से फिसल कर सारी प्रतिष्ठा खो बैठे. ऐसे में सोनी की ये पहल बेहद सकारात्मक है.

वैसे टीआरपी रेटिंग के आगे नतमस्तक हुए बड़े चैनल बीच-बीच में केटेंट के साथ प्रयोग करने की कोशिश में नज़र आते रहे हैं. इज्रायली सीरियल प्रिज़नर ऑफ वॉर पर बनी स्टार प्लस की पीओडब्ल्यू बंदी युद्ध के हो या गैंगरेप की शिकार लड़की फातमागुल की कहानी पर आधारित स्टार प्लस की ही क्या कसूर है अमला का चैनल अब सीमित एपिसोड वाले सीरियलों पर पैसा लगाने और टीआरपी के मोह में पड़े बिना तय समय पर उन्हें ख़त्म करने का रिस्क ले रहे हैं. लेकिन मक्खी बनी सिमरों और सहमी-सिहरी गोपी बहुओं के झंझावत के आगे इन प्रयोगों को लंबे समय तक याद्दाश्त में बने रहने के लिए बहुत मेहनत की ज़रूरत है.

रोज़मर्रा की ज़िंदगी में टीवी सीरियलों की जिस हद तक घुसपैठ है उसे सकारात्मक बना पाने के लिए सार्थक बहस वाली ऐसी कहानियों का कहा और देखा जाना बेहद ज़रूरी है जिससे उनकी आर्थिक सफलता भी बनी रहे.


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